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December 15, २००८
रवि रतलामी - रचनाकार में प्रकाशित आलेख
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : बाल अधिकार और उनका क्रियान्वयन
बाल अधिकार और उनका क्रियान्वयन
- डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
बच्चे किसी भी समाज के भविष्य होते हैं। बच्चों को केन्द्र में रखकर ही कोई समाज या देश अपने राष्ट्र निर्माण की भावी संरचना का नवनिर्माण करता हैं क्योंकि बच्चे राष्ट्र की अमूल्य धरोहर एवं भावी संसाधन तथा सांस्कृतिक विरासत होते हैं। बाल्यकाल जीवन की सक्रिय एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था होती है। जो उसके भावी भविष्य की दिशाएं तय करती है। राष्ट्र के भावी निर्माण के लिए बच्चा केवल बच्चा ही नहीं होता है बल्कि अपने जन्म के साथ वह स्वयं भी एक माँ और पिता की जन्मता है। अर्थात् नवजात शिशु अपने जन्म से ही एक सम्बन्ध को नया रिश्ता देता है साथ ही एक नया नाम एवं सम्बोधन देता है। स्वाभाविक रूप से अल्हड़, कोमल, नटखट और गोद में अठखेलियां तथा किलकारी भरा बचपन एक लय में उमंगों की छलागें एवं पेंगे नहीं मार पा रहा है क्योंकि सरकारों द्वारा उठाये गये पर्याप्त कानूनी कदमों के बाद उनका उचित क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है और बच्चों के लिए निर्धारित किये गये अधिकार एवं मौलिक अधिकारों का खुलेआम उल्लंघन किया जा रहा है।
यूनीसेफ की हाल में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में बच्चों की सर्वाधिक संख्या भारत में है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2.5 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं। यह संख्या चीन सहित विश्व के किसी भी राष्ट्र में एक वर्ष में जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या से अधिक है। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या 37.5 करोड़ तथा छः वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या 15.8 करोड़ है। प्राथमिक शिक्षा को कानूनी दर्जा मिल जाने के बावजूद तीन करोड़ से अधिक बच्चे अभी भी प्राथमिक विद्यालयों में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पा रहे हैं। दो करोड़ से अधिक बच्चे नौकर के रूप में कार्य करने के साथ-साथ चाय की दुकानें, स्कूटर एवं कारों की मरम्मत, ढाबों, भवन निर्माण, कुलीगीरी, कालीन उद्योग, जरी की कढ़ाई, दियासलाई, आतिशबाजी, बीड़ी तथा पीतल उद्योगों, चूड़ी निर्माण जैसे जोखिमपूर्ण उद्योगों में लगे हुए हैं। दो तिहाई से ज्यादा श्रमजीवी बच्चे गम्भीर चोटों का सामना जलना, त्वचा की बीमारी, आँख की रोशनी एवं साँस की बीमारी सहते हुए असहाय सा जीवन जीकर काल कवलित हो जाते हैं - यह स्थिति भारत में ही नहीं वरन् विश्व के सभ्य एवं विकसित देशों में किसी भी पैमाने पर कम नहीं देखी जा रही है। अर्थात् विश्व के राष्ट्र बच्चों के द्वारा निर्धारित अधिकारों के प्रति सचेत नहीं जान पड़ते।
बच्चे के अधिकारों के प्रति सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 1989 में तैयार किये गये बाल अधिकार कन्वेंशन में इन विशिष्ट अधिकारों को बच्चों के मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया। जिसको भारत सहित लगभग सम्पूर्ण विश्व द्वारा मान्यता प्रदान की गई। 20 नवम्बर 1989 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा सम्बन्धी एक प्रस्ताव स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन का उद्देश्य बच्चों को कहीं भी उनके शोषण, दुरूपयोग और घृणा से मुक्ति दिलाना था। इसका विस्तृत विवरण सन् 1990 में आयोजित विश्व बाल सम्मेलन में किया गया॥ जिसके द्वारा प्रत्येक बच्चे को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक अधिकार प्रदान करने पर विशेष बल दिया गया। बच्चों की अन्य गम्भीर समस्याएं जिनमें बाल श्रम मुख्य है के लिए 27-30 अक्टूबर 1997 में नार्वे की राजधानी ओस्लो में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक बाल श्रम पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन विश्व के लोगों का ध्यान बच्चों के अधिकार एवं समस्याओं की ओर आकर्षित करने का विशेष प्रयास किया गया। संयुक्त राष्ट्र की विशेष महासभा में 08.10.2002 के द्वारा बच्चों के विकास, कल्याण एवं सुरक्षा हेतु विशेष रणनीति बनाई। इस रणनीति में बच्चों के 54 मूलभूत अधिकारों को पारित किया गया। जिनमें से प्रमुख रूप से अनु. 1 के तहत बच्चे की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे इस श्रेणी में रखे गये हैं। अनु. 2 विभेदहीनता, अनु. 3 में बच्चे की अनुकूल अभिरूचियां, अनु. 4 में उनके अधिकारों का कार्यान्वयन कैसे हो दिया गया है। अनु. 5 में माता पिता का मार्गदर्शन तथा बच्चों की क्षमताएं, जीवित रहने का जन्मजात अधिकार अनु. 6 में दिया गया है। वहीं अनु. 7-8 में बच्चे का नाम राष्ट्रीय तथा पहचान एवं संरक्षण के बारे में बताया गया है। अनु. 9-10 में माता-पिता से पृथकता तथा पारिवारिक पुनः एकीकरण का अधिकार बताया गया है। अनु. 11 में अवैध स्थानान्तरण एवं गैर वापसी के बारे में बताया गया है। अनु. 12 में बच्चे की राय अनु. 14-14 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं विचार, आत्मा की आवाज एवं धर्मदर्शन की स्वतंत्रता प्रत्येक बच्चे को प्रदत्त की गई है। अनुच्छेद 15-16 में संगठित होने की स्वतंत्रता एवं गोपनीयता के संरक्षण की बात कही गयी है। वहीं अनु. 17-18 में सूचना को पहुँचाने तथा माता-पिता के उत्तरदायित्व का वर्णन मिलता है। अनु. 19-20-21 में दुरूपयोग एवं उपेक्षा से संरक्षण, परिवार, विद्वान बच्चों का संरक्षण एवं गोद लिए जाने का प्रावधान किया गया है। अनु. 22, 23, 24 शरणार्थी बच्चे, बाधित बच्चे एवं स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में विशेष बल दिया गया है। अनु. 25 देखभाल एवं संस्था में रखने का पुनरावलोकन तथा अनु. 26-27 स्वाभाविक सुरक्षा, जीवन स्तर में सुधार की पूर्ति का वर्णन किया गया है। अनु. 28-29 में शिक्षा एवं शिक्षा के उद्देश्य के बारे में निर्देशित किया गया है। अनु. 30 अल्पसंख्यक समुदायों/देशी मूल के बच्चों के बारे में बताया गया है। अनु. 31 में रिक्त समय में मनोरंजन एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के बारे में निर्देशित किया गया है। अनु. 32 में बाल श्रम तथा अनु. 33, 34, 35, 36, 37 में क्रमशः मादक द्रव्यों का दुरूपयोग, लैंगिक शोषण, विक्रय, व्यापार, अपहरण व शोषण से संरक्षण तथा उत्पीड़न एवं स्वाधीनता से वंचित होने को निषिद्ध किया गया है। अनु. 38, 39, 40, 41 में सैन्य संघर्ष, पुनर्वास सम्बन्धी देखभाल, बाल न्याय का प्रशासन तथा वर्तमान मानदण्डों के प्रति सम्मान को रेखांकित किया गया है। अनु. 40-45 में बच्चों के प्रदत्त अधिकार को प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन, पोषण एवं अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न अभिकरणों यथा-अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को और यूनीसेफ समिति की बैठकों में उपस्थित हो सकेंगे। अनु. 46 से 54 के विशिष्ट बिन्दुओं में हस्ताक्षर अनु. समर्थन, प्रवेश, लागू होने वाले संशोधन, शंकाएं, प्रख्यापन तथा प्रमाणिक अभिलेखों के बारे में विवरण दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र समझौते के अनुसार इन अधिकारों के तहत बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना तथा प्राथमिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था करना सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।
भारतीय संविधान भी बच्चों के मूलभूत अधिकारों पर विशेष बल देता है जिनमें बाल श्रम को रोकने के लिए विशेष प्रावधान किये गये हैं। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15, राज्यों की महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के लिए विशिष्ट प्रावधान करने की शक्ति देता है। अनु. 24 में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कारखानों एवं अन्य जोखिम पूर्ण कार्य में नियोजन का प्रतिरोध किया गया है। वहीं आर्थिक आवश्यकताओं की वजह से किसी व्यक्ति से उसकी क्षमताओं से परे काम करवाने का अनु. 39 (ई.-एफ) प्रतिरोध करता है। अनु. 45 के द्वारा बालकों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान उपलब्ध कराने का राज्य को निर्देश दिया गया है। भारतीय संसद के द्वारा इन संवैधानिक व्यवस्थाओं के तहत 1974 में एक राष्ट्रीय नीति स्वीकार की गई जिसने घोषित किया कि बच्चों की उपेक्षा, क्रूरता और शोषण से रक्षा की जायेगी और 14 वर्ष से कम का कोई भी बच्चा अनिश्चितता वाले व्यवसाय या भारी कार्य में नहीं लगाया जायेगा। भारत में उन संवैधानिक प्रावधानों के अतिरिक्त अनेक ऐसे महत्वपूर्ण विधान दिये गये हैं जो बच्चों को विभिन्न व्यवसायों के तहत कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं। 14 वर्ष की कम उम्र का व्यक्ति फैक्ट्री एक्ट 1948 के तहत रोजगार नहीं कर सकता है। बागान एक्ट 1951 तथा खान एक्ट 1952 के तहत 15 वर्ष की उम्र में कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। कुछ प्रमुख अधिनियम अनुबंधित श्रमिक अधिनियम 1975, बाल श्रमिक (निवारण और नियमितीकरण) 1986 तथा 1987 की राष्ट्रीय बाल श्रम नीति के अन्तर्गत बाल श्रमिकों को शोषण से बचाने और उनकी शिक्षा, चिकित्सा, मनोरंजन तथा सामान्य विकास पर जोर देने की व्यवस्था की गयी है। इसके साथ ही भारत सरकार अपनी विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में बालकों के अधिकार एवं बाल श्रमिकों के उत्थान के लिए कई कार्यक्रम शुरूआत किए हुए है। सरकार के अलावा कई गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठन भी इस दिशा में गम्भीरता से प्रयासरत हैं।
हमें बड़े दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि विभिन्न वैश्विक संवैधानिक प्रावधानों और सरकारी तथा गैर सरकारी उपायों के बावजूद हम बच्चों के उनके मौलिक अधिकार एवं मानवाधिकार को उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं अर्थात् आज लाखों-लाख बच्चे गरीबी, आतंकवाद, भीख मंगवाना, धनाढ्यों के मनोरंजन के लिए उन्हें विदेश भिजवाना, तस्करी जैसे कार्य करवाना, बालश्रम, बाल व्यापार, कुपोषण, अशिक्षा, बाल अपराध, बाल सैनिक, विस्थापन, बालिका भ्रूण हत्या, विज्ञापनों के प्रयोग में बालकों का मानसिक एवं शारीरिक शोषण, बाल यौन दुराचार और युद्ध जैसे कई कारणों से पलायन करने वाले परिवारों के साथ सीमा पर सैनिकों की कामवासना का शिकार होने के अलावा उन्हें विभिन्न तरीकों से शारीरिक मानसिक और संवेगात्मक रूप से प्रताड़ित करने, उनके दैहिक और आर्थिक शोषण करने एवं मूलभूत सुविधाओं से वंचित करने के लिए ऐसी तकनीकों और प्राविधियों का प्रयोग किया जा रहा है, जो मानवता के नाम पर कलंक है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि विकराल होती बाल अधिकारों की समस्या को आज कानूनी और मानवाधिकार की दृष्टि से देखने के साथ-साथ उसके मानवीय, सामाजिक तथा व्यावहारिक पहलू से भी देखे जाने की आज शिद्दत के साथ आवश्यकता है तभी हम इन जमीं के नन्हें-मुन्नें सितारों को शारीरिक रूप से स्वस्थ, मानसिक रूप से सजग तथा नैतिक रूप से आदर्श नागरिक बना सकते हैं।
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सम्पर्क -वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र.
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने,
Saturday, January 31, 2009
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