अन्तरजाल पर साहित्य प्रेमियों की विश्राम स्थली मुख्य पृष्ठ
12.14.2008
लघुकथा की प्रासंगिकता एवं उपादेयता
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
--------------------------------------------------------------------------------
आर्थिक उदारीकरण, ग्लोबलाइजेशन अर्थात् एक ध्रुवीय होती दुनिया के इस वर्तमान भौतिकवादी युग में किश्त-किश्त जीवन जीता आदमी व्यक्तिगत जिजीविषा की पूर्ति हेतु दिनोंदिन आदमी नहीं, मशीन बनता जा रहा है। वह समय को अपना उत्पादक बनाकर बहुत ही चालाकी से उसका व्यापार कर रहा है, वास्तविकता यह है कि ऐसे समय में जब दुनियां की मण्डी में समय की कलाबाजी हो रही है, मनुष्य अपना समय निःस्वार्थ नष्ट नहीं कर सकता। इसलिए पेशेवर साहित्यधर्मियों एवं पाठकों को छोडकर शेष लोग अपनी मानसिक थकान मिटाने हेतु कुछ ऐसा पढ़ना या समझना चाहते हैं, जिसमें समय कम लगे और उन्हें उसका प्रतिफल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त कर सकें। साथ ही उसके ग्रहण करने एवं समझने का दायरा दर्पण की तस्वीर की तरह पारदर्शी भी हो। आज लघुकथाओं की यही सार्थकता, प्रासंगिकता एवं उपादेयता भी है।
लघुकथाकार अनावश्यक कथा विस्तार, वर्णनात्मक फैलाव और विलगाव से बचता हुआ जीवन के छोटे घटना प्रसंग संवेदनाओं के माध्यम से व्यक्त करता है। विधा के रूप में जिस तरह साहित्य के गद्य रूप की कथा विधाएँ-उपन्यास एवं कहानी होती है, उसी तरह लघुकथा इन्हीं तत्वों के परिप्रेक्ष्य में लिखी जाती हैं। इन तीनों उपविधाओं में अन्तर मात्र कथानकों का होता है जिसके कारण इन तीनों में स्वतः ही आकारगत अन्तर आ जाना लाजमी है। इन्हीं प्रमुख बिन्दुओं पर इसका शिल्प केन्द्रित होता है, अब वह शिल्प चाहे पारम्परिक हो, प्रयत्न साध्य हो या स्वयंभू हो। जहाँ तक लघुकथा की पृथक पहचान का सवाल है, एक तो कथानक को लेकर आकारगत इसकी अपनी पृथक पहचान हैं तो दूसरी ओर हृदय में गहरे पैठकर मार करने की इसकी क्षमता विशेष पहचान रखती है। या यूँ कहा जाये कि “लघु कथा युगबोध को अभिव्यक्त करती है और नैतिक जीवनमूल्यों और नैतिक जीवनमूल्यों की राख के अन्दर कुरेदती हे। वह आलपिन की चुभन भी है और गन्ध की छुअन भी है। दरअसल लघुकथा की अनिवार्य शर्त रूप में न होकर गुण में है, शिक्षा में न होकर संस्कार में है दृश्य में न होकर प्रभाव में है, स्वास्थ्य में न होकर व्यक्तित्व में है और व्यक्तित्व कर्म से बनता है, कसरत से नहीं।”
लघुकथा अपनी वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा आश्रय के मन में एक भावनात्मक रूप ग्रहण करती है, जिसके भीतर उद्बोधित शोक, मानवीय शोषण, गरीबी, उत्पीड़न, असहायता के प्रति करुणा अर्थात् मानव को त्रासद परिस्थितियों से मुक्त कराने के भाव से सराबोर हो उठता है, जिसके कारण आश्रय के मन में साहस का एक ऐसा नया भाव जागृत हो उठता है जो बुराइयों, अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, साम्राज्यवादियों, नीतियों के विरोध में संघर्ष और चुनौती का वीरतापूर्वक परिचय देने लगता है। सही अर्थों में देखा जाये तो लघुकथा की यही सत्योन्मुखी संवेदनशीलता है, जो शोषणविहीन समाज अर्थात् मंगलकारी तत्व की स्थापना करना चाहती है।
आकार की बात करें तो लघुकथा पंचतंत्र की बोधकथा की तरह आरम्भ होती है किन्तु बोध कथा का उद्देश्य केवल उपदेशात्मक होता था जबकि आधुनिक लघुकथा का लक्ष्य बहुआयामी है। तुलमात्मक दृष्टि से अवलोकर करें तो लघु कथाहास्य से थोड़ी दूर बनाकर चलती है, वहीं दूसरी ओर व्यंग्य के प्रति इसका सम्बन्ध घनिष्ट होता है। क्योंकि आज के विसंगति प्रधान समाज पर यह करारा प्रहार करती है।
लघुकथा में व्यंग्य का होना अनिवार्य नहीं है, परन्तु व्यंग्य की उपस्थिति से लघुकथा में रोचकता आ जाती है। लघुकथा अपनी विशेषता से पाठक के मूड में जबर्दस्त परिवर्तन कर दे, साथ ही उसके मानस को कुछ सोचने पर विवश कर दे, उसमें वैचारिक विद्रोह का बीज बो दे। यह भी कहा जा सकता है कि लघुकथा एक पृष्ठ की गद्य सीमा में पूर्वजों सा प्राचीन या नवजात शिशु-सा ताजा कथानक, प्रत्यंचा से कसे हुए शब्द, फैशन के समान बन्धनहीन आकर्षक शैली और अन्त में कुछ करने अथवा बनने की ओर पाठक की तड़प का उद्देश्य लिए हुए हो। इन्टरनेटी युग मे सभी इसकी सार्थकता है।
लघुकथाओं की सर्जनात्मक शक्ति कहानी से किसी स्तर में कम नहीं मान जा सकती है। समसामयिक जीवन की विसंगतियों के विरुद्ध लघुकथाओं में जिस तीखेपन और वास्तविक रूप में विरोध/प्रतिरोध का स्वर गुंजित हुआ है, उससे इन लघुकथाओं की जीवन्तता की तस्वीर स्पष्ट दिखती है। इसके साथ ही अन्य सम्भावनाओं की आशा एवं प्रगति साफ दिखती है। वास्तव में मन के अंतःकोणों से लेकर विराट सामाजिक परिदृश्य को चित्रित करने में लघु कथाएँ निश्चय ही अपने नघु रूपबन्ध कहानी के अनुरूप दिखाई देती है।
लघुकथा सामाजिक विद्रूपताओं/विसंगतियों के विरुद्ध एक रचनात्मक आह्वान है। लघुकथा पाठकों को आज की आपा-धापी और समयाभाव के बीव जीवनानुभवों और यथार्थ के विविध सन्दर्भों आयामों का बोध कराती है। इन लघुकथाओं के माध्यम से रचनाकार उन जीवनपरिस्थितियों से परिचय कराता है जिनसे सम्पूर्ण मानवीय जीवन प्रभावित होता है। ये लघुकथाएँ कविता और गजलों की तरह सामाजिक, राजनीतिक और दैनिक जीवन की विसंगतियों/घटनाओं को विशिष्ट अन्दाज में वर्णन करती है। पढ़ने वाला इसके प्रति लगाव महसूस करने लगता है। वास्तविकता यह है कि लघुकथाओं में ’नावक‘ के मानक के समान सीमित शब्दों में बहुत कुछ कहने की असीमित शक्ति छिपी हुई है। उसमें व्यंग्य की पैनी धार है, आक्रोश के तीखे स्वर हैं, प्रतीकों और बिम्बों की सशक्त प्रयोगधर्मिता है, सारग्राहवाणी, है क्रान्तिधर्मी चेतना है, समूचे परिवेश को समेट लेने की अपरिमित क्षमता विद्यमान रहती है।
आज बाजारवाद ने लोकतंत्र को अभिजात्व वर्ग तक सीमित कर दिया है। आधुनिक भारत में पूँजीवाद के विकास के असंगत गति के परिणामस्वरूप ही सामाजिक, राजनीतिक विषमताओं जन्म हुआ। आजादी के बाद हमारे देश में पूँजीवादी व्यवस्था का शोषण चक्र जिस तीव्रता के साथ हुआ है उससे हमारे सामाजिक जीवन में अजीबोगरीब परिवर्तन हुए हैं। वर्गवादी और स्वार्थी सत्ता की राजनीति ने अब तक मानवीय मूल्यों को अपूरणीय क्षति पहुँचाई है, जिससे मानव अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश हुआ है। भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, स्मगलिंग, परिवारवाद, व्यक्तिवादी सोच को निरन्तर बढ़ावा मिलने के कारण सम्बन्धों में विघटन तेजी से आया है। व्यक्ति वर्गों और सम्प्रदायो में विभाजित हो गया है, वह उपभोक्ता संस्कृति का एक प्रोडक्ट बनकर रह गया है। साम्प्रदायिक, धार्मिक, आपराधिक राजनीति ने मनुष्य को असुरक्षा, भय और हिंसा के वातावरण में प्रवेश करने को मजबूर कर दिया है। अर्थशास्त्र की गणित के कारण रिश्वत, हिसां, लूट, बलात्कार तथा हत्या आदि को निरन्तर प्रश्रय मिल रहा है। नेता, अधिकारियों और पुलिस के त्रिगुट ने जहाँ अपने स्वार्थों की पूर्ति की है, वहीं मानव जीवन को प्रभावित/आतंकित भी किया है। इस पूँजीवादी व्यवस्था के पतनशील मूल्यों के कुप्रभाव के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की समस्या उत्पन्न हो गयी है। सूचना संचार के माध्यमों-प्रेस, पत्र, रेडियो, टेलिविजन द्वारा निरन्तर साहित्य-संस्कृति को क्षग्रिस्त करने का सफल-असफल प्रयास किया जा रहा है। पुलिस और नौकरशाही से तालमेल के कारण समाज में ऐसी घृणित घटनाओं का सृजन हो रहा है कि शर्म से सिर नीचा हो जाता है। इस तथ्य को प्रेस भी स्वीकार करता है। वोट बैंक, जातिवाद और राजनीति के कारण मानव मन, परिवार, गाँव, शहर और समूचे समाज में विघटन की सतत् प्रक्रिया जारी है। इक्कीसवीं सदी के हसीन सपनों में जीता हुआ व्यक्ति स्वतंत्रता, विकास, नई शिक्षा नीति के सुनहरे नारों के बीच आर्थिक संकट से उबरने के लिए भरपूर शक्ति से प्रयास कर रहा है। व्यवस्था की इन विसंगतियों और कुरूपताओं को यथार्थ अभिव्यक्ति देने में इन लघुकथाओं ने सशक्त और जारूक पेशकश की है। इनके माध्यम से पाठक प्रतिदिन के वातावरण में होने वाली घटनाओं एवं कशमकश से वाकिफ़ और रू-ब-रू होता है। दूसरी ओर वह उन परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार ताक़तों/शक्तियों को पहचानने में सफल होता है, जिसकी वजह से व्यक्ति का जीवन विसंगतिपूर्ण और अमानवीयता की ओर अग्रसर होता चला आ रहा है। लघुकथा का मूल अर्थ/तेवर मानवीय सहानुभूति का भाव एवं व्यवस्था में होने वाली सडांध का विरोध करना पड़ रहा है, जो इसकी सार्थकता को सिद्ध करता है।
हिन्दी लघुकथाओं के विकास में लघु पत्र/पत्रिकाओं की विशिष्ट भूमिका रही है क्योंकि इन पत्रिकाओं के माध्यम से ही लघुकथाओं की पहचान स्पष्ट हो सकती है। वास्तविकता यह है कि इन पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी विकास यात्रा के दौरान इन लघुकथाओं ने उन ऊँचेऊँचे सोपानों को स्पर्श किया जिनके आधार पर ही कहानी केन्द्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। अपनी इस आत्म यात्रा में ही लघुकथाओं की लेखन परम्परा समृद्ध और प्रसिद्ध हुई है। सन् सत्तर के दशक में समकालीन विधाओं के बीच लघु कथा ने अपना एक स्वतंत्र वजूद बना दिया था। ’सारिका‘ जैसी महत्वपूर्ण कथापत्रिका ने लघुकथाओं के विशेषांक और महत्वपूर्ण अंकों को प्रकाशित कर लघुकथाओं के महत्व की स्वीकृति को सार्वजनिक किया है। वर्तमान समय में प्रत्येक पत्रिका में इस विधा के प्रति रुचि सम्पादकों का ध्यान आकृष्ट किए हुए हैं। हिन्दी आलोचकों ने अवश्य इस ओर अपनी उपेक्षा दृष्टि और संकीर्ण मानसिकता का परिचय दिया है। समय-समय पर लघुकथाओं के विशेषांक, प्रदर्शनी तथा सेमिनारों के बढ़ते प्रभाव ने इसकी प्रासंगिकता सिद्ध की है।
स्पष्ट है कि आकार, तकनीक एवं शैली के आधार पर लघुकथा की अपनी पृथक पहचान बन चुकी है। लघुकथा का शिल्प परिणाम एवं विस्तार में प्रौढ़ता प्राप्त कर चुका है। इसलिए वर्तमान में लघुकथा के प्रति अनेक रचनाकारों का समर्थन और उत्साह अकारण नहीं है। जिस तीव्रता के साथ लघुकथा समृद्धता की ओर अग्रसर हो रही है, वह किसी भी साहित्य के लिए आश्चर्य का विशय हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा विधा की स्थापना व्यावहारिक, शास्त्रीय और सैद्धान्तिक दृष्टि से अपनी स्वाभाविक व सहज विकास यात्रा के प्रखर सोपान पर है, जो इसकी सार्थकता, प्रासंगिकता एवं उपादेयता को सिद्ध करता है।
--------------------------------------------------------------------------------
अपनी प्रतिक्रिया लेखक को भेजें
Saturday, January 31, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
माननीय यादव जी
ReplyDeleteलघुकथा पर आपका एक बहुत ही उपयोगी आलेख पढ़ा आशा है और भी अच्छे आलेख आपके ब्लाग पर मिल सकेंगे। आपने मेर ब्लाग का अनुसरण किया है इसके लिए मैं आपका आभारी हूं
अखिलेश शुक्ल
संपादक कथा चक्र
http;//katha-chakra.blogspot.com
बहुत सही विश्लेषण है.........
ReplyDelete