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01.16.2009
नेह एवं आत्मीयता की भाषा : राष्ट्रभाषा हिन्दी
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
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अपनी उत्पत्ति के साथ मानव ने सभ्यता और संस्कृति के विकास-सोपान के साथ भाषा के विकास की परम्परा भी अपनाए रखी। भाषा-विकास-परम्परा में सरलीकरण की प्रक्रिया इसी बात को इंगित करती है कि मानव-समुदाय भाषागत व्याकरणिक बन्धनों में जकड़ा नहीं रह सकता क्योंकि भाषा मनुष्य के हृदय की वस्तु नहीं अपितु आह्लाद, अनुभवों व भावों को व्यक्त करने वाली होती है। यही नहीं भाषा के द्वारा संस्कृति, संस्कार व राष्ट्र का निर्माण भी होता है। भाषा के द्वारा जहाँ एक ओर राजनीतिक संकल्पना की पूर्ति सम्पन्न होती है, वहीं दूसरी ओर समाज, व्यक्ति और विचार को आमूल-चूल परिवर्तित कर देने की प्रचण्ड शक्ति भी होती है। देखा जाये तो जहाँ एक ओर भाषा क्रांति का बीज साबित होती है वहीं दूसरी ओर शांति का मंत्र भी सिद्ध होती है। भाषा के द्वारा खण्डित एवं टूटे हुये दिलों को जहाँ एक ओर जोड़ा जा सकता है वहीं दूसरी ओर इसके रसायन से दिलों को तोड़ा भी जा सकता है। यही नहीं भाषा संवेदना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम् है।
अभिव्यक्ति या सम्पर्क के लिये एक मात्र सशक्त माध्यम भाषा ही है। भाषा का यह माध्यम तब और अधिक लोकप्रिय हो जाता है जब अधिक से अधिक लोग सर्वसम्मत एवं प्रचलन के रूप में उसे प्रयोग में लाते हों। भाषा का यह रूप ’लिंक लैंग्वेज‘ अर्थात सम्पर्क भाषा के रूप में जाना जाता है। कोई भी राष्ट्र राजनीतिक, व्यावहारिक दृष्टि से बिना सम्पर्क भाषा के विकास के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता है। संस्कृति, संस्कार तथा व्यावहारिक दृष्टि से भी सम्यक भाषा ही जनता के भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है। कोई भी राष्ट्र तभी परम्परागत सांस्कृतिक महिमा से मंडित हो सकता है जब वहाँ की एक सम्पर्क भाषा हो। हिन्दी हमारे देश की सम्पर्क भाषा, राष्ट्रभाषा बनने में पूर्णतः सक्षम है क्योंकि ’’हिन्दी उदारता की भाषा है; हिन्दी चरित्र निर्माण व संस्कारों की भाषा है; हिन्दी नेह व आत्मीयता की भाषा है, उसने अपने प्रांगण में अपनत्व भाव से आई भाव व शब्द की सम्पदा का निरन्तर आतिथ्य किया है; आत्मीयता का वरण किया है। ...... स्नेह का उत्कर्ष इतना है कि एक बार हिन्दी के आँचल में आश्रय पा चुका शब्द वापस नहीं हो सका और हिन्दी का ही होकर रह गया। अतिथियों (शब्दों) को आत्मसात् करने की तथा परम उदारता की बात निःस्वार्थ भाव से विश्व की कोई भी भाषा हिन्दी से सीखे। आज हज़ारों ऐसे देशी-विदेशी शब्द हिन्दी के शब्द-भंडार की शोभा बढ़ा रहे हैं। बहुउद्देशीय शब्दों को पचाने व अपने में समाने की सामर्थ्य हर भाषा में सम्भव नहीं, यह केवल हिन्दी भाषा की व्यापकता व विशाल हृदयता का ही परिचायक है। भाषा का महत्व किसी भी रूप में देश की सीमा की रक्षा कर रहे सैनिकों से कमतर नहीं है। ज्ञान, चेतना व चिंतन की मूल धुरी है भाषा।” स्पष्ट है कि विश्व भाषा के रूप में हिन्दी का विकास उसके गुणों के कारण ही हो रहा है। साहित्यिक, धार्मिक तथा सामाजिक चेतना के लिये हिन्दी की पहचान भारत के बाहर अन्य देशों में बहुत अधिक हुई है। यह सिद्ध हो चुका है कि हिन्दी-लिपि एक विशुद्ध वैज्ञानिक व अनुशासित लिपि है। हिन्दी भाषा सरल, बोधगम्य व शीघ्र ही समझ में आने वाली तथा अल्प समय में सीखी जाने वाली भाषा है। अपनी व्याकरणिक विशेषताओं के कारण उच्चारण एवं पढ़ने में हिन्दी भाषा जैसी विश्व की कोई भाषा नहीं है। नूतन आँकड़े यह सिद्ध करते हैं कि विश्व में इस समय हिन्दी बोलने वाले प्रथम स्थान पर आ गये हैं, यह बात आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि विदेशों में हिन्दी भाषा-साहित्य दिनों-दिन प्रगति पथ पर नये सोपान स्थापित कर रही है। वहीं हमारे अपने देश भारत में जो स्वाधीन, सार्वभौम, प्रभुसत्तात्मक राष्ट्र का प्रतीक है, जहाँ हमारा एक राष्ट्रध्वज, एक राष्ट्रगान होने के बावजूद हमारी एक राष्ट्रभाषा क्यों नहीं हो पायी है, वर्तमान समय में यह शोध का विषय है।
निश्चित रूप से भाषा को लेकर हमारे समक्ष यक्ष प्रश्नों की स्थिति बनी हुई है। विरोधाभासों की वर्तमान दुनिया में वैज्ञानिक विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व आपसी जुड़ाव, समन्वय तथा एक छोटी सी बस्ती में तब्दील होता जा रहा है। किसी एक देश की घटना का प्रभाव दूसरे देश पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि विज्ञान, तकनीक, सम्पदा और समृद्धि की ऊँचाइयाँ छूने की दौड़ तेज़ होती जा रही है जिससे वैचारिक तथा भाषाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे विस्तृत हो रहे हैं। भाषा की इस अभिव्यक्ति ने जनता और सत्ता; सम्पत्ति और चालबाजी; व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर, विचार-शून्यता की स्थिति से आगे लाकर विचार-प्रेषण की स्थिति में खड़ा कर दिया है। क्योंकि वर्तमान समय में मनुष्य केवल अपने स्तर एवं हित के अलावा कुछ सोच ही नहीं पा रहा है। वर्तमान में हिन्दी की यह स्थिति हो गई है कि हमारे माननीय सत्ता के मनमाने-मनचाहे उपयोग को ललकारने की बात तो दूर रही, वास्तव में अब हिन्दी भाषा सत्तासीन लोगों का हथियार या उनके हाथ का खिलौना बनती जा रही है। हिन्दी आज राज का दर्जा पाने के लिये सत्ता के गलियारों में भटक रही है इस आस में कि उसे भी नियामतो का एक अंश मिल जायेगा, परन्तु यह सब कैसे और कब तक चलेगा अभी भविष्य के गर्भ में है।
निश्चित रूप से हमारे समक्ष यह एक विकट परिस्थिति है पर ऐसा नहीं कि सब कुछ अँधकारमय एवं अनिश्चित है। हिन्दी की इस दुस्सह स्थिति में भी आशा के दीपक जगमगा रहे हैं। अनेक विद्वान लेखक, कवि, आलोचक, सक्रिय समाजकर्मी और मानवीय संवेदना तथा प्रतिबद्धताओं से ओतप्रोत सृजनशील व्यक्ति यथास्थिति का बेबाक चित्रण ही नहीं कर रहे हैं अपितु ये लोग हिन्दी के एक वैकल्पिक विश्व की अवधारणा, परिकल्पना और सम्भावना के चितेरे भी हैं। इन लोगों के द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु इस दिशा में निजी और संगठित स्तर पर अनेक रूपों में प्रबल प्रयास चल रहे हैं। हिन्दी भाषा को लेकर खड़े विविध यक्ष प्रश्नों पर व्यापक विमर्श यानी विचारणा-अनुसंधान साथ ही सक्रिय ज़मीनी कार्यों की ज़रूरत है। हमें पूरा विश्वास है कि हमारे देश की गंगा-जमुनी संस्कृति की प्रज्ञा शक्ति अपनी हिन्दी सर्जना से न केवल जनमानस को आह्लादित करेगी वरन उसे आलोड़ित कर हिन्दी को भूमण्डलीकरण की प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदार बना कर उसके इक़बाल को बुलंद करेगी।
अभिमन्यु अनत के शब्दों में कहें तो -
मेरे दोस्त,
उस भाषा में मेरे लिये,
शुभ की कामना मत कर,
जिसकी चुभती धुन मुझे,
उन गुलामी के दिनों की याद दे जाती है,
चाबुक की बौछारों का आदेश,
निकलता था जिस भाषा में,
उस भाषा को मेरी भाषा मत कह,
मेरे दोस्त।
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Saturday, January 31, 2009
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