Sunday, July 12, 2009

मानवाधिकार की परिकल्‍पना एवम्‌ अर्न्‍तद्वन्‍द्व


July 8, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : मानवाधिकार की परिकल्‍पना एवम्‌ अर्न्‍तद्वन्‍द्व





मनुष्‍य के व्‍यक्‍तित्‍व के विकास के लिये सामाजिक वातावरण का स्‍वस्‍थ्‍य दृष्‍टिकोण आवश्‍यक होता है क्‍योंकि स्‍वस्‍थ्‍य (सकारात्‍मक) परिस्‍थितियों के द्वारा ही कोई व्‍यक्‍ति अपना विकास कर सकता है। समाज में मनुष्‍य के व्‍यक्‍तित्‍व के विकास के लिये कतिपय अधिकारों की आवश्‍यकता होती है अर्थात्‌ इनके अभाव में उसके व्‍यक्‍तित्‍व का विकास समाज में संभव नहीं है। इन्‍हीं को मानव अधिकार कहा जाता है। मानवाधिकार शब्‍द अपने आपमें स्‍वतंत्र अस्‍तित्‍व रखता है क्‍योंकि मानव अपने अस्‍तित्‍व में आने तक की यात्रा में उसे अधिकार विरासत में प्राप्‍त होते चले गये। नैतिक एवं कानूनी रूप में जब हम मानव अधिकार की बात करते हैं तो जो मानव जाति के विकास के लिये मूलभूत मानवीय गरिमा को सुनिश्‍चित करता हो वह मानवाधिकार कहलाता है। मानव अधिकार मानव के विशेष अस्‍तित्‍व के कारण उनसे सम्‍बन्‍धित है इसलिये ये जन्‍म से ही प्राप्‍त हैं और इसकी प्राप्‍ति में जाति, लिंग, धर्म, भाषा, रंग तथा राष्‍ट्रीयता बाधक नहीं होती। मानव अधिकार को ‘मूलाधिकार' आधारभूत अधिकार अन्‍तर्निहित अधिकार तथा नैसर्गिक अधिकार भी कहा जाता है। ‘‘मानव अधिकार की कोई सर्वमान्‍य विश्‍वव्‍यापी परिभाषा नहीं है। इसलिये राष्‍ट्र इसकी परिभाषा अपने सुविधानुसार देते हैं। विश्‍व के विकसित देश मानवाधिकार की परिभाषा को केवल मनुष्‍य के राजनीतिक तथा नागरिक अधिकारों को भी शामिल रखते हैं।'' मानवाधिकार को कानून के माध्‍यम से स्‍थापित किया जा सकता है। इसका विस्‍तृत फलक होता है, जिसमें नागरिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्‍कृतिक अधिकार भी आते हैं, ‘‘चीन तथा इस्‍लामी राज्‍य कहते हैं कि मानवाधिकार की परिभाषा, सांस्‍कृतिक मूल्‍य के अन्‍तर्गत दी जानी चाहिये अर्थात्‌ मानवाधिकार में मनुष्‍यों के सांस्‍कृतिक अधिकार को भी शामिल किया जाना चाहिये। चूँकि मानव के अधिकार नैसर्गिक हैं, लेकिन सामाजिक जागरूकता और कर्तव्‍यों की जानकारी न होने के कारण मानव के अधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसी स्‍थिति में मानवाधिकार राज्‍य से विधिमान्‍य अपेक्षाएं रखता है साथ ही अपेक्षा करता है कि राज्‍य मानवाधिकार का निर्माता होने के साथ-साथ संरक्षक भी रहे।

मानव अधिकारों के पद का प्रयोग सर्वप्रथम अमेरिका के राष्‍ट्रपति रूजवेल्‍ट ने जनवरी 1941 में कांग्रेस को सम्‍बोधित अपने प्रसिद्ध संदेश में किया था, जिसमें उन्‍होंने चार मर्मभूत स्‍वतंत्रताओं वाक्‌ स्‍वातंत्र्य गरीबी से मुक्‍ति और भय से स्‍वातंत्र्य पर आधारित विश्‍व की घोषणा की थी। अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जब मानवाधिकार की बात होती है, तब इसे मानवाधिकार बिल के रूप में कोडीकृत तथा परिभाषित किया गया। इसमें विभिन्‍न अन्‍तर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलनों एवं घोषणाओं का योगदान है । मानवाधिकार के विकास में वैधानिक प्रावधान, प्रशासनिक आदेश तथा स्‍थानीय स्‍तर पर न्‍यायिक घोषणाओं की महती भूमिका रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य में मानवाधिकार की यदि हम बात करें तो मानव-अधिकार की विभिन्‍न समस्‍याएं नस्‍लीय भेदभाव, भाषायी अधिकार, धार्मिक अधिकार, स्‍वतंत्रता, लैंगिक भेदभाव (लिंगभेद), मृत्‍युदंड, पुलिस अत्‍याचार (नृशंसता) मौलिक अधिकार के उल्‍लंघन से जुड़ी हुई हैं। मानवाधिकार से जुड़ी ये समस्‍याएं अब अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर नीति-निर्माताओं, शिक्षकों, समाजसेवियों एवं छात्रों का ध्‍यान आकर्षित करने लगी हैं।

स्‍वतंत्र भारत का संविधान हर नागरिक के मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा की गारण्‍टी देता है। भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 21 के अन्‍तर्गत प्रत्‍येक नागरिक को अपनी मानवीय गरिमा से जीने का अधिकार सुनिश्‍चित करता है। इसके तहत प्रत्‍येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन व्‍यतीत करने के साथ कुछ न्‍यूनतम आवश्‍यकतायें अनिवार्य हैं, जिसमें मजदूरों (स्‍त्री एवं पुरूष) के स्‍वास्‍थ्‍य एवं शक्‍ति तथा बच्‍चों के शोषण के विरूद्ध संरक्षण के साथ बच्‍चों को स्‍वस्‍थ्‍य रूप से विकसित होने के साथ-साथ, स्‍वतंत्रता एवं गरिमा का माहौल बनाए रखना, समान शिक्षा का अवसर प्रदान करना तथा मातृत्‍व सुविधा प्रदान करने के लिए न्‍यायपूर्ण एवं मानवोचित परिवेश बनाना चाहिए। लेकिन हकीकत कुछ भी हो परन्‍तु स्‍वतंत्र भारत के संविधान लागू होने के आधी सदी से अधिक बीत जाने के बाद लोगों में मानवाधिकारों के प्रति सजगता तो दिखती है परन्‍तु अपने कार्यक्षेत्र में अपने विरूद्ध किए जा रहे उत्‍पीड़न को चुपचाप सहते रहते हैं। ऐसी स्‍थिति में मानवाधिकार के लिए उपयुक्‍त वातावरण पैदा करना, विकास का केन्‍द्रीय एवं अपरिवर्तनीय लक्ष्‍य हो गया है।

रूजवेल्‍ट ने कहा था ‘‘स्‍वातन्‍त्र्य से हर जगह मानव अधिकारों की सर्वोच्‍चता अभिप्रेत है। हमारा समर्थन उन्‍हीं को है, जो इन अधिकारों को पाने के लिए या बनाये रखने के लिये संघर्ष करते हैं - मानव अधिकारों पद का प्रयोग अटलांटिक चार्टर में किया गया था। उसी के अनुरूप मानव अधिकारों पद का लिखित प्रयोग संयुक्‍त राष्‍ट्र चार्टर में पाया जाता है। जिसको द्वितीय विश्‍व युद्ध के पश्‍चात सेन फ्रांसिसको में 25 जून 1945 को अंगीकृत किया गया है।'' मानवाधिकार की विश्‍वव्‍यापी घोषणा संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के बैनर तले हुई। 10 दिसम्‍बर 1948 के संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने मानवाधिकार आंदोलन को अंतर्राष्‍ट्रीय शांति के लिए अनिवार्य तत्‍व के रूप में प्रारंभ करने के साथ मानवाधिकार चार्टर भी प्रकाशित किया। संघ अपने सदस्‍यों से अपेक्षा करता है कि इसके चार्टर का ईमानदारी से पालन किया जाए। संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा से पूर्व भी यद्यपि इस दिशा में स्‍थानीय स्‍तरों पर छोटे-मोटे प्रयास किये जाते रहे हैं जिनके योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता है पूर्व में किये गये इन छुटपुट प्रयासों के आंकलन से विदित होता है कि ‘‘सबसे पहले मानवाधिकारों के लिये संघर्ष की शुरूआत 15 जून 1215 से हुई जब ब्रिटेन के तत्‍कालीन सम्राट जॉन को उसके मामलों द्वारा कतिपय मानवीय अधिकारों को मान्‍यता देने वाले घोषणा-पत्र पर हस्‍ताक्षर करने के लिये विवश किया गया था। इतिहास में इसे ‘मैग्‍नाकार्टा' कहा जाता है, मैग्‍नाकार्टा के द्वारा जो अधिकार सामन्‍तों को प्राप्‍त हुये वे कालान्‍तर में जनसाधारण को हस्‍तान्‍तरित हो गए। इसी प्रकार वर्ष 1628 के अधिकार-पत्र पर ब्रिटेन के सम्राट के हस्‍ताक्षर करवाने में ब्रिटेन की संसद सफल हुई जो कालान्‍तर में मानवीय अधिकारों के क्षेत्र में मील के पत्‍थर सिद्ध हुए।'' मानवाधिकार की अंतर्राष्‍ट्रीय घोषणा के तहत निम्‍न अधिकार समाहित हैं -

* वाक स्‍वतंत्रता का अधिकार

* न्‍यायिक उपचार का अधिकार

* सरकार (किसी देश में) की भागीदारी का अधिकार

* काम का अधिकार

* स्‍तरीय जीवन जीने का अधिकार

* आराम एवं सुविधापूर्ण जीवन जीने का अधिकार

* शिक्षा का अधिकार

* समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार

* सामाजिक सुरक्षा का अधिकार

* वैज्ञानिक प्रगति में भाग एवं उससे लाभ लेने का अधिकार

* जीवन, सुरक्षा एवं स्‍वतंत्रता का अधिकार

* मनमानी ढंग से गिरफ्‍तारी अथवा निर्वासन के विरूद्ध अधिकार

* विचार, विवेक एवं धार्मिक स्‍वतंत्रता

* निष्‍पक्ष एवं स्‍वतंत्र न्‍यायिक सुनवाई का अधिकार

* शांतिपूर्ण सभा संगोष्‍ठी करने तथा संघ बनाने का अधिकार

संयुक्‍त राष्‍ट्र के इस घोषणा पत्र के मूल में मात्र प्रजातांत्रिक (लोकतांत्रिक) संविधानों में निहित नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार ही नहीं अपितु कई आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक अधिकारों की भी चर्चा है। प्रत्‍येक नागरिक एवं राष्‍ट्र के लिये अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मानव अधिकार घोषणा पत्र पर हस्‍ताक्षर करने वाले प्रत्‍येक देश का यह कर्तव्‍य है कि वे अपने यहाँ इन अधिकारों का संवर्द्धन तथा संरक्षण सुनिश्‍चित करें साथ ही प्रत्‍येक नागरिक के लिये इन अधिकारों को प्रभावी बनाने तथा उनका निरीक्षण करने के लिये जागरूक एवं प्रेरित किया जाना चाहिए।

सन्‌ 1948 से सन्‌ 1954 के बीच संयुक्‍त राष्‍ट्र मानवाधिकार आयोग ने वैधानिक रूप से दो मसौदे तैयार किए। सन्‌ 1976 में आर्थिक, सामाजिक, सांस्‍कृतिक अधिकारों से सम्‍बन्‍धित अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मसौदा तैयार किया गया। इस अन्‍तर्राष्‍ट्रीय घोषणा के साथ-साथ इन प्रावधानों को जोड़कर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मानवाधिकार बिल बनाया गया। इसमें नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार जहाँ परम्‍परागत अधिकार की श्रेणी में आते हैं, वहीं दूसरी ओर आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक अधिकार, आधुनिक अधिकार हैं।

मानवाधिकार किसी व्‍यक्‍ति या समूह विशेष द्वारा की जाने वाली मांग से ज्‍यादा राज्‍य के कर्तव्‍य क्षेत्र का हिस्‍सा होना चाहिए। यदि किसी भी व्‍यक्‍ति या समूह द्वारा यह तथ्‍य उभारा या प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि उसका मानवाधिकार हनन हो रहा है, उसके जीवन के प्रति विपरीत परिस्‍थितियां हैं तो यह राज्‍य की उपेक्षा को प्रदर्शित करता है। राज्‍य सत्‍ता से चलता है और सत्‍ता के मुखिया की भूमिका राजा की तरह ही है।'' भारत में मानवाधिकार की शुरूआत के बारे में आम सहमत नहीं है। एक वर्ग का मानना है कि इसकी शुरूआत स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन के समय अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध चलाए गए आन्‍दोलन या अभियानों के तहत इसकी शुरूआत हुई, वहीं दूसरों का मानना है कि भारत का गौरवशाली इतिहास इस बात का साथी रहा है, जिनमें सहनशीलता, उदारता और दया भारतीय परम्‍परा के अभिन्‍न अंग रहे हैं। ऐसा सिर्फ भारत में होता आया है अन्‍य देश तो केवल इसे आचरण में ढालने तक ही सीमित रहे परन्‍तु इसमें भी उन्‍हें सफलता नहीं मिली। प्राचीनकाल से हमारा धर्म एवं संस्‍कृति दूसरे देशों की संस्‍कृतियों एवं धर्मों को आदर एवं सम्‍मान की दृष्‍टि से देखता रहा है। हमारी वैदिक सभ्‍यता में सहनशीलता और दूसरों के प्रति आस्‍था का सम्‍मान करते हुए इसमें मानव अधिकार के संरक्षण की परम्‍परा रही है। तथापि संहिताबद्ध कानून तथा न्‍याय में मानव अधिकार को अनिवार्य बाध्‍यता के रूप में स्‍थान नहीं दिया गया था। यद्यपि एक विकसित न्‍याय व्‍यवस्‍था का अस्‍तित्‍व था, किन्‍तु कोई मानव अधिकार घोषणा पत्र नहीं था। हिन्‍दू धर्म, बौद्ध धर्म तथा अशोक के शिलालेखों पर उत्‍कीर्ण दार्शनिक आध्‍यात्‍मिक और धार्मिक विचारों में मानव-अधिकार के पुट व्‍याप्‍त थे। मौलिक अधिकारों की मान्‍यता स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन के दौरान की गई। यह संघर्ष मूलरूप से नागरिक एवं मानवाधिकारों को कुचलने के विरूद्ध था। स्‍वतंत्रता संघर्ष के दौरान चले स्‍वराज (भारतीय शासन) आन्‍दोलन लाखों भारतीयों में आत्‍म चेतना जगाने तथा उन्‍हें नैतिक एवं वैधानिक रूप से सजग बनाने का प्रयत्‍न था।

आजादी के पश्‍चात भारतीय संविधान में नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्‍चित करने के लिए ठोस प्रावधान बनाए गए तथा उन्‍हें न्‍याय, स्‍वतंत्रता, समानता और बन्‍धुत्‍व का दर्जा प्रदान किया गया।

भारतीय एवं वैश्‍विक परिप्रेक्ष्‍य में देखने पर मानव अधिकार की विभिन्‍न समस्‍याएं दृष्‍टिगोचर होती हैं, जिनमें प्रमुख नस्‍लीय भेदभाव, धार्मिक अधिकार, भाषाई अधिकार, लिंगभेद, पुलिस अत्‍याचार आदि जो मौलिक अधिकारों के उल्‍लंघन के कारण उत्‍पन्‍न हुई हैं। वर्तमान के युग में मानव अधिकार उल्‍लंघन की कई घटनायें घटित हो रही हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में दलितों पर अत्‍याचार, बड़ी परियोजनाओं के कारण लोगों के विस्‍थापन, प्राकृतिक आपदा (चक्रवात, सूखा इत्‍यादि) से प्रभावित लोगों की मूलभूत सुविधा उपलब्‍ध कराने सम्‍बन्‍धी कमी की समस्‍या, बच्‍चों के साथ अमानवीय बर्ताव, बच्‍चों की वेश्‍यावृत्‍ति के लिए बाध्‍य करना (विशेषकर दिल्‍ली, कर्नाटक और उड़ीसा में) कई राज्‍यों में आतंकवादी गतिविधियों, जेल में बलात्‍कार तथा उत्‍पीड़न, महिला हिंसा, बंधुआ मजदूरी, अल्‍पसंख्‍यकों के प्रति किया जाने वाला अत्‍याचार एवं धार्मिक सहिष्‍णुता के प्रश्‍न जुड़े हुए हैं।

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के पश्‍चात मानव अधिकारों के प्रति विश्‍व समुदाय की चिन्‍ता लाजिमी थी और भारत का स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन इस बात का जीवंत उदाहरण है, जिसमें नागरिक अधिकार एवं मानव अधिकारों के लिए ही लड़ाई लड़ी गयी। पं․ जवाहर लाल नेहरू ने स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन के पहले ही इन मानव सम्‍बन्‍धी अधिकारों का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था। पं․ जवाहर लाल नेहरू की निस्‍वार्थ भावना और निष्‍ठा से इस दिशा में प्रगति हुई और उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए राष्‍ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्‍थापना सन्‌ 1993 में की गई। यह राष्‍ट्रीय मानव अधिकार आयोग मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए हमारी चिन्‍ता का प्रतिफल है। इसका गठन मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1933 के अधीन किया गया, जो 28 सितम्‍बर 1993 से अस्‍तित्‍व में आ गया। जम्‍मू एवं कश्‍मीर राज्‍य इसका अपवाद है। यह अधिनियम इस राज्‍य के उन्‍हीं विषयों पर लागू होता है, जिनकी चर्चा सूची 1 से 3 तक तथा अनुसूची टप्‍प्‍प्‍ में है। इस अधिनियम में आयोग को वैधानिक दर्जा मिलने के साथ-साथ यह भारत में मानव अधिकार के संरक्षण तथा संवर्द्धन का आधार तैयार करता है। मानव अधिकार अधिनियम 1993 की धारा (30) में मानव अधिकार हनन से जुड़े मामलों की शीघ्र जांच तथा न्‍याय दिलाने के लिए मानव अधिकार न्‍यायालयों के गठन का प्रावधान है। इसके साथ ही आयोग निम्‍न कार्य निष्‍पादित करेगा -

* घटना से पीड़ित व्‍यक्‍ति के द्वारा दायर याचिका पर जांच करेगा साथ ही उसे यह भी जांच करने का अधिकार है कि लोक सेवक द्वारा कहाँ तक ढिलाई की गई है।

* मानव अधिकार को हनन करने वाले आतंकवाद सहित अन्‍य कारकों की समीक्षा करेगा। इसको समाप्‍त करने के उपचार भी करेगा।

* समाज के विभिन्‍न वर्गों में मानव अधिकार के प्रति सजगता फैलाएगा। वह प्रकाशनों, मीडिया तथा सेमिनारों के माध्‍यम से मानव अधिकार संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाएगा।

* मानव अधिकार के क्षेत्र में कार्यरत गैर सरकारी संगठनों तथा अन्‍य संस्‍थाओं को प्रोत्‍साहित तथा मानव अधिकार सम्‍बन्‍धी अन्‍तर्राष्‍ट्रीय घोषणाओं और रूचियों की समीक्षा करेगा तथा उनके प्रभावी क्रियान्‍वयन के लिए उपाय सुझाएगा। मानवाधिकार पर शीघ्र कार्य को प्रोत्‍साहित करेगा।

* किसी न्‍यायालय में मानव अधिकार उल्‍लंघन का मामला दर्ज हो तो उस न्‍यायालय के अनुमोदन से मामले में हस्‍तक्षेप करेगा। साथ ही राज्‍य सरकार को सूचित कर राज्‍य सरकार द्वारा संचालित किसी उपचार स्‍थल शिविरों एवं अन्‍य संस्‍थानों में जहाँ लोगों को रखा गया है, उनकी स्‍थिति जाँचने के लिए पहुँच सकता है।

थ्‍ मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान अथवा किसी कानून की समीक्षा कर सकता है और उसे प्रभावी बनाने के लिए सुझाव दे सकता है।

ऐसी परिस्‍थितियों में आयोग कार्य करते हुए अपना दृष्‍टिकोण रखता है और इसके कार्यों का उल्‍लंघन करने पर उसे निम्‍न अधिकार प्राप्‍त हैं -

1908 की सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत आयोग को सिविल न्‍यायालय की शक्‍ति प्राप्‍त है, जिसके तहत आयोग गवाह के खिलाफ सम्‍मन जारी कर सकता है। साक्ष्‍य खोजने और संरक्षण का अधिकार के साथ शपथनामा (प्रमाणपत्र प्राप्‍त करने) सार्वजनिक रिकार्ड प्राप्‍त करने, किसी न्‍यायालय से कागजात प्राप्‍त करने इत्‍यादि के अधिकार इसके पास हैं। आयोग अथवा आयोग द्वारा प्राधिकृत व्‍यक्‍ति किसी भवन में प्रवेश कर सकता है, उसे साक्ष्‍य को जब्‍त करने और उसकी प्रति प्राप्‍त करने का अधिकार है। साक्ष्‍य एवं गवाहों की तहकीकात के पश्‍चात संतुष्‍ट होने पर वह मामले को दण्‍डाधिकारी को सुपुर्द करने का अधिकार रखता है। आयोग के समक्ष कोई भी कार्यवाही, न्‍यायिक कार्यवाही मानी जायेगी।

भारत के राज्‍यों में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 21 में राज्‍य में मानवाधिकार आयोग गठन का प्रावधान है और राज्‍यों में इसके गठन की प्रक्रिया तेजी से बढ़ रही है। इन आयोगों के वित्‍तीय भार का वहन राज्‍य सरकारों द्वारा किया जाता है। सम्‍बन्‍धित राज्‍य का राज्‍यपाल, अध्‍यक्ष तथा सदस्‍यों की नियुक्‍ति करता है। आयोग का मुख्‍यालय राज्‍य में कहीं भी हो सकता है।

सन्‌ 1993 की धारा 21 (5) के तहत राज्‍य मानव अधिकार के हनन से सम्‍बन्‍धित उन सभी मामलों की जांच कर सकता है, जिनका उल्‍लेख भारतीय संविधान की सूची में किया गया, वहीं धारा 36 (9) के अनुसार आयोग ऐसे किसी भी विषय की जांच नहीं करेगा, जो किसी राज्‍य आयोग अथवा अन्‍य आयोग के समक्ष विचाराधीन है।

राष्‍ट्रीय एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर यह बात स्‍वीकार की गई है कि मानवाधिकार के बिना धारणीय विकास सम्‍भव नहीं है, किन्‍तु यहाँ लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि विकास के बिना मानव अधिकार में संवर्द्धन भी नहीं हो सकता है, इसके लिए विवेक सम्‍मत विधान और सशक्‍त समाज की आवश्‍यकता है, किन्‍तु देखा जाए तो ये अपने आपमें पूर्ण नहीं है। मानव अधिकार को अवधारणा एवं निर्माण की दृष्‍टि से देखा जाये तो इसे सरकार एवं संगठित लोगों ने बनाया है वे स्‍वतः नहीं मिलते क्‍योंकि सार्वजनिक सेवा का लाभ समाज के गरीब वर्गों को तभी मिलता है, जब सरकार उसे प्रदान करने में सक्षम होती है और ऐसा तभी होता है, जब वहाँ का शासन भ्रष्‍टाचार से मुक्‍त होता है। बालश्रम को तभी समाप्‍त किया जा सकता है, जब समाज की आर्थिक परिस्‍थिति ऐसी हो, जिसमें बच्‍चे माता-पिता की आय पर आश्रित हों तथा सक्षम न्‍याय प्रणाली द्वारा कानूनी प्रावधानों का पालन होता हो। वियना में आयोजित मानवअधिकार सम्‍मेलन में प्रत्‍येक मानव को समान महत्‍व दिया गया। संयुक्‍त राष्‍ट्र चार्टर में सर्वप्रथम बहुउद्देशीय मानव अधिकार संधि की चर्चा की गई। संयुक्‍त राष्‍ट्र, चार्टर में मानव अधिकार की घोषणा प्रस्‍तावना-अनुच्‍छेद 1, 13 अनुच्‍छेद 55, अनुच्‍छेद 68, अनुच्‍छेद 76 में है। इसके प्रस्‍तावना में कहा गया ‘‘हम संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के लोग भावी पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए कृत संकल्‍प हैं। हमने अपने जीवन काल में मानव समुदाय को दो बार इन विभीषिकाओं से उत्पीड़ित होते देखा है। हम मौलिक अधिकार गरिमा और मानव मूल्‍य में विश्‍वास व्‍यक्‍त करते हुए स्‍त्री-पुरूष के समान अधिकारों तथा छोटे-बड़े राष्‍ट्रों को एक दृष्‍टि से देखने का प्रयास करेंगे। इस घोषणा के अनुच्‍छेद 30 में नागरिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक अधिकार प्रदान करने की बात कही गई है। इस प्रकार 1948 का घोषणा पत्र स्‍वतंत्रता के क्षेत्र में सभी राष्‍ट्रों को समान मानदंड उपलब्‍ध कराता है। इस घोषणा के अनुच्‍छेद (1) में कहा गया है कि सभी मनुष्‍य जन्‍म से समान हैं तथा वे अधिकार एवं गरिमा में बराबर हैं।'' मानव को सभी के साथ तर्कयुक्‍त एवं विवेकपूर्ण व्‍यवहार करना चाहिए। उन्‍हें दूसरों के साथ विनम्र एवं मातृत्‍वपूर्ण आचरण करना चाहिए। मानव अधिकार सम्‍बन्‍धी वैधानिक रूप से बाध्‍य करने वाले दो अन्‍तर्राष्‍ट्रीय मसौदे तथा नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार से सम्‍बन्‍धित समझौते को 23 मार्च, 1976 को कार्यान्‍वित किया गया। इन दोनों घोषणाओं के आधार पर भारत ने अपना मानव अधिकार सम्‍बन्‍धी घोषणा पत्र तैयार किया।

वर्तमान परिप्रेक्ष्‍य की जब हम बात करते हैं तो आज मानव अधिकार की अवधारणा महत्‍वपूर्ण हो गयी है। मानव अधिकार आन्‍दोलन की उपादेयता तभी है, तब समाज के सभी नागरिकों को मानव अधिकार उपलब्‍ध हों। मानव अधिकार का मूल मकसद (अवधारणा) यह होना चाहिए कि समाज से सभी प्रकार के भेदभाव का अन्‍त हो। वर्तमान राजनैतिक तंत्र राष्‍ट्रीय लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। भारत के संदर्भ में जिन मूल्‍यों के आधार पर स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन चलाया गया, उसकी अत्‍यन्‍त आवश्‍यकता है। वे मूल्‍य विश्‍लेषण और विकास के लिए उचित ढ़ांचा प्रदान करते हैं। वर्तमान में पाश्‍चात्‍य विचारों के समागम ने मानव चेतना को झकझोर दिया है। भारत ने सभी उत्‍तम विचारों को विवेकपूर्ण दृष्‍टि से स्‍वीकार करते हुए एक राजनैतिक तंत्र विकसित किया है और संविधान निर्माता यह महसूस करते थे कि बुनियादी मानवाधिकार के बिना प्राप्‍त की गई स्‍वतंत्रता बेमानी है। इसलिये भारतीय संविधान में मानवाधिकारों को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

नागरिक स्‍वतंत्रता के लिए भारत के कर्णधारों ने प्रारम्‍भ से ही ध्‍यान देना शुरू कर दिया था और इसी के तहत भारत में मानव अधिकारों को शुरू से ही महत्‍व दिया जाता रहा है। किन्‍तु हाल के वर्षों में भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में मुम्‍बई दंगे, गुजरात के दंगे, तमिलनाडु एवं उड़ीसा में झींगा की खेती, गोधरा काण्‍ड, संसद पर हमला, उड़ीसा में पुलिस हिरासत में सुमन बेहरा को बंधक बनाकर रखने की घटना एवं सार्वजनिक रूप से महिलाओं की हत्‍या, हिंसा जैसी घटनाएं मानवाधिकार के हनन के साक्ष्‍य हैं। इससे मानवाधिकार के फलक में विस्‍तार हो रहा है। हमारे भारतीय समाज की लगभग आधी आबादी गरीबी में जीवन व्‍यतीत कर रही है। आधे निरक्षरता के अंधकार में डूबे हुए हैं। शोषण के कारण समाज का एक बड़ा समूह उत्पीड़ित है अर्थात्‌ मानव गरिमापूर्ण जीवन नहीं व्‍यतीत कर रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता अक्‍सर उत्‍पीड़न, बर्बरता, अमानवीय व्‍यवहार और क्रूरता का प्रश्‍न उठाते हैं किन्‍तु वे भूल जाते हैं कि घोर दरिद्रता के कारण लोग किस प्रकार दयनीय जीवन-यापन व्‍यतीत कर रहे हैं। लोगों को मानव अधिकार के प्रति सचेत तथा इससे सम्‍बन्‍धित समस्‍याओं के समाधान के लिए क्‍या कुछ उपाय होने चाहिए यह शोध का केन्‍द्र बिन्‍दु है।

देश में आबादी के साथ-साथ उत्‍तर प्रदेश न सिर्फ मानवाधिकारों के हनन के मामलों में सबसे आगे हैं, बल्‍कि पूरे देश में इन मामलों की दर्ज शिकायतों में से आधे से अधिक इस राज्‍य से हैं। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 15 अप्रैल 2008 को जारी रिपोर्ट के अनुसार, मानवाधिकार के हनन के मामले में उ․ प्र․ के बाद देश की राजधानी दिल्‍ली का नम्‍बर आता है। ‘‘मानवाधिकार हनन के राष्‍ट्रीय आयोग में दर्ज 60 फीसदी मामले उ․ प्र․ के हैं। राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग की हाल की (2005-2006) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 74444 मामलों में से अकेले 44560 मामले उ․ प्र․ के हैं यह शर्मनाक स्‍थिति है। दिल्‍ली के 5027, बिहार के 4545, हरियाणा के 3000, राजस्‍थान के 2500, उत्‍तराखण्‍ड के 1789 मामले दर्ज हैं। लक्ष्‍यद्वीप से एक भी शिकायत नहीं आयी है।''

रिपोर्ट में कहा गया है कि नागालैण्‍ड ऐसा राज्‍य है जहाँ इस सम्‍बन्‍ध में सबसे कम केवल दो मामले दर्ज किए गये। सिक्‍किम और दादरा नगर हवेली में मानव अधिकारों के हनन से सम्‍बन्‍धित पाँच-पाँच मामले दर्ज किये गये।

हाल के वर्षों में मानवाधिकार के हनन के सबसे अधिक मामले महिलाओं से सम्‍बन्‍धित हैं, क्‍योंकि वर्तमान में भारतीय महिलाएं समाज एवं राज्‍य की विभिन्‍न गतिविधियों में पर्याप्‍त सहभागिता कर रही हैं। परन्‍तु इससे उनके प्रति घरेलू हिंसा के अलावा कार्यस्‍थल पर सड़कों एवं सामाजिक यातायात के माध्‍यमों में एवं समाज के अन्‍य स्‍थलों पर होने वाली हिंसा में भी वृद्धि हुई है। इसमें शारीरिक, मानसिक एवं यौन सभी प्रकार की हिंसा सम्‍मिलित है।

सन्‌ 1997-98 की रिपोर्ट देखने पर स्‍पष्‍ट होता है कि देश भर के 26 राज्‍यों में मानवाधिकार उल्‍लंघन की कुल 35779 शिकायतें प्राप्‍त हुई, जिससे 17453 सिर्फ उत्‍तर प्रदेश के थे। राष्‍ट्रीय महिला आयोग के अनुसार उ․ प्र․ में महिला उत्‍पीड़न के कुल 18929 मामले दर्ज हुए (2001) जो देश में महिलाओं से जुड़े अपराधों का 13․4 प्रतिशत हैं। इसमें 31․8 प्रतिशत दहेज हत्‍याएं हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो के अनुसार उत्‍तर प्रदेश में 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के प्रति हिंसा के सन्‌ 2003 में पंजीकृत मामले हैं - प्रताड़ना (30․4 प्रतिशत), छेड़छाड़ (25 प्रतिशत), अपहरण (12 प्रतिशत), बलात्‍कार (12․8 प्रतिशत), भ्रूण हत्‍या (6․7 प्रतिशत), यौन उत्‍पीड़न (4․90 प्रतिशत), दहेज मृत्‍यु (4․6 प्रतिशत), दहेज निषेध (2․3 प्रतिशत) व अन्‍य (6 प्रतिशत)। वैसे तो यह अपराध पूरे राष्‍ट्रीय स्‍तर पर होते हैं, पर इनमें उत्‍तर प्रदेश सबसे आगे हैं। महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में आधे से कुछ अधिक अपराधों में आधे से कुछ अधिक अपराध (56․70 प्रतिशत)। केवल पाँच राज्‍यों में होते हैं।

मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव को न करने के सिद्धान्‍त की पुष्‍टि की थी और घोषित किया था कि सभी मानव स्‍वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान है तथा सभी व्‍यक्‍ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शामिल है, सभी अधिकारों एवं स्‍वतंत्रता के हकदार हैं। फिर भी महिलाओं के विरूद्ध अत्‍यधिक भेदभाव होता रहा है, थोड़ा पीछे चलें तो सर्वप्रथम 1946 में महिलाओं की प्रास्‍थिति पर आयोग की स्‍थापना की गई थी। महासभा ने 7 नवम्‍बर, 1967 को महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्‍ति पर अभिसमय अंगीकार किया गया। सन्‌ 1981 एवं 1999 में यौन-शोषण एवं अन्‍य दुख से पीडित महिलाओं को सक्षम बनाने की व्‍यवस्‍था की गई।

संयुक्‍त राष्‍ट्र द्वारा प्रायोजित अन्‍तर्राष्‍ट्रीय महिला दशक (1976-1985) के दौरान महिलाओं के तीन सम्‍मेलन हुए। चौथा सम्‍मेलन वर्ष 1995 में बीजिंग में हुआ, जिसके द्वारा महिलाओं के सम्‍बन्‍ध में बहुत अधिक जानकारी हुई है और जो राष्‍ट्रीय महिला आन्‍दोलनों एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय समुदाय के बीच अमूल्‍य घड़ी का आधार बना। मानवाधिकार संरक्षण कानूनों एवं राष्‍ट्रीय महिला आयोग के गठन से नारी की समाज में स्‍थिति कुछ सुदृढ़ हुई है। अब महिला उत्‍पीड़न की घटनाओं में अपेक्षाकृत कमी आयी है। लेकिन यह बुन्‍देलखण्‍ड क्षेत्र में क्‍या है ? शोध का प्रश्‍न है ?

स्‍टेट ऑफ राजस्‍थान, ए․ आई․ आर․ 1997 एम․ सी․ 3011 मामला कामकाजी महिलाओं के यौन उत्‍पीड़न से सम्‍बन्‍धित है। इस मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय द्वारा कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्‍पीड़न की घटनाओं की रोकथाम के लिए प्रमुख दिशा निर्देश जारी किए जिसमें यौन शोषण प्रमुख है। इसके अलावा भारतीय दंड संहिता 1860 में भी महिलाओं के विरूद्ध किए गए अपराधों के लिए कठोर दंड की व्‍यवस्‍थाएं की गई हैं। धारा 354 में स्‍त्री की लज्‍जा, धारा 66 में अपहरण, धारा 376 में बलात्‍कार, धारा 398-क में निर्दयतापूर्ण व्‍यवहार तथा धारा 509 व 410 में स्‍त्री का अपमान करने को दण्‍डनीय अपराध घोषित किया गया। दहेज की मांग की विभीषिका से नारी की रक्षा करने हेतु दहेज निषेध अधिनियम 1991 पारित किया गया है। सती निवारण अधिनियम 1957 में सती प्रथा के निवारण हेतु कठोर दंड की व्‍यवस्‍था की गई है। ओंकार सिंह बनाम स्‍टेट ऑफ राजस्‍थान 1955 के मामले में इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित किया गया है। भारतीय हिन्‍दू उत्‍तराधिकार अधिनियम सन्‌ 1956 की धारा 18 स्‍त्रियों की सम्‍पत्ति में मालिकाना हक प्रदान करता है। श्रम कानून महिलाओं के लिए संकटापन्‍न स्‍थिति तथा रात्रि में कार्य का निषेध करते हैं। मातृत्‍व लाभ अधिनियम कामकाजी महिलाओं को प्रसूति लाभ की सुविधाएं प्रदान करता है। दण्‍ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 में उपेक्षित महिलाओं के भरण-पोषण का प्रावधान किया गया है। देवेन्‍द्र सिंह बनाम जसपाल कौर ए․ आई․ आर․ - 1999 पंजाब एण्‍ड हरियाणा 229 बाद में उच्‍चतम न्‍यायालय ने अभी निर्धारित किया कि विवाह शून्‍य एवं उत्‍कृष्‍ट घोषित हो जाने पर भी पत्‍नी हिन्‍दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 25 के अन्‍तर्गत भरण-पोषण पाने की हकदार होती है। देश के संविधान में 12वें संशोधन द्वारा अनुच्‍छेद 21 क(ङ) के अन्‍तर्गत जारी सम्‍मान के विरूद्ध प्रथाओं को समाप्‍त करने का आदेश अंगीकृत किया गया है। इस प्रकार स्‍पष्‍ट है कि नारी विषयक मानवाधिकारों की विभिन्‍न एवं न्‍यायिक निर्णयों में पर्याप्‍त संरक्षण प्रदान किया गया है। वर्तमान समय में यह कहाँ तक परिलक्षित होता है ? शोध का प्रश्‍न है।

इतना सब कुछ होने के बाद आज महिलाओं के प्रति विश्‍वव्‍यापी हिंसा की घटनाएं बदस्‍तूर जारी हैं, जिससे कोई भी समुदाय, समाज एवं देश मुक्‍त नहीं है। महिलाओं के प्रति भेदभाव इसलिए विद्यमान हैं क्‍योंकि इसकी जड़ें सामाजिक प्रतिमानों एवं मूल्‍यों में जमीं हुई हैं और वे अन्‍तर्राष्‍ट्रीय करारों के परिणामस्‍वरूप परिवर्तित नहीं होते हैं, वैसे तो महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के कारणों को समाप्‍त किए बिना उसका पूर्ण निदान संभव नहीं पर यदि पाश्‍चात्‍य एवं विकसित देशों पर दृष्‍टिपात करें तो ऐसा लगता है कि इसका कारण मानवीय संरचना ही है।

भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में विशेषकर उ0 प्र0 में मानवाधिकारों के प्रति आम जनता में जागरूकता का अभाव सा परिलक्षित होता है। यह विशेष रूप से बुन्‍देलखण्‍ड के क्षेत्र में और भी महत्‍वपूर्ण हो जाता है। यहाँ शोषण, अन्‍याय, उत्‍पीड़न, अत्‍याचार लोगों के अधिकारों का हनन आदि सामान्‍य रूप से प्रचलित हैं। शहरी संस्‍कृति की विकृतियों के कारण आज भी भारत के किसी भी कोने में किसी भी महिला के साथ जो बिना अंगरक्षकों के चलती है, उनके साथ किसी भी समय कुछ भी घटित हो सकता है और इसके लिए जरूरी नहीं कि अपराधी पकड़ा ही जाए।

निष्‍कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मानव अधिकारों को प्रोत्‍साहित करने के लिए तथा भविष्‍य में मानव अधिकारों के उल्‍लंघन को रोकने के लिए यह नितान्‍त आवश्‍यक है कि अन्‍तर्राष्‍ट्रीय विधि प्रणाली को और भी अधिक प्रभावी बनाया जाए नहीं तो केवल आदेश और निर्देश जारी कर देने भर से कुछ बनने वाला नहीं, जब तक मानवाधिकार के मुख्‍य नियम एवं लोगों में जागरूकता सम्‍बन्‍धी निर्देशों के पालन की दिशा में हम सचेष्‍ट नहीं होंगे तब तक जुल्‍म का यह सिलसिला चलता रहेगा और यूँ ही सूली पर लटका रहेगा मानवाधिकार।

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युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके पांच सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍याओं को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।



सम्‍पर्क ः वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग, डी0 वी0(पी0 जी0) कालेज उरई, जालौन उ0 प्र0 285001 , भारत


इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 12:14 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!

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