Saturday, January 31, 2009

संयुक्त राष्ट्र संघ और हिन्दी

साहित्य, संस्कृति व भाषा का अंतर्राष्ट्रीय मंच
।। सृजनगाथा।।
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वर्ष- 2, अंक - 14, जुलाई 2007
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हिंदी-विश्व
संयुक्त राष्ट्र संघ और हिन्दी
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डॉ. वीरेंद सिंह यादव

हिन्दी आज एक राष्ट्र की भाषा न रहकर विश्व भाषा के रूप में अपनी ख्याति अर्जित कर चुकी है। क्योंकि हिन्दी भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व की सबसे सरल भाषा के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल हुई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हिन्दी जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है यही नहीं विश्व की सबसे प्रचलित भाषाएं जो संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना स्थायी स्थान बनाये हुए हैं। (अंगरेज़ी, फ्रेंच, रूसी, चीनी, स्पेनिश और अरबी) इनकी भाषिक एवं वाचिक संरचना के आधार पर हमारी हिन्दी सबसे उत्कृष्ट है। भाषिक, वाचिक विशेषताओं की दृष्टि से हिन्दी ही विश्व की ऐसी भाषा है जो विस्तार एवम एक रूपकता की शक्ति रखती है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को देखें तो यह वास्तव में वास्कोडिगामा के समय से ही अस्तित्व में आ गयी थी। परन्तु इस प्रक्रिया के चलते जो परिवर्तन हमें परिलक्षित होते हैं उसका समर्थन करना जटिल सन्दर्भों पर निर्भर करता है। भूमण्डलीकरण की इस प्रक्रिया को आज भी कोई निश्चित ,निर्णायक राय नहीं मिल पायी है ? शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों को यदि हम छोड़ दें तो अन्य क्षेत्रों में भूमण्डलीकरण आज अपना दबदबा कायम किये हुए है। भूमण्डली करण के कारण हिन्दी का प्रभाव व्यावसायिकता पर स्पष्ट दिखने लगा है। वैश्विक परिदृश्य की बात करें तो हिन्दी की पहचान तथा हिन्दी के प्रति रूचि विश्व में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में यदि हम देखें तो जितना हमरा देश में व्यावसायिक एवं वैधानिक दृष्टि से हिन्दी का विकास नहीं हुआ है उससे कहीं अधिक विकास विश्व में हिन्दी का हुआ है । और संयुक्त राष्ट्र संघ में जो भाषाएं स्थाई रूप से मान्यता प्राप्त किये हुए हैं उनमें हिन्दी को रखे जाने की माँग पर लगभग हर देश से इसे समर्थन मिलता शुरू हो गया है।



संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थाई मान्यता दिलाये जाने का प्रकरण आज कोई नयी बात नहीं है। हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में सन् 1975 से ही प्रयास जारी हैं। क्योंकि सन् 1975 ई. में नागपुर में सम्पन्न प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के माध्यम से औपचारिक रूप से यह प्रस्ताव रखा गया । इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं विश्व भाषा के मानकों में कहीं पीछे हो यह बात हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी सन् 1918 से पहले ही व्यक्त कर चुके थे। हाँ इस विश्व हिन्दी सम्मेलन से यह बात तो निश्चित हो गयी थी कि हिन्दी को जो स्थान मिलना चाहिए वह वैश्विक दृष्टि से उसे नहीं मिल पा रहा है। यह बात मॉरिशस के प्रथानमेंत्री सर शिवसागर राम गुलाम स्पष्ट कर चुके थे। इस सम्मेलन की यह विशेषता रही कि सभी ने एक स्वर से हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा दिलाने की पुरजोर वकालत की। भारतीय संसद में समय समय पर इस पर काफी तीखी बहसें एवं सुझाव पेश किये गये और तत्कालीन समय के प्रधानमेंत्रियों इंदिरा गाँधी, नरसिम्हा राव एवं अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने-अपने स्तर पर पार्टी से सम्बन्धित नितियों के आधार पर थोड़ी बहुत कोशिश की थी परन्तु संकल्प शक्ति के वह बहस नहीं की जो उन्हें करनी चाहिये । एक ही प्रधानमेंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ से हिम्मत जुटाकर अपना उद्बोधन हिन्दी को अपनी ही संसद के माध्यम से वह बहस नहीं की जो उन्हें करनी चाहिए । एक ही प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ से हिम्मत जुटाकर अपना उद्बोधन हिन्दी में दिया। हालांकि इससे पहले अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री की हैसियत में नहीं थे। जब बाजपेयी जी प्रधानमंत्री बने तो लोगों में आशाओं का संचार हुआ और उम्मीदें बँधी कि अब शायद हिन्दी को संवैधानिक दर्जा मिल जाये परन्तु वह सब कुछ सम्पन्न नहीं हो पाया जिससे हम वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी को लेकर अपनी बात को दमखम के साथ रखते । वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से उम्मीद की कुछ नयी किरणें बनी हैं कि शायद हमारी हिन्दी संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बन जाये इसके लिये सर्वप्रथम यह होना चाहिये कि सर्वसम्मत से संसद द्वारा हिन्दी को प्रथम वरीयता के रूप में संवैधानिक प्रस्ताव पास करके संविधान में राष्ट्रभाषा के रूप स्थापित किया जाये तब फिर हम इसे उत्साह से संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा का स्थान दिलाने के लिये प्रयास करें।



संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने की विश्व (वैश्विक देशों) की सहयोगी संस्था है। और विश्व के लगभग 150 से अधिक देश इसमें अपना सक्रिय सहयोग देते हैं। भाषिक दृष्टि से यह संस्था इस समय छह भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जिसमें चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, फ्रेंच एवं अरबी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने स्थापना तथा चार्टर 1945 के समय जब अस्तित्व ने आया तो उस समय इसमें प्रमुख रूप से पाँच देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन ही थे। ये ही राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तत्कालीन सदस्य भी बने। संयुक्त राष्ट्र संघ में वर्तमान भाषाओं के बोलने वालों की बात करें (एन कार्टा एनसाइक्लोपीडिया) तो स्पेनिश 33 करोड़ 20 लाख, अंग्रेजी 32 करोड़ 20 लाख, अरबी 18 करोड़ 60 लाख, रूसी 16 करोड़ तथा फ्रेंच 4 करोड़ 20 लाख। इस प्रकार हम देखते हैं कि आज जो संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषाएं हैं उसने परिप्रेक्ष्य में हमारी बोलचाल की हिन्दी इस समय 80 करोड़ अभिजनों की विश्व भाषा के रूप में प्रथम स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में यह प्रावधान है कि इसमें किसी नई भाषा को मान्यता लेने के लिये इसकी जनरल असेम्बली 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पारित करके अधिकारिक भाषा के रूप में इसे मान्यता दिला सकती है। तथ्यों एवं आँकड़ों पर गौर फरमायें की इस समय हिन्दी बोलने वाले विश्व में पहले स्थान पर आ गये हैं। हिन्दी अपनी विशुद्ध वैज्ञानिक लिपि तथा अनुशासित भाषाके साथ सरल, बोधगम्य व शीघ्र ही समझ में आने वाली, साथ बहुत कम समय में सीखे जाने वाली भाषा है। हिन्दी का व्याकरण सरल होने के साथ यह भाषा उच्चारण एवं समझने में सुगम है। यही कारण है कि यह विश्व के हर कोने में इसका प्रचार-प्रसार हो रहा है। विदेशों में आज हिन्दी अपने पठन-पाठन व अध्ययन के लिये सुगम भाषा के रूप में ख्याति अर्जित करती जा रही है। वास्तविकता यह है कि विदेशों में हिन्दी भाषा में रचित साहित्य की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इतना सब होने के बावजूद भी हिन्दी के प्रति अधिकारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारा दावा इतना मजबूत नहीं हो पा रहा है। कि उसे विश्व जनमत अधिकारिक भाषा का दर्जा दे सके। आखिर ऐसी कौन सी कठिनाइयां एवं परेशानियां है जिससे हमारी हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थान नहीं मिल पा रहा है ?



प्राथमिक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थापित करने के लिये तीन तरह के परेशानियां उपस्थित हो रही हैं - प्रथम दो तिहाई सदस्यों का बहुमत, दूसरे स्तर पर भारी आर्थिक खर्च, तीसरा कारण प्रमुख भाषाओं के अनुवाद की समस्या । जहाँ तक 2/3बहुमत की बात करें तो वैश्विक परिदृश्य में भारत के लिये यह सबसे कठिन कार्य है। क्योंकि भारत की बढ़ती ताकत के प्रति कोई देश नहीं चाहता है कि इसे भाषिक दृष्टि से मजबूत किया जाये। अमेरिका एवं बिट्रेन की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए यह मजबूरी सी लगती है क्योंकि इस समय इस्लामी आतंक के रूप में वह भारत का पुरजोर समर्थन प्राप्त करने के लिये अपने यहाँ हिन्दी पढ़ाने की वकालत के साथ-साथ सरकारी स्तर पर सहयोग राशि भी हिन्दी पर अधिक खर्च कर रहा हैं क्योंकि यदि वे नहीं करते हैं तो वहाँ पर रहने वाले भारतवासी अमेरिका ब्रिट्रेन को उतना आर्थिक/भावनात्मक सहयोग नहीं देंगे। दूसरे देश भारत कोसहयोग इसलिए भी नहीं दे सकते हैं कि अमेरिका एवं ब्रिट्रेन आखिर भारत को इतनी वरीयता क्यों दे रहा है। हम यह याद दिला देना लाजिमी समझते हैं कि अरबी भाषा को संयुक्त संघ ने केवल इसलिये अधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा मिला क्योंकि अमेरिका एवं ब्रिट्रेन को तेल की राजनीति करनी थी।फिलहाल कुछ भी हो भारत को इन अनुकूल परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने के लिये एक बार पुनः जोर आजमाइश शुरू कर देना चाहिये।



संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता है कि यदि उसे स्थायी दर्जा सदस्य देश के रूप में या भाषा के रूप में जो भी मिलता है। उसको प्रतिवर्ष एक निश्चित राशि इसके बनाये हुए कोशों में जमा करनी पड़ती है। इसलिये भारत के समक्ष यह बहुत बड़ी चुनौती है कि वह अपने आर्थिक ढाँचे में सुधार कर पहले संयुक्त राष्ट्र के मानकों को पूरा करे और अपनी आर्थिक नीति एवं मुद्रा स्फीति को वैश्विक स्तर पर लाकर विश्व के देशों के समक्ष कोई ऐसा मौका न दे कि कोई हमारी अर्थव्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा सके। तीसरी तरह की परेशानी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को हिन्दी भाषा के लिये अधिकारिक रूप में रखने के लिये अनुवाद की समस्या आ सकती है क्योंकि अन्य अधिकारिक भाषाओं और हिन्दी के बीच समानान्तर अनुवाद कराने का खर्च बहुत अधिक होगा। यही नहीं यांत्रिक दृष्टि से हमारी अभी अनुवाद की यांत्रिक प्रक्रिया बहुत सशक्त नहीं है कि हम दावे के साथ इस कह सकें । हमारा आशु अनुवाद यंत्रानुवाद के साथ अनुवाद प्रौद्योगिकी अभी बहुत विकसित नहीं हो पायी है। इसके लिये भारत की यंत्रानुवाद एवं सी-डेक तथा अनुवाद प्रौद्योगिकी की दिशा में महत्वपूर्ण अनुसंधान की जरूरत है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र में प्रचलित सभी भाषाओं के साथ हिन्दी में यंत्रानुवाद के कार्यक्रमों को भारत में उत्तरोत्तर विकास की आवश्यकता है। इन सबके अलावा भारतीय सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं भारतवासियों और अप्रवासी भारतीयों आदि का मानसिक/भाषिक/भावनात्मक सहयोग की दरकार भी चाहिये तभी हम हिन्दी की पताका संयुक्त राष्ट्र संघ में फहरा सकते है।
डॉ. वीरेन्द्र सिह यादव
अपनी बात कविता छंद ललित निबंध कहानी लघुकथा व्यंग्य संस्मरण कथोपकथन भाषांतर संस्कार

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