Saturday, January 31, 2009

लघुकथा की प्रासंगिकता एवं उपादेयता

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12.14.2008

लघुकथा की प्रासंगिकता एवं उपादेयता
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
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आर्थिक उदारीकरण, ग्लोबलाइजेशन अर्थात् एक ध्रुवीय होती दुनिया के इस वर्तमान भौतिकवादी युग में किश्त-किश्त जीवन जीता आदमी व्यक्तिगत जिजीविषा की पूर्ति हेतु दिनोंदिन आदमी नहीं, मशीन बनता जा रहा है। वह समय को अपना उत्पादक बनाकर बहुत ही चालाकी से उसका व्यापार कर रहा है, वास्तविकता यह है कि ऐसे समय में जब दुनियां की मण्डी में समय की कलाबाजी हो रही है, मनुष्य अपना समय निःस्वार्थ नष्ट नहीं कर सकता। इसलिए पेशेवर साहित्यधर्मियों एवं पाठकों को छोडकर शेष लोग अपनी मानसिक थकान मिटाने हेतु कुछ ऐसा पढ़ना या समझना चाहते हैं, जिसमें समय कम लगे और उन्हें उसका प्रतिफल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त कर सकें। साथ ही उसके ग्रहण करने एवं समझने का दायरा दर्पण की तस्वीर की तरह पारदर्शी भी हो। आज लघुकथाओं की यही सार्थकता, प्रासंगिकता एवं उपादेयता भी है।

लघुकथाकार अनावश्यक कथा विस्तार, वर्णनात्मक फैलाव और विलगाव से बचता हुआ जीवन के छोटे घटना प्रसंग संवेदनाओं के माध्यम से व्यक्त करता है। विधा के रूप में जिस तरह साहित्य के गद्य रूप की कथा विधाएँ-उपन्यास एवं कहानी होती है, उसी तरह लघुकथा इन्हीं तत्वों के परिप्रेक्ष्य में लिखी जाती हैं। इन तीनों उपविधाओं में अन्तर मात्र कथानकों का होता है जिसके कारण इन तीनों में स्वतः ही आकारगत अन्तर आ जाना लाजमी है। इन्हीं प्रमुख बिन्दुओं पर इसका शिल्प केन्द्रित होता है, अब वह शिल्प चाहे पारम्परिक हो, प्रयत्न साध्य हो या स्वयंभू हो। जहाँ तक लघुकथा की पृथक पहचान का सवाल है, एक तो कथानक को लेकर आकारगत इसकी अपनी पृथक पहचान हैं तो दूसरी ओर हृदय में गहरे पैठकर मार करने की इसकी क्षमता विशेष पहचान रखती है। या यूँ कहा जाये कि “लघु कथा युगबोध को अभिव्यक्त करती है और नैतिक जीवनमूल्यों और नैतिक जीवनमूल्यों की राख के अन्दर कुरेदती हे। वह आलपिन की चुभन भी है और गन्ध की छुअन भी है। दरअसल लघुकथा की अनिवार्य शर्त रूप में न होकर गुण में है, शिक्षा में न होकर संस्कार में है दृश्य में न होकर प्रभाव में है, स्वास्थ्य में न होकर व्यक्तित्व में है और व्यक्तित्व कर्म से बनता है, कसरत से नहीं।”

लघुकथा अपनी वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा आश्रय के मन में एक भावनात्मक रूप ग्रहण करती है, जिसके भीतर उद्‌बोधित शोक, मानवीय शोषण, गरीबी, उत्पीड़न, असहायता के प्रति करुणा अर्थात् मानव को त्रासद परिस्थितियों से मुक्त कराने के भाव से सराबोर हो उठता है, जिसके कारण आश्रय के मन में साहस का एक ऐसा नया भाव जागृत हो उठता है जो बुराइयों, अन्धविश्वासों, रूढ़ियों, साम्राज्यवादियों, नीतियों के विरोध में संघर्ष और चुनौती का वीरतापूर्वक परिचय देने लगता है। सही अर्थों में देखा जाये तो लघुकथा की यही सत्योन्मुखी संवेदनशीलता है, जो शोषणविहीन समाज अर्थात् मंगलकारी तत्व की स्थापना करना चाहती है।

आकार की बात करें तो लघुकथा पंचतंत्र की बोधकथा की तरह आरम्भ होती है किन्तु बोध कथा का उद्देश्य केवल उपदेशात्मक होता था जबकि आधुनिक लघुकथा का लक्ष्य बहुआयामी है। तुलमात्मक दृष्टि से अवलोकर करें तो लघु कथाहास्य से थोड़ी दूर बनाकर चलती है, वहीं दूसरी ओर व्यंग्य के प्रति इसका सम्बन्ध घनिष्ट होता है। क्योंकि आज के विसंगति प्रधान समाज पर यह करारा प्रहार करती है।

लघुकथा में व्यंग्य का होना अनिवार्य नहीं है, परन्तु व्यंग्य की उपस्थिति से लघुकथा में रोचकता आ जाती है। लघुकथा अपनी विशेषता से पाठक के मूड में जबर्दस्त परिवर्तन कर दे, साथ ही उसके मानस को कुछ सोचने पर विवश कर दे, उसमें वैचारिक विद्रोह का बीज बो दे। यह भी कहा जा सकता है कि लघुकथा एक पृष्ठ की गद्य सीमा में पूर्वजों सा प्राचीन या नवजात शिशु-सा ताजा कथानक, प्रत्यंचा से कसे हुए शब्द, फैशन के समान बन्धनहीन आकर्षक शैली और अन्त में कुछ करने अथवा बनने की ओर पाठक की तड़प का उद्देश्य लिए हुए हो। इन्टरनेटी युग मे सभी इसकी सार्थकता है।

लघुकथाओं की सर्जनात्मक शक्ति कहानी से किसी स्तर में कम नहीं मान जा सकती है। समसामयिक जीवन की विसंगतियों के विरुद्ध लघुकथाओं में जिस तीखेपन और वास्तविक रूप में विरोध/प्रतिरोध का स्वर गुंजित हुआ है, उससे इन लघुकथाओं की जीवन्तता की तस्वीर स्पष्ट दिखती है। इसके साथ ही अन्य सम्भावनाओं की आशा एवं प्रगति साफ दिखती है। वास्तव में मन के अंतःकोणों से लेकर विराट सामाजिक परिदृश्य को चित्रित करने में लघु कथाएँ निश्चय ही अपने नघु रूपबन्ध कहानी के अनुरूप दिखाई देती है।

लघुकथा सामाजिक विद्रूपताओं/विसंगतियों के विरुद्ध एक रचनात्मक आह्वान है। लघुकथा पाठकों को आज की आपा-धापी और समयाभाव के बीव जीवनानुभवों और यथार्थ के विविध सन्दर्भों आयामों का बोध कराती है। इन लघुकथाओं के माध्यम से रचनाकार उन जीवनपरिस्थितियों से परिचय कराता है जिनसे सम्पूर्ण मानवीय जीवन प्रभावित होता है। ये लघुकथाएँ कविता और गजलों की तरह सामाजिक, राजनीतिक और दैनिक जीवन की विसंगतियों/घटनाओं को विशिष्ट अन्दाज में वर्णन करती है। पढ़ने वाला इसके प्रति लगाव महसूस करने लगता है। वास्तविकता यह है कि लघुकथाओं में ’नावक‘ के मानक के समान सीमित शब्दों में बहुत कुछ कहने की असीमित शक्ति छिपी हुई है। उसमें व्यंग्य की पैनी धार है, आक्रोश के तीखे स्वर हैं, प्रतीकों और बिम्बों की सशक्त प्रयोगधर्मिता है, सारग्राहवाणी, है क्रान्तिधर्मी चेतना है, समूचे परिवेश को समेट लेने की अपरिमित क्षमता विद्यमान रहती है।

आज बाजारवाद ने लोकतंत्र को अभिजात्व वर्ग तक सीमित कर दिया है। आधुनिक भारत में पूँजीवाद के विकास के असंगत गति के परिणामस्वरूप ही सामाजिक, राजनीतिक विषमताओं जन्म हुआ। आजादी के बाद हमारे देश में पूँजीवादी व्यवस्था का शोषण चक्र जिस तीव्रता के साथ हुआ है उससे हमारे सामाजिक जीवन में अजीबोगरीब परिवर्तन हुए हैं। वर्गवादी और स्वार्थी सत्ता की राजनीति ने अब तक मानवीय मूल्यों को अपूरणीय क्षति पहुँचाई है, जिससे मानव अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश हुआ है। भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, स्मगलिंग, परिवारवाद, व्यक्तिवादी सोच को निरन्तर बढ़ावा मिलने के कारण सम्बन्धों में विघटन तेजी से आया है। व्यक्ति वर्गों और सम्प्रदायो में विभाजित हो गया है, वह उपभोक्ता संस्कृति का एक प्रोडक्ट बनकर रह गया है। साम्प्रदायिक, धार्मिक, आपराधिक राजनीति ने मनुष्य को असुरक्षा, भय और हिंसा के वातावरण में प्रवेश करने को मजबूर कर दिया है। अर्थशास्त्र की गणित के कारण रिश्वत, हिसां, लूट, बलात्कार तथा हत्या आदि को निरन्तर प्रश्रय मिल रहा है। नेता, अधिकारियों और पुलिस के त्रिगुट ने जहाँ अपने स्वार्थों की पूर्ति की है, वहीं मानव जीवन को प्रभावित/आतंकित भी किया है। इस पूँजीवादी व्यवस्था के पतनशील मूल्यों के कुप्रभाव के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की समस्या उत्पन्न हो गयी है। सूचना संचार के माध्यमों-प्रेस, पत्र, रेडियो, टेलिविजन द्वारा निरन्तर साहित्य-संस्कृति को क्षग्रिस्त करने का सफल-असफल प्रयास किया जा रहा है। पुलिस और नौकरशाही से तालमेल के कारण समाज में ऐसी घृणित घटनाओं का सृजन हो रहा है कि शर्म से सिर नीचा हो जाता है। इस तथ्य को प्रेस भी स्वीकार करता है। वोट बैंक, जातिवाद और राजनीति के कारण मानव मन, परिवार, गाँव, शहर और समूचे समाज में विघटन की सतत् प्रक्रिया जारी है। इक्कीसवीं सदी के हसीन सपनों में जीता हुआ व्यक्ति स्वतंत्रता, विकास, नई शिक्षा नीति के सुनहरे नारों के बीच आर्थिक संकट से उबरने के लिए भरपूर शक्ति से प्रयास कर रहा है। व्यवस्था की इन विसंगतियों और कुरूपताओं को यथार्थ अभिव्यक्ति देने में इन लघुकथाओं ने सशक्त और जारूक पेशकश की है। इनके माध्यम से पाठक प्रतिदिन के वातावरण में होने वाली घटनाओं एवं कशमकश से वाकिफ़ और रू-ब-रू होता है। दूसरी ओर वह उन परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार ताक़तों/शक्तियों को पहचानने में सफल होता है, जिसकी वजह से व्यक्ति का जीवन विसंगतिपूर्ण और अमानवीयता की ओर अग्रसर होता चला आ रहा है। लघुकथा का मूल अर्थ/तेवर मानवीय सहानुभूति का भाव एवं व्यवस्था में होने वाली सडांध का विरोध करना पड़ रहा है, जो इसकी सार्थकता को सिद्ध करता है।

हिन्दी लघुकथाओं के विकास में लघु पत्र/पत्रिकाओं की विशिष्ट भूमिका रही है क्योंकि इन पत्रिकाओं के माध्यम से ही लघुकथाओं की पहचान स्पष्ट हो सकती है। वास्तविकता यह है कि इन पत्रिकाओं के माध्यम से अपनी विकास यात्रा के दौरान इन लघुकथाओं ने उन ऊँचेऊँचे सोपानों को स्पर्श किया जिनके आधार पर ही कहानी केन्द्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुई। अपनी इस आत्म यात्रा में ही लघुकथाओं की लेखन परम्परा समृद्ध और प्रसिद्ध हुई है। सन् सत्तर के दशक में समकालीन विधाओं के बीच लघु कथा ने अपना एक स्वतंत्र वजूद बना दिया था। ’सारिका‘ जैसी महत्वपूर्ण कथापत्रिका ने लघुकथाओं के विशेषांक और महत्वपूर्ण अंकों को प्रकाशित कर लघुकथाओं के महत्व की स्वीकृति को सार्वजनिक किया है। वर्तमान समय में प्रत्येक पत्रिका में इस विधा के प्रति रुचि सम्पादकों का ध्यान आकृष्ट किए हुए हैं। हिन्दी आलोचकों ने अवश्य इस ओर अपनी उपेक्षा दृष्टि और संकीर्ण मानसिकता का परिचय दिया है। समय-समय पर लघुकथाओं के विशेषांक, प्रदर्शनी तथा सेमिनारों के बढ़ते प्रभाव ने इसकी प्रासंगिकता सिद्ध की है।

स्पष्ट है कि आकार, तकनीक एवं शैली के आधार पर लघुकथा की अपनी पृथक पहचान बन चुकी है। लघुकथा का शिल्प परिणाम एवं विस्तार में प्रौढ़ता प्राप्त कर चुका है। इसलिए वर्तमान में लघुकथा के प्रति अनेक रचनाकारों का समर्थन और उत्साह अकारण नहीं है। जिस तीव्रता के साथ लघुकथा समृद्धता की ओर अग्रसर हो रही है, वह किसी भी साहित्य के लिए आश्चर्य का विशय हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि लघुकथा विधा की स्थापना व्यावहारिक, शास्त्रीय और सैद्धान्तिक दृष्टि से अपनी स्वाभाविक व सहज विकास यात्रा के प्रखर सोपान पर है, जो इसकी सार्थकता, प्रासंगिकता एवं उपादेयता को सिद्ध करता है।


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संयुक्त राष्ट्र संघ और हिन्दी

साहित्य, संस्कृति व भाषा का अंतर्राष्ट्रीय मंच
।। सृजनगाथा।।
ई-पताः srijjangatha@gmail.com

वर्ष- 2, अंक - 14, जुलाई 2007
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हिंदी-विश्व
संयुक्त राष्ट्र संघ और हिन्दी
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डॉ. वीरेंद सिंह यादव

हिन्दी आज एक राष्ट्र की भाषा न रहकर विश्व भाषा के रूप में अपनी ख्याति अर्जित कर चुकी है। क्योंकि हिन्दी भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व की सबसे सरल भाषा के रूप में अपना स्थान बनाने में सफल हुई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि हिन्दी जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है यही नहीं विश्व की सबसे प्रचलित भाषाएं जो संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना स्थायी स्थान बनाये हुए हैं। (अंगरेज़ी, फ्रेंच, रूसी, चीनी, स्पेनिश और अरबी) इनकी भाषिक एवं वाचिक संरचना के आधार पर हमारी हिन्दी सबसे उत्कृष्ट है। भाषिक, वाचिक विशेषताओं की दृष्टि से हिन्दी ही विश्व की ऐसी भाषा है जो विस्तार एवम एक रूपकता की शक्ति रखती है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को देखें तो यह वास्तव में वास्कोडिगामा के समय से ही अस्तित्व में आ गयी थी। परन्तु इस प्रक्रिया के चलते जो परिवर्तन हमें परिलक्षित होते हैं उसका समर्थन करना जटिल सन्दर्भों पर निर्भर करता है। भूमण्डलीकरण की इस प्रक्रिया को आज भी कोई निश्चित ,निर्णायक राय नहीं मिल पायी है ? शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक क्षेत्रों को यदि हम छोड़ दें तो अन्य क्षेत्रों में भूमण्डलीकरण आज अपना दबदबा कायम किये हुए है। भूमण्डली करण के कारण हिन्दी का प्रभाव व्यावसायिकता पर स्पष्ट दिखने लगा है। वैश्विक परिदृश्य की बात करें तो हिन्दी की पहचान तथा हिन्दी के प्रति रूचि विश्व में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य में यदि हम देखें तो जितना हमरा देश में व्यावसायिक एवं वैधानिक दृष्टि से हिन्दी का विकास नहीं हुआ है उससे कहीं अधिक विकास विश्व में हिन्दी का हुआ है । और संयुक्त राष्ट्र संघ में जो भाषाएं स्थाई रूप से मान्यता प्राप्त किये हुए हैं उनमें हिन्दी को रखे जाने की माँग पर लगभग हर देश से इसे समर्थन मिलता शुरू हो गया है।



संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थाई मान्यता दिलाये जाने का प्रकरण आज कोई नयी बात नहीं है। हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में सन् 1975 से ही प्रयास जारी हैं। क्योंकि सन् 1975 ई. में नागपुर में सम्पन्न प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के माध्यम से औपचारिक रूप से यह प्रस्ताव रखा गया । इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं विश्व भाषा के मानकों में कहीं पीछे हो यह बात हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी सन् 1918 से पहले ही व्यक्त कर चुके थे। हाँ इस विश्व हिन्दी सम्मेलन से यह बात तो निश्चित हो गयी थी कि हिन्दी को जो स्थान मिलना चाहिए वह वैश्विक दृष्टि से उसे नहीं मिल पा रहा है। यह बात मॉरिशस के प्रथानमेंत्री सर शिवसागर राम गुलाम स्पष्ट कर चुके थे। इस सम्मेलन की यह विशेषता रही कि सभी ने एक स्वर से हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में अधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा दिलाने की पुरजोर वकालत की। भारतीय संसद में समय समय पर इस पर काफी तीखी बहसें एवं सुझाव पेश किये गये और तत्कालीन समय के प्रधानमेंत्रियों इंदिरा गाँधी, नरसिम्हा राव एवं अटल बिहारी बाजपेयी ने अपने-अपने स्तर पर पार्टी से सम्बन्धित नितियों के आधार पर थोड़ी बहुत कोशिश की थी परन्तु संकल्प शक्ति के वह बहस नहीं की जो उन्हें करनी चाहिये । एक ही प्रधानमेंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ से हिम्मत जुटाकर अपना उद्बोधन हिन्दी को अपनी ही संसद के माध्यम से वह बहस नहीं की जो उन्हें करनी चाहिए । एक ही प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ से हिम्मत जुटाकर अपना उद्बोधन हिन्दी में दिया। हालांकि इससे पहले अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री की हैसियत में नहीं थे। जब बाजपेयी जी प्रधानमंत्री बने तो लोगों में आशाओं का संचार हुआ और उम्मीदें बँधी कि अब शायद हिन्दी को संवैधानिक दर्जा मिल जाये परन्तु वह सब कुछ सम्पन्न नहीं हो पाया जिससे हम वैश्विक परिदृश्य में हिन्दी को लेकर अपनी बात को दमखम के साथ रखते । वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से उम्मीद की कुछ नयी किरणें बनी हैं कि शायद हमारी हिन्दी संयुक्त राष्ट्रसंघ की भाषा बन जाये इसके लिये सर्वप्रथम यह होना चाहिये कि सर्वसम्मत से संसद द्वारा हिन्दी को प्रथम वरीयता के रूप में संवैधानिक प्रस्ताव पास करके संविधान में राष्ट्रभाषा के रूप स्थापित किया जाये तब फिर हम इसे उत्साह से संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा का स्थान दिलाने के लिये प्रयास करें।



संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने की विश्व (वैश्विक देशों) की सहयोगी संस्था है। और विश्व के लगभग 150 से अधिक देश इसमें अपना सक्रिय सहयोग देते हैं। भाषिक दृष्टि से यह संस्था इस समय छह भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जिसमें चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी, फ्रेंच एवं अरबी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ अपने स्थापना तथा चार्टर 1945 के समय जब अस्तित्व ने आया तो उस समय इसमें प्रमुख रूप से पाँच देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन ही थे। ये ही राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तत्कालीन सदस्य भी बने। संयुक्त राष्ट्र संघ में वर्तमान भाषाओं के बोलने वालों की बात करें (एन कार्टा एनसाइक्लोपीडिया) तो स्पेनिश 33 करोड़ 20 लाख, अंग्रेजी 32 करोड़ 20 लाख, अरबी 18 करोड़ 60 लाख, रूसी 16 करोड़ तथा फ्रेंच 4 करोड़ 20 लाख। इस प्रकार हम देखते हैं कि आज जो संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषाएं हैं उसने परिप्रेक्ष्य में हमारी बोलचाल की हिन्दी इस समय 80 करोड़ अभिजनों की विश्व भाषा के रूप में प्रथम स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में यह प्रावधान है कि इसमें किसी नई भाषा को मान्यता लेने के लिये इसकी जनरल असेम्बली 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पारित करके अधिकारिक भाषा के रूप में इसे मान्यता दिला सकती है। तथ्यों एवं आँकड़ों पर गौर फरमायें की इस समय हिन्दी बोलने वाले विश्व में पहले स्थान पर आ गये हैं। हिन्दी अपनी विशुद्ध वैज्ञानिक लिपि तथा अनुशासित भाषाके साथ सरल, बोधगम्य व शीघ्र ही समझ में आने वाली, साथ बहुत कम समय में सीखे जाने वाली भाषा है। हिन्दी का व्याकरण सरल होने के साथ यह भाषा उच्चारण एवं समझने में सुगम है। यही कारण है कि यह विश्व के हर कोने में इसका प्रचार-प्रसार हो रहा है। विदेशों में आज हिन्दी अपने पठन-पाठन व अध्ययन के लिये सुगम भाषा के रूप में ख्याति अर्जित करती जा रही है। वास्तविकता यह है कि विदेशों में हिन्दी भाषा में रचित साहित्य की मांग दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इतना सब होने के बावजूद भी हिन्दी के प्रति अधिकारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारा दावा इतना मजबूत नहीं हो पा रहा है। कि उसे विश्व जनमत अधिकारिक भाषा का दर्जा दे सके। आखिर ऐसी कौन सी कठिनाइयां एवं परेशानियां है जिससे हमारी हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थान नहीं मिल पा रहा है ?



प्राथमिक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को स्थापित करने के लिये तीन तरह के परेशानियां उपस्थित हो रही हैं - प्रथम दो तिहाई सदस्यों का बहुमत, दूसरे स्तर पर भारी आर्थिक खर्च, तीसरा कारण प्रमुख भाषाओं के अनुवाद की समस्या । जहाँ तक 2/3बहुमत की बात करें तो वैश्विक परिदृश्य में भारत के लिये यह सबसे कठिन कार्य है। क्योंकि भारत की बढ़ती ताकत के प्रति कोई देश नहीं चाहता है कि इसे भाषिक दृष्टि से मजबूत किया जाये। अमेरिका एवं बिट्रेन की वर्तमान स्थितियों को देखते हुए यह मजबूरी सी लगती है क्योंकि इस समय इस्लामी आतंक के रूप में वह भारत का पुरजोर समर्थन प्राप्त करने के लिये अपने यहाँ हिन्दी पढ़ाने की वकालत के साथ-साथ सरकारी स्तर पर सहयोग राशि भी हिन्दी पर अधिक खर्च कर रहा हैं क्योंकि यदि वे नहीं करते हैं तो वहाँ पर रहने वाले भारतवासी अमेरिका ब्रिट्रेन को उतना आर्थिक/भावनात्मक सहयोग नहीं देंगे। दूसरे देश भारत कोसहयोग इसलिए भी नहीं दे सकते हैं कि अमेरिका एवं ब्रिट्रेन आखिर भारत को इतनी वरीयता क्यों दे रहा है। हम यह याद दिला देना लाजिमी समझते हैं कि अरबी भाषा को संयुक्त संघ ने केवल इसलिये अधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा मिला क्योंकि अमेरिका एवं ब्रिट्रेन को तेल की राजनीति करनी थी।फिलहाल कुछ भी हो भारत को इन अनुकूल परिस्थितियों को अपने पक्ष में करने के लिये एक बार पुनः जोर आजमाइश शुरू कर देना चाहिये।



संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यता है कि यदि उसे स्थायी दर्जा सदस्य देश के रूप में या भाषा के रूप में जो भी मिलता है। उसको प्रतिवर्ष एक निश्चित राशि इसके बनाये हुए कोशों में जमा करनी पड़ती है। इसलिये भारत के समक्ष यह बहुत बड़ी चुनौती है कि वह अपने आर्थिक ढाँचे में सुधार कर पहले संयुक्त राष्ट्र के मानकों को पूरा करे और अपनी आर्थिक नीति एवं मुद्रा स्फीति को वैश्विक स्तर पर लाकर विश्व के देशों के समक्ष कोई ऐसा मौका न दे कि कोई हमारी अर्थव्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगा सके। तीसरी तरह की परेशानी संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को हिन्दी भाषा के लिये अधिकारिक रूप में रखने के लिये अनुवाद की समस्या आ सकती है क्योंकि अन्य अधिकारिक भाषाओं और हिन्दी के बीच समानान्तर अनुवाद कराने का खर्च बहुत अधिक होगा। यही नहीं यांत्रिक दृष्टि से हमारी अभी अनुवाद की यांत्रिक प्रक्रिया बहुत सशक्त नहीं है कि हम दावे के साथ इस कह सकें । हमारा आशु अनुवाद यंत्रानुवाद के साथ अनुवाद प्रौद्योगिकी अभी बहुत विकसित नहीं हो पायी है। इसके लिये भारत की यंत्रानुवाद एवं सी-डेक तथा अनुवाद प्रौद्योगिकी की दिशा में महत्वपूर्ण अनुसंधान की जरूरत है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र में प्रचलित सभी भाषाओं के साथ हिन्दी में यंत्रानुवाद के कार्यक्रमों को भारत में उत्तरोत्तर विकास की आवश्यकता है। इन सबके अलावा भारतीय सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं भारतवासियों और अप्रवासी भारतीयों आदि का मानसिक/भाषिक/भावनात्मक सहयोग की दरकार भी चाहिये तभी हम हिन्दी की पताका संयुक्त राष्ट्र संघ में फहरा सकते है।
डॉ. वीरेन्द्र सिह यादव
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बाल अधिकार और उनका क्रियान्वयन

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December 15, २००८

रवि रतलामी - रचनाकार में प्रकाशित आलेख

वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : बाल अधिकार और उनका क्रियान्वयन
बाल अधिकार और उनका क्रियान्‍वयन
- डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव
बच्‍चे किसी भी समाज के भविष्‍य होते हैं। बच्‍चों को केन्‍द्र में रखकर ही कोई समाज या देश अपने राष्‍ट्र निर्माण की भावी संरचना का नवनिर्माण करता हैं क्‍योंकि बच्‍चे राष्‍ट्र की अमूल्‍य धरोहर एवं भावी संसाधन तथा सांस्‍कृतिक विरासत होते हैं। बाल्‍यकाल जीवन की सक्रिय एवं सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण अवस्‍था होती है। जो उसके भावी भविष्‍य की दिशाएं तय करती है। राष्‍ट्र के भावी निर्माण के लिए बच्‍चा केवल बच्‍चा ही नहीं होता है बल्‍कि अपने जन्‍म के साथ वह स्‍वयं भी एक माँ और पिता की जन्‍मता है। अर्थात्‌ नवजात शिशु अपने जन्‍म से ही एक सम्‍बन्‍ध को नया रिश्‍ता देता है साथ ही एक नया नाम एवं सम्‍बोधन देता है। स्‍वाभाविक रूप से अल्‍हड़, कोमल, नटखट और गोद में अठखेलियां तथा किलकारी भरा बचपन एक लय में उमंगों की छलागें एवं पेंगे नहीं मार पा रहा है क्‍योंकि सरकारों द्वारा उठाये गये पर्याप्‍त कानूनी कदमों के बाद उनका उचित क्रियान्‍वयन नहीं हो पा रहा है और बच्‍चों के लिए निर्धारित किये गये अधिकार एवं मौलिक अधिकारों का खुलेआम उल्‍लंघन किया जा रहा है।
यूनीसेफ की हाल में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार विश्‍व में बच्‍चों की सर्वाधिक संख्‍या भारत में है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2.5 करोड़ बच्‍चे जन्‍म लेते हैं। यह संख्‍या चीन सहित विश्‍व के किसी भी राष्‍ट्र में एक वर्ष में जन्‍म लेने वाले बच्‍चों की संख्‍या से अधिक है। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्‍चों की संख्‍या 37.5 करोड़ तथा छः वर्ष से कम उम्र के बच्‍चों की संख्‍या 15.8 करोड़ है। प्राथमिक शिक्षा को कानूनी दर्जा मिल जाने के बावजूद तीन करोड़ से अधिक बच्‍चे अभी भी प्राथमिक विद्यालयों में अपनी उपस्‍थिति दर्ज नहीं करा पा रहे हैं। दो करोड़ से अधिक बच्‍चे नौकर के रूप में कार्य करने के साथ-साथ चाय की दुकानें, स्‍कूटर एवं कारों की मरम्‍मत, ढाबों, भवन निर्माण, कुलीगीरी, कालीन उद्योग, जरी की कढ़ाई, दियासलाई, आतिशबाजी, बीड़ी तथा पीतल उद्योगों, चूड़ी निर्माण जैसे जोखिमपूर्ण उद्योगों में लगे हुए हैं। दो तिहाई से ज्‍यादा श्रमजीवी बच्‍चे गम्‍भीर चोटों का सामना जलना, त्‍वचा की बीमारी, आँख की रोशनी एवं साँस की बीमारी सहते हुए असहाय सा जीवन जीकर काल कवलित हो जाते हैं - यह स्‍थिति भारत में ही नहीं वरन्‌ विश्‍व के सभ्‍य एवं विकसित देशों में किसी भी पैमाने पर कम नहीं देखी जा रही है। अर्थात्‌ विश्‍व के राष्‍ट्र बच्‍चों के द्वारा निर्धारित अधिकारों के प्रति सचेत नहीं जान पड़ते।
बच्‍चे के अधिकारों के प्रति सर्वप्रथम अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर वर्ष 1989 में तैयार किये गये बाल अधिकार कन्‍वेंशन में इन विशिष्‍ट अधिकारों को बच्‍चों के मौलिक अधिकार के रूप में स्‍वीकार किया गया। जिसको भारत सहित लगभग सम्‍पूर्ण विश्‍व द्वारा मान्‍यता प्रदान की गई। 20 नवम्‍बर 1989 को संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा द्वारा बच्‍चों के अधिकारों की सुरक्षा सम्‍बन्‍धी एक प्रस्‍ताव स्‍वीकार किया गया। इस सम्‍मेलन का उद्देश्‍य बच्‍चों को कहीं भी उनके शोषण, दुरूपयोग और घृणा से मुक्‍ति दिलाना था। इसका विस्‍तृत विवरण सन्‌ 1990 में आयोजित विश्‍व बाल सम्‍मेलन में किया गया॥ जिसके द्वारा प्रत्‍येक बच्‍चे को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्‍कृतिक अधिकार प्रदान करने पर विशेष बल दिया गया। बच्‍चों की अन्‍य गम्‍भीर समस्‍याएं जिनमें बाल श्रम मुख्‍य है के लिए 27-30 अक्‍टूबर 1997 में नार्वे की राजधानी ओस्‍लो में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ द्वारा एक बाल श्रम पर अन्‍तर्राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन का आयोजन विश्‍व के लोगों का ध्‍यान बच्‍चों के अधिकार एवं समस्‍याओं की ओर आकर्षित करने का विशेष प्रयास किया गया। संयुक्‍त राष्‍ट्र की विशेष महासभा में 08.10.2002 के द्वारा बच्‍चों के विकास, कल्‍याण एवं सुरक्षा हेतु विशेष रणनीति बनाई। इस रणनीति में बच्‍चों के 54 मूलभूत अधिकारों को पारित किया गया। जिनमें से प्रमुख रूप से अनु. 1 के तहत बच्‍चे की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार 18 वर्ष से कम आयु के बच्‍चे इस श्रेणी में रखे गये हैं। अनु. 2 विभेदहीनता, अनु. 3 में बच्‍चे की अनुकूल अभिरूचियां, अनु. 4 में उनके अधिकारों का कार्यान्‍वयन कैसे हो दिया गया है। अनु. 5 में माता पिता का मार्गदर्शन तथा बच्‍चों की क्षमताएं, जीवित रहने का जन्‍मजात अधिकार अनु. 6 में दिया गया है। वहीं अनु. 7-8 में बच्‍चे का नाम राष्‍ट्रीय तथा पहचान एवं संरक्षण के बारे में बताया गया है। अनु. 9-10 में माता-पिता से पृथकता तथा पारिवारिक पुनः एकीकरण का अधिकार बताया गया है। अनु. 11 में अवैध स्‍थानान्‍तरण एवं गैर वापसी के बारे में बताया गया है। अनु. 12 में बच्‍चे की राय अनु. 14-14 में अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता एवं विचार, आत्‍मा की आवाज एवं धर्मदर्शन की स्‍वतंत्रता प्रत्‍येक बच्‍चे को प्रदत्‍त की गई है। अनुच्‍छेद 15-16 में संगठित होने की स्‍वतंत्रता एवं गोपनीयता के संरक्षण की बात कही गयी है। वहीं अनु. 17-18 में सूचना को पहुँचाने तथा माता-पिता के उत्‍तरदायित्‍व का वर्णन मिलता है। अनु. 19-20-21 में दुरूपयोग एवं उपेक्षा से संरक्षण, परिवार, विद्वान बच्‍चों का संरक्षण एवं गोद लिए जाने का प्रावधान किया गया है। अनु. 22, 23, 24 शरणार्थी बच्‍चे, बाधित बच्‍चे एवं स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के बारे में विशेष बल दिया गया है। अनु. 25 देखभाल एवं संस्‍था में रखने का पुनरावलोकन तथा अनु. 26-27 स्‍वाभाविक सुरक्षा, जीवन स्‍तर में सुधार की पूर्ति का वर्णन किया गया है। अनु. 28-29 में शिक्षा एवं शिक्षा के उद्देश्य के बारे में निर्देशित किया गया है। अनु. 30 अल्‍पसंख्‍यक समुदायों/देशी मूल के बच्‍चों के बारे में बताया गया है। अनु. 31 में रिक्‍त समय में मनोरंजन एवं सांस्‍कृतिक गतिविधियों के बारे में निर्देशित किया गया है। अनु. 32 में बाल श्रम तथा अनु. 33, 34, 35, 36, 37 में क्रमशः मादक द्रव्‍यों का दुरूपयोग, लैंगिक शोषण, विक्रय, व्‍यापार, अपहरण व शोषण से संरक्षण तथा उत्‍पीड़न एवं स्‍वाधीनता से वंचित होने को निषिद्ध किया गया है। अनु. 38, 39, 40, 41 में सैन्‍य संघर्ष, पुनर्वास सम्‍बन्‍धी देखभाल, बाल न्‍याय का प्रशासन तथा वर्तमान मानदण्‍डों के प्रति सम्‍मान को रेखांकित किया गया है। अनु. 40-45 में बच्‍चों के प्रदत्‍त अधिकार को प्रभावपूर्ण कार्यान्‍वयन, पोषण एवं अन्‍तर्राष्‍ट्रीय सहयोग हेतु संयुक्‍त राष्‍ट्र के विभिन्‍न अभिकरणों यथा-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय श्रम संगठन, विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन, यूनेस्‍को और यूनीसेफ समिति की बैठकों में उपस्‍थित हो सकेंगे। अनु. 46 से 54 के विशिष्‍ट बिन्‍दुओं में हस्‍ताक्षर अनु. समर्थन, प्रवेश, लागू होने वाले संशोधन, शंकाएं, प्रख्‍यापन तथा प्रमाणिक अभिलेखों के बारे में विवरण दिया गया है। संयुक्‍त राष्‍ट्र समझौते के अनुसार इन अधिकारों के तहत बच्‍चों के सर्वांगीण विकास के लिए न्‍यूनतम जीवन स्‍तर सुनिश्‍चित करना तथा प्राथमिक शिक्षा की समुचित व्‍यवस्‍था करना सबसे महत्‍वपूर्ण माना गया है।
भारतीय संविधान भी बच्‍चों के मूलभूत अधिकारों पर विशेष बल देता है जिनमें बाल श्रम को रोकने के लिए विशेष प्रावधान किये गये हैं। हमारे संविधान का अनुच्‍छेद 15, राज्‍यों की महिलाओं और बच्‍चों की सुरक्षा के लिए विशिष्‍ट प्रावधान करने की शक्‍ति देता है। अनु. 24 में 14 वर्ष से कम आयु के बच्‍चों को कारखानों एवं अन्‍य जोखिम पूर्ण कार्य में नियोजन का प्रतिरोध किया गया है। वहीं आर्थिक आवश्‍यकताओं की वजह से किसी व्‍यक्‍ति से उसकी क्षमताओं से परे काम करवाने का अनु. 39 (ई.-एफ) प्रतिरोध करता है। अनु. 45 के द्वारा बालकों के लिए निःशुल्‍क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान उपलब्‍ध कराने का राज्‍य को निर्देश दिया गया है। भारतीय संसद के द्वारा इन संवैधानिक व्‍यवस्‍थाओं के तहत 1974 में एक राष्‍ट्रीय नीति स्‍वीकार की गई जिसने घोषित किया कि बच्‍चों की उपेक्षा, क्रूरता और शोषण से रक्षा की जायेगी और 14 वर्ष से कम का कोई भी बच्‍चा अनिश्‍चितता वाले व्‍यवसाय या भारी कार्य में नहीं लगाया जायेगा। भारत में उन संवैधानिक प्रावधानों के अतिरिक्‍त अनेक ऐसे महत्‍वपूर्ण विधान दिये गये हैं जो बच्‍चों को विभिन्‍न व्‍यवसायों के तहत कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं। 14 वर्ष की कम उम्र का व्‍यक्‍ति फैक्‍ट्री एक्‍ट 1948 के तहत रोजगार नहीं कर सकता है। बागान एक्‍ट 1951 तथा खान एक्‍ट 1952 के तहत 15 वर्ष की उम्र में कार्यों पर प्रतिबन्‍ध लगाया गया है। कुछ प्रमुख अधिनियम अनुबंधित श्रमिक अधिनियम 1975, बाल श्रमिक (निवारण और नियमितीकरण) 1986 तथा 1987 की राष्‍ट्रीय बाल श्रम नीति के अन्‍तर्गत बाल श्रमिकों को शोषण से बचाने और उनकी शिक्षा, चिकित्‍सा, मनोरंजन तथा सामान्‍य विकास पर जोर देने की व्‍यवस्‍था की गयी है। इसके साथ ही भारत सरकार अपनी विभिन्‍न पंचवर्षीय योजनाओं में बालकों के अधिकार एवं बाल श्रमिकों के उत्‍थान के लिए कई कार्यक्रम शुरूआत किए हुए है। सरकार के अलावा कई गैर सरकारी स्‍वैच्‍छिक संगठन भी इस दिशा में गम्‍भीरता से प्रयासरत हैं।
हमें बड़े दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि विभिन्‍न वैश्‍विक संवैधानिक प्रावधानों और सरकारी तथा गैर सरकारी उपायों के बावजूद हम बच्‍चों के उनके मौलिक अधिकार एवं मानवाधिकार को उपलब्‍ध नहीं करा पा रहे हैं अर्थात्‌ आज लाखों-लाख बच्‍चे गरीबी, आतंकवाद, भीख मंगवाना, धनाढ्यों के मनोरंजन के लिए उन्‍हें विदेश भिजवाना, तस्‍करी जैसे कार्य करवाना, बालश्रम, बाल व्‍यापार, कुपोषण, अशिक्षा, बाल अपराध, बाल सैनिक, विस्‍थापन, बालिका भ्रूण हत्‍या, विज्ञापनों के प्रयोग में बालकों का मानसिक एवं शारीरिक शोषण, बाल यौन दुराचार और युद्ध जैसे कई कारणों से पलायन करने वाले परिवारों के साथ सीमा पर सैनिकों की कामवासना का शिकार होने के अलावा उन्‍हें विभिन्‍न तरीकों से शारीरिक मानसिक और संवेगात्‍मक रूप से प्रताड़ित करने, उनके दैहिक और आर्थिक शोषण करने एवं मूलभूत सुविधाओं से वंचित करने के लिए ऐसी तकनीकों और प्राविधियों का प्रयोग किया जा रहा है, जो मानवता के नाम पर कलंक है। निष्‍कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि विकराल होती बाल अधिकारों की समस्‍या को आज कानूनी और मानवाधिकार की दृष्‍टि से देखने के साथ-साथ उसके मानवीय, सामाजिक तथा व्‍यावहारिक पहलू से भी देखे जाने की आज शिद्दत के साथ आवश्‍यकता है तभी हम इन जमीं के नन्‍हें-मुन्‍नें सितारों को शारीरिक रूप से स्‍वस्‍थ, मानसिक रूप से सजग तथा नैतिक रूप से आदर्श नागरिक बना सकते हैं।
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सम्‍पर्क -वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग
डी. वी. कालेज, उरई (जालौन) 285001 उ. प्र.
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने,

कृतिका...... शोधपरक पत्रिका

कृतिका...... शोधपरक पत्रिका
पत्रिका-कृतिका अंक-जुलाई-दिसम्बर08, स्वरूप-अर्द्धवार्षिक, प्रधान संपादक-डाॅ। चन्द्रमा सिंह, संपादक-डाॅ. वीरेन्द्र सिंह यादव, संपर्क-1760, नया रामनगर, उरई, जालौन 285.001 (उ.प्र.) भारत

इंटीग्रेटेड सेन्टर फाॅर वल्र्ड स्टडीज, उरई जालौन उ.प्र. का यह शोध परक अर्द्धवार्षिक पत्र है। पत्रिका में साहित्य, कला, संस्कृति, आयुर्वेद, मानविकी, एवं समाज विज्ञान की शोधपरक रचनाएं प्रकाशित की जाती हैं। इस अंक में भाषा एवं साहित्य पर दो रचनाएं (प्रोफेसर राम चैधरी, डाॅ. तिलक राज), धरोहर के अंतर्गत तीन रचनाएं (डाॅ. किशन यादव, डाॅ. दिवस कांत समाथिया, ज्योति श्रीवास्तव), आध्यात्म एवं दर्शन के अंतर्गत डाॅ. अनिल कुमार सिन्हा का आलेख प्रकाशित किया गया है। आधी दुनिया का यथार्थ (डाॅ शुभा चैधरी, डाॅ. चम्पा श्रीवास्तव, डाॅ. जार्ज कुट्टी, चित्रा आम्रवंशी, आकांक्षा यादव), संगीत के अंतर्गत डाॅ. ज्योति सिन्हा की शोध परक रचनाएं प्रभावित करती हैं। संवाद के अतर्गत डाॅ. लक्ष्मी सिंह यादव तथा निरूत्तर के अंतर्गत डाॅ. महालक्ष्मी जौहरी की रचनाएं शोध परक रचनाओं की कसौटी पर कुछ पीछे दिखाई देती हैं। नागरिक समाज में डाॅ. अजय सिंह एवं डाॅ. वीरेन्द्र सिंह यादव का दृष्टिकोण नितांत शोधपरक है जो विषय वस्तु का प्रतिपादन करने में पूरी तरह सक्षम है। लोक साहित्य में हसीन खान, अमृता पीर, ममता यादव में से भोजपुरी कला पर अमृता पीर द्वारा लिखा गया शोधालेख विशेष प्रभावित करता है। इतिहास के अंतर्गत डाॅ. उमारतन, डाॅ. शंकरलाल, कु. अनीता सिंह के शोधपत्र अच्छे बन पड़े हैं। समकालीन सृजन के अंतर्गत डाॅ. राधा वर्मा एवं डाॅ. सुरेश फाकिर में मौलिकता की गंध है। लीला चैहान एवं शम्स आलम में से लीला को शेखर एक जीवन पर पुनः विचार कर इस शोध को फिर से लिखना चाहिए क्योंकि अभी इसमें वह धार नहीं आ पाई है जो शेखर इस उपन्यास के प्रमुख बिंदुओं को उभार सके। डाॅ. चन्द्रमा सिंह तो आलोचना का विश्लेषण बहुत ही अच्छी तरह कर पाए हैं लेकिन क्रांतिबोध को और भी अधिक अध्ययन कर अपना शोध प्रस्तुत करना चाहिए था। सुलगते सवाल, बीच बहस में तथा शोधार्थी के अंतर्गत ली गई रचनाएं भी उच्च कोटि की व प्रभावशाली है। यदि आप गंभीर शोध परक साहित्य पढ़ना चाहते हैं तो यह पत्रिका आप ही के लिए है।
Posted by अखिलेश शुक्ल at 6:11 AM 0 comments
Tuesday, January 27, 2009

नेह एवं आत्मीयता की भाषा : राष्ट्रभाषा हिन्दी

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01.16.2009

नेह एवं आत्मीयता की भाषा : राष्ट्रभाषा हिन्दी
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव


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अपनी उत्पत्ति के साथ मानव ने सभ्यता और संस्कृति के विकास-सोपान के साथ भाषा के विकास की परम्परा भी अपनाए रखी। भाषा-विकास-परम्परा में सरलीकरण की प्रक्रिया इसी बात को इंगित करती है कि मानव-समुदाय भाषागत व्याकरणिक बन्धनों में जकड़ा नहीं रह सकता क्योंकि भाषा मनुष्य के हृदय की वस्तु नहीं अपितु आह्लाद, अनुभवों व भावों को व्यक्त करने वाली होती है। यही नहीं भाषा के द्वारा संस्कृति, संस्कार व राष्ट्र का निर्माण भी होता है। भाषा के द्वारा जहाँ एक ओर राजनीतिक संकल्पना की पूर्ति सम्पन्न होती है, वहीं दूसरी ओर समाज, व्यक्ति और विचार को आमूल-चूल परिवर्तित कर देने की प्रचण्ड शक्ति भी होती है। देखा जाये तो जहाँ एक ओर भाषा क्रांति का बीज साबित होती है वहीं दूसरी ओर शांति का मंत्र भी सिद्ध होती है। भाषा के द्वारा खण्डित एवं टूटे हुये दिलों को जहाँ एक ओर जोड़ा जा सकता है वहीं दूसरी ओर इसके रसायन से दिलों को तोड़ा भी जा सकता है। यही नहीं भाषा संवेदना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम् है।

अभिव्यक्ति या सम्पर्क के लिये एक मात्र सशक्त माध्यम भाषा ही है। भाषा का यह माध्यम तब और अधिक लोकप्रिय हो जाता है जब अधिक से अधिक लोग सर्वसम्मत एवं प्रचलन के रूप में उसे प्रयोग में लाते हों। भाषा का यह रूप ’लिंक लैंग्वेज‘ अर्थात सम्पर्क भाषा के रूप में जाना जाता है। कोई भी राष्ट्र राजनीतिक, व्यावहारिक दृष्टि से बिना सम्पर्क भाषा के विकास के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता है। संस्कृति, संस्कार तथा व्यावहारिक दृष्टि से भी सम्यक भाषा ही जनता के भावों और विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है। कोई भी राष्ट्र तभी परम्परागत सांस्कृतिक महिमा से मंडित हो सकता है जब वहाँ की एक सम्पर्क भाषा हो। हिन्दी हमारे देश की सम्पर्क भाषा, राष्ट्रभाषा बनने में पूर्णतः सक्षम है क्योंकि ’’हिन्दी उदारता की भाषा है; हिन्दी चरित्र निर्माण व संस्कारों की भाषा है; हिन्दी नेह व आत्मीयता की भाषा है, उसने अपने प्रांगण में अपनत्व भाव से आई भाव व शब्द की सम्पदा का निरन्तर आतिथ्य किया है; आत्मीयता का वरण किया है। ...... स्नेह का उत्कर्ष इतना है कि एक बार हिन्दी के आँचल में आश्रय पा चुका शब्द वापस नहीं हो सका और हिन्दी का ही होकर रह गया। अतिथियों (शब्दों) को आत्मसात् करने की तथा परम उदारता की बात निःस्वार्थ भाव से विश्व की कोई भी भाषा हिन्दी से सीखे। आज हज़ारों ऐसे देशी-विदेशी शब्द हिन्दी के शब्द-भंडार की शोभा बढ़ा रहे हैं। बहुउद्देशीय शब्दों को पचाने व अपने में समाने की सामर्थ्य हर भाषा में सम्भव नहीं, यह केवल हिन्दी भाषा की व्यापकता व विशाल हृदयता का ही परिचायक है। भाषा का महत्व किसी भी रूप में देश की सीमा की रक्षा कर रहे सैनिकों से कमतर नहीं है। ज्ञान, चेतना व चिंतन की मूल धुरी है भाषा।” स्पष्ट है कि विश्व भाषा के रूप में हिन्दी का विकास उसके गुणों के कारण ही हो रहा है। साहित्यिक, धार्मिक तथा सामाजिक चेतना के लिये हिन्दी की पहचान भारत के बाहर अन्य देशों में बहुत अधिक हुई है। यह सिद्ध हो चुका है कि हिन्दी-लिपि एक विशुद्ध वैज्ञानिक व अनुशासित लिपि है। हिन्दी भाषा सरल, बोधगम्य व शीघ्र ही समझ में आने वाली तथा अल्प समय में सीखी जाने वाली भाषा है। अपनी व्याकरणिक विशेषताओं के कारण उच्चारण एवं पढ़ने में हिन्दी भाषा जैसी विश्व की कोई भाषा नहीं है। नूतन आँकड़े यह सिद्ध करते हैं कि विश्व में इस समय हिन्दी बोलने वाले प्रथम स्थान पर आ गये हैं, यह बात आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि विदेशों में हिन्दी भाषा-साहित्य दिनों-दिन प्रगति पथ पर नये सोपान स्थापित कर रही है। वहीं हमारे अपने देश भारत में जो स्वाधीन, सार्वभौम, प्रभुसत्तात्मक राष्ट्र का प्रतीक है, जहाँ हमारा एक राष्ट्रध्वज, एक राष्ट्रगान होने के बावजूद हमारी एक राष्ट्रभाषा क्यों नहीं हो पायी है, वर्तमान समय में यह शोध का विषय है।

निश्चित रूप से भाषा को लेकर हमारे समक्ष यक्ष प्रश्नों की स्थिति बनी हुई है। विरोधाभासों की वर्तमान दुनिया में वैज्ञानिक विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व आपसी जुड़ाव, समन्वय तथा एक छोटी सी बस्ती में तब्दील होता जा रहा है। किसी एक देश की घटना का प्रभाव दूसरे देश पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यही कारण है कि विज्ञान, तकनीक, सम्पदा और समृद्धि की ऊँचाइयाँ छूने की दौड़ तेज़ होती जा रही है जिससे वैचारिक तथा भाषाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे विस्तृत हो रहे हैं। भाषा की इस अभिव्यक्ति ने जनता और सत्ता; सम्पत्ति और चालबाजी; व्यक्तिगत तथा सामूहिक दोनों स्तरों पर, विचार-शून्यता की स्थिति से आगे लाकर विचार-प्रेषण की स्थिति में खड़ा कर दिया है। क्योंकि वर्तमान समय में मनुष्य केवल अपने स्तर एवं हित के अलावा कुछ सोच ही नहीं पा रहा है। वर्तमान में हिन्दी की यह स्थिति हो गई है कि हमारे माननीय सत्ता के मनमाने-मनचाहे उपयोग को ललकारने की बात तो दूर रही, वास्तव में अब हिन्दी भाषा सत्तासीन लोगों का हथियार या उनके हाथ का खिलौना बनती जा रही है। हिन्दी आज राज का दर्जा पाने के लिये सत्ता के गलियारों में भटक रही है इस आस में कि उसे भी नियामतो का एक अंश मिल जायेगा, परन्तु यह सब कैसे और कब तक चलेगा अभी भविष्य के गर्भ में है।

निश्चित रूप से हमारे समक्ष यह एक विकट परिस्थिति है पर ऐसा नहीं कि सब कुछ अँधकारमय एवं अनिश्चित है। हिन्दी की इस दुस्सह स्थिति में भी आशा के दीपक जगमगा रहे हैं। अनेक विद्वान लेखक, कवि, आलोचक, सक्रिय समाजकर्मी और मानवीय संवेदना तथा प्रतिबद्धताओं से ओतप्रोत सृजनशील व्यक्ति यथास्थिति का बेबाक चित्रण ही नहीं कर रहे हैं अपितु ये लोग हिन्दी के एक वैकल्पिक विश्व की अवधारणा, परिकल्पना और सम्भावना के चितेरे भी हैं। इन लोगों के द्वारा हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु इस दिशा में निजी और संगठित स्तर पर अनेक रूपों में प्रबल प्रयास चल रहे हैं। हिन्दी भाषा को लेकर खड़े विविध यक्ष प्रश्नों पर व्यापक विमर्श यानी विचारणा-अनुसंधान साथ ही सक्रिय ज़मीनी कार्यों की ज़रूरत है। हमें पूरा विश्वास है कि हमारे देश की गंगा-जमुनी संस्कृति की प्रज्ञा शक्ति अपनी हिन्दी सर्जना से न केवल जनमानस को आह्लादित करेगी वरन उसे आलोड़ित कर हिन्दी को भूमण्डलीकरण की प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदार बना कर उसके इक़बाल को बुलंद करेगी।

अभिमन्यु अनत के शब्दों में कहें तो -

मेरे दोस्त,

उस भाषा में मेरे लिये,

शुभ की कामना मत कर,

जिसकी चुभती धुन मुझे,

उन गुलामी के दिनों की याद दे जाती है,

चाबुक की बौछारों का आदेश,

निकलता था जिस भाषा में,

उस भाषा को मेरी भाषा मत कह,

मेरे दोस्त।


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कैसा होगा आपका 2009 नया वर्ष

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01.18.2009

कैसा होगा आपका 2009 नया वर्ष
डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव


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नये वर्ष को याद कर मन प्रफुल्लित एवं रोमांचित हो उठता है। पिछले वर्ष की अपनी व्यक्गित घटनाओं, देश में राजनीतिक उठा-पटक एवं आतंकवादी त्रसदी के टेलरों को सोचकर मन में एक अनाम चिन्ता ने प्रवेश किया कि आगे आने वाला वर्ष कैसा होगा? मन की इस यक्ष चिन्ता के पीछे कई यक्ष प्रश्न भी उठ रहे थे, मन ने पुनः शेयर बाजार की तरह उछाल मारी और एक बात दिमाग में आयी कि इसके लिये भारतीय ज्योतिष्यों से क्यों न मिल लिया जाए और जाना जाए कि भारत का एवं सामान्य जनतंत्र का भविष्य कैसा होगा? इसी उधेड़बुन में सोचते-सोचते कब की नींद देवी आ गयीं, इसका पता ही नहीं चला, और मैं कब सो गया। इसके साथ ही स्वप्न में अपना भारत महान चमकने लगा (शाइनिंग इंडिया)। आज मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, जैसी विशष्ट योग्यता रखने वाला हमारा असहाय देश फिर से सोने की चिड़िया जैसा कैसे लग रहा है? अपने सामने भव्य रूप में सोने के सिंहासन में विराजमान ज्योतिष श्री फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज और उनके समक्ष शाइनिंग इण्डिया के कर्णधार राजनेता सांसद, मंत्री, विधायक, फिल्म से जुड़ी हस्तियाँ, श्रीमती, श्रीमान् के साथ-साथ पुलिस प्रशासन से जुड़े आला अफसरों के साथ-साथ खेल जगत की सनसनी से लेकर माही, लिटिल मास्टर बल्ला लिए व्याकुल मुद्रा में खड़े हैं और, युवा वर्ग के लड़के-लड़कियाँ अपने-अपने नम्बर के इंतजार में थे। कवि, लेखकगण भी अपनी उपस्थिति को किसी मामले में किसी से कम नहीं समझ रहे थे! हमने भी मौके का फायदा उठाया, दो सौ का टिकट कटाया। इसके साथ ही अन्जान भीड़ में खो गया। और निश्चत हो गया कि अब हमारा भविष्य सुरक्षित हो गया है। भीड़ की अधिकता को देखकर (नये वर्ष को देखकर) फाइव ज़ीरो महाराज भविष्यानन्द ने घोषणा की कि इस वर्ष भीड़ अधिक होने के कारण हम सभी वर्गों के लोगों को खानो में बाँटकर सामूहिक रूप से भविष्य वाचन करेंगे।

सर्वप्रथम राजनीतिज्ञों की ओर इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष भी राजनीति में लोकतंत्र का भरतनाट्यम चलता रहेगा। शनि की वक्रदृष्ट और सूर्य की टेड़ी चाल के कारण राजनीति में उथल-पुथल जारी रहेगी। निर्दलीय आयाराम-गयाराम सांसद/विधायक ही देश के बेहतर भविष्य के योग्य बने रहेंगे! निर्दलियों के लिए यह सलाह कारगर होगी कि यदि वह खरीद-फरोख्त को वरीयता देते हैं तो उनका अपना भविष्य सुरक्षित रहेगा! यह बात विज्ञान भी प्रमाणित कर चुका है कि अपना भविष्य उज्ज्वल तो देश का भविष्य उज्जवल होने में कोई परेशानी नहीं होती है। सत्ता के कीचड़ में ‘आपरेशन दुर्योधन’ वाले सांसद कमल जैसी शोभा संसद में बढ़ाते रहेंगे! शनि की वक्रदृष्ट एवं महा साढ़े साती से बचने के लिए नेताओं को एक-एक दिन में कम से कम पचास-साठ बार अपने वचनों को बदलने की पूरी ईमानदारी बरतनी होगी। तभी आने वाले चुनाव में उनकी जीत सुनिश्चत होगी! राहु की महादशा से बचने के लिये राष्ट्रीय स्वाभिमान को सदैव ताक पर रखने वाले कर्णधार ही स्थाई सरकार दे सकते हैं। संसद/ विधान सभा के अंदर, नेता, मंत्री भले ही एक दूसरे पर गुर्रायें पर विरोधी नेताओं के घर जाकर भरत मिलाप करना परम्परागत ढंग से जारी रखने का शुभ योग इस वर्ष भी बना रहेगा।

फिल्म जगत से जुड़ी हस्तियों की ओर मुखातिब होते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहना शुरू कर दिया कि फिल्मों में धाँसू इन्ट्री के लिए वस्त्र उघाडू, अति कम वस्त्रों वाली अभिनेत्रियों के लिए यह वर्ष उन्हें प्रथम श्रेणी (नम्बर वन) में ले आयेगा। फास्ट फूड की तरह प्रेमी बदलने वाली अभिनेत्रियों के लिए बॉलीवुड-हॉलीवुड में उनके लिए अड़तालीसों घण्टे (चौबीस घण्टे बोनस में छूट) खुले रहेंगे। विपाशा बसु, नगमा, सुष्मिता, रानी मुखर्जी, ऐश्वर्य राय की ओर इशारा करते हुए भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि जिस समय मैं आप लोगों को परदे पर देखता हूँ, तो हमारा सिर गर्व से हजारों-हजार फीट ऊँचा हो जाता है। कपड़ों की परवाह किये बिना आप अपना अभिनय जारी रखें भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह आवश्यक है! सैफ, गोविंदा बूढ़े अमिताभ, आमिर खान, शाहरुख खान, सनी देओल की ओर इशारा करते हुआ कहा कि आप लोगों का चन्द्रमा साथ नहीं दे रहा है। इसलिये आप लोगों को सलाह है कि कामयाब हीराइनों की गणेश परिक्रमा करते रहें। लगातार पिट (फिल्म से बाहर) रहे अभिनेताओं के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वह अच्छे अभिनय को वरीयता न देकर रोमांस की ओर अधिक ध्यान दें! मीडिया वालों की ओर इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि शनि की महादशा से बचने के लिए कैमरों की दिशा ही आप लोगों को पिछले वर्ष की तरह बदलनी पड़ेगी! सुपर फास्टातिफास्ट चैनलों के लिये प्रगति तब तक बनी रहेगी, जब तक कि आप अपने कैमरों को दूसरों के बेडरूम और बाथरूम की ओर अग्रसर करते रहेंगे। राहु की महादशा से बचने के लिये यह ज़रूरी हो जायेगा कि अच्छे चेहरे पहचाने नहीं जा सकेंगे, क्योंकि अच्छे चेहरे सदैव अच्छे नहीं होते।

प्रशासन एवं पुलिस की ओर मुताबित होते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि जो प्रशासक नीतियों, सिद्धान्तों और जनता का मूड ध्यान में रखकर काम करेगा, उसे राहु एवं सूर्य की वक्रदृष्ट को सहना होगा, अर्थात बना-बनाया कार्य बिगड़ जायेगा। चोरी करने वाले, ईमान, धर्म तथा नैतिकता का त्याग करने वाले अधिकारी ही प्रशासन में दक्ष एवं सफल माने जायेंगे। नजीर के लिये उत्तर प्रदेश की पुलिस भर्ती घोटाला इसका प्रमाण है। त्याग का अपना महत्त्व होता है, चाहे वह सत्य ही क्यों न हो! और सत्य के लिए बड़े से बड़ा त्याग तो करना ही पड़ता है। अर्थात नियम, कायदे, शालीनता को धो-पोंछकर अलग रखने वाले प्रशासकों को आने वाले वर्ष में प्रमोशन मिलने के पूरे-पूरे अवसर रहेंगे। पुलिस की परम्परागत निष्क्रियता से चोर उचक्कों का उद्योग दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहेगा और शरीफ को लुकने-छिपने का स्थान शिद्दत के साथ तलाश करने पड़ेंगे! पल में तोला, पल में माशा करने वाली पुलिस की छवि सुधारने के लिये सरकार उनकी वर्दी बदलने पर विचार कर सकती है। चन्द्र एवं मंगल की आपसी शत्रुता जारी रहने से सुधार के पुलिस में कम अवसर उपलब्ध हैं फिर भी सरकार पुलिस की छवि सुधारने के लिए फैशन डिजाइनरों की मदद ले सकती है। इससे तोंदिल पुलिसियों की सेहत रैंप पर उतरने से इस वर्ग को कई क्षेत्रें में वसूली के उचित स्कोप मिलने के अवसर खुले नज़र आयेंगे। शनि एवं सरकार की मार से बचने के लिये अधिकारियों को ऐसी दुलमुल वाली टेक्नो कलमें रखनी होंगी जो वही लिखें जो उनके आला अफसर चाहते हैं।

उद्योगपतियों की ओर इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि उद्योग जगत में फैन्टास्टिक इन्ट्री के लिये बिना पूँजी के लगाये अपहरण उद्योग नये साल में पिछले वर्ष की तरह फले-फूलेगा एवं इसके साथ ही विदेश में पूँजी निवेश करने वाले भारतीयों पर सूर्य एवं बृहस्पति की शुभ दशा रहने के कारण वे अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान को फुटबाल की गेंद की तरह प्रयोग करते रहेंगे। चूँकि इस क्षणभंगुर दुनिया में सब कुछ क्षणभंगुर है, इसलिये भुखमरी, गरीबी, अभाव, ओछी मानसिकता वाले व्यापारियों की पूँजी दिन दूना रात सौ गुना होने के चांस बने रहेंगे! शनि की साढ़े साती महादशा से बचने के लिए व्यापारी, दुकानदार, उपभोक्ताओं को सिकन्दर की तरह लूटकर वापस खाली हाथ जाने पर बाध्य करेंगे और बिहारी की नायिकाओं की तरह स्पेशल आपकेरों की मार वर्ष भर अपना कमाल करती रहेंगी। विदेश में बसे भारतीयों का स्टेटस सिम्बल तभी बरकरार रहने के आसार हो सकते हैं, जब वह अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान धर्म, ईमान, आत्मा को हाशए पर रखकर जोश खरोश से दूसरे देशों के प्रति निष्ठा में लगे रहेंगे, क्योंकि अपने देश की निष्ठा में कुछ नहीं है बल्कि विदेशी निष्ठा तो डालरों में रहती है। राहु की वक्रदृष्ट के कारण शेयर बाजार की भाँति आतंक, भय, बीमारियाँ (शारीरिक से ज्यादा मानसिक) उछाल मारती रहेंगी।

चन्द्रबदनी श्रीमतियों एवं सदाबहार श्रीमानों की ओर इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि अगले नये वर्ष में वही नयी नवेली पत्नी घर में सम्मान पाने का हक पायेगी, जो अँग्रेजी में सोलहों आने खरी कूटनीति अर्थात् फूटनीति को अपनी साड़ी के पल्लू में बाँधे रखेगी क्योंकि इससे पति को कब्जे में रखने में उसे परेशानी नहीं होगी! राहु, सूर्य की ओर एवं सूर्य, राहु की ओर अग्रसर होने के कारण दाम्पत्य जीवन में खींच-तान बैलगाड़ी रफ्तार में जारी रहेगी। राहु की महादशा होने के कारण व्यक्ति (पति) चाहे कितना पढ़ा-लिखा, सलीकेदार और चारित्रिक शुद्धता के प्रमाण पत्र वाला, कमाता, खाता-पीता ही क्यों न हो, किसी ऐरे-गैरे सड़क छाप सिगरेट से धुंधआते, प्रेमिका के पिता की ही रोटियों पर पलते बेराजगारी प्रेमी से मात खाता नज़र आयेगा। पतियों में राहु महाराज की छाया पड़ने के कारण आत्मबल की कमी पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी जारी रहेगी। कुछ पत्नियों के लिए चन्द्र की कृपा होने े कारण यह वर्ष प्रेमी (नायक) वाला एवं पति परमेश्वर (खलनायक) वाला होने के अवसर प्रदान करेगा। वैश्वीकरण एवं भूमण्डलीकरण के मार्ग को प्रशस्त करने वाले अपने सगे भाईयों की ओर (आतंकवादियों) इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि सच्चे अर्थों में आप ही विश्व का कल्याण कर रहे हैं! आप तो बस विमानों, संसदों, ताज होटल एवं व्हाइट हाउसों पर इसी तरह निशाना साधते रहिए, जरूरत पड़ने पर अणुबम-परमाणु बम को खिलौने की तरह इस्तेमाल करते रहिए, कोई माई का लाल संसार में नहीं है जो तुमसे टक्कर लेगा। शनि एवं राहु को खुश करने के लिए मेरे भाई मेरी एक बात गाँठ में बाँध लोगे तो तुम्हें कभी पराजय का मुँह नहीं देखना पड़ेगा वह यह कि जिस देश में रहो उसे अपना कभी मानो ही नहीं, जहाँ का खाओ उसी को बरबाद करो, जितने अधिक जहाँ भी तुम धमाके करोगे, उतनी अधिक सफलता आपके चरणों में चरण वंदन करती रहेगी। यही पथ आपके भविष्य का उज्ज्वल मार्ग प्रशस्त करेगा।

युवाओं (लड़के एवं लड़कियों) की ओर इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि जो युवा एक दूसरे से लवियाते हों उन्हें इस प्रकरण को टालते रहना होगा, क्योंकि मंगल का चंद्र से टकराव होने के कारण मेल सम्भव नहीं है। सिंह के प्रभावी होने से सूर्यमुखी होने वाली लड़कियों से प्रेमी सावधान रहेंगे साथ ही उन्हें अपनी जीवन साथिनी के पारिवारिक सदस्यों का भय बरकरार रहेगा। प्रेम करने वालों को नये वर्ष में कथकली न करना पड़े, इसलिये ऐसी लड़की को अपना साथी चुनें जो सदैव भरत नाट्यम की मुद्रा में रहे। वहीं प्रेम करने वाली लड़कियों को भी ध्यान रखना होगा कि उनका जीवन साथी पाकेट का कितना पक्का है! साथ ही उसके पास कम से कम बाइक के साथ-साथ लक्जरी मोबाइल फोन की सुविधा तो हो ही। पढ़ने वाली लड़कियों को ध्यान रखना होगा कि उनको चाहने वाला लड़का पढ़ाकू कम लड़ाकू अधिक होना चाहिए, इसके साथ ही यह भी महत्त्वपूर्ण बात हो कि क्रिमिनलों के बीच उसे पूछा जाता हो, क्योंकि नकल करते समय उसे असुविधा न हो। पुनः युवाओं की ओर इशारा करते हुए भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि तुम्हें देखते ही मुझे अपना बचपन याद आ जाता है और निराश होने की बात नहीं है, आगे आने वाला वर्ष मंगल ग्रह की प्रसन्नता के कारण पारिवारिक बंधन टूटेंगे और लड़कियों को लड़कों की भाँति रिश्ता रिजेक्ट करने का पूरा अधिकार प्राप्त होगा! यह वर्ष पिछले वर्ष की तरह पढ़ने वालों को पढ़ाई पर कम एवं नकल करने पर अधिक दिमाग लगाना होगा। छात्रें को अपनी जुगाड़ टेक्नोलोजी पर विशेष ध्यान रखना होगा, जिससे उनकी कापियों में नम्बर सही चढ़ सकें।

दुबले-पतले, सूखे होंठ वाले एवं मनसूहियत भरे चेहरों को देखते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि पिछले वर्ष की भाँति बृहस्पति नवम् खाने में रहने के कारण नियमित पढ़ाने वाले शिक्षक इसी तरह दीन-हीन अवस्था में बने रहेंगे! मेहनती, कर्मठ, ईमानदार और नियम कायदे, शालीनता से चलने वाले शिक्षकों का भविष्य केतु की सीधी टक्कर होने के कारण भविष्य अन्धकारमय बना रहेगा। वर्तमान साल में उन्हें कौड़ी के दाम भी लोग नहीं पूछेंगे। अधिक से अधिक कक्षा में न पढ़ाने वाले शिक्षक एवं कोचिंग को मुख्य वरीयता देने वालों की झोली भरी रहेगी। अपनी संस्था के प्रधान की चाटुकारिता एवं गणेश परिक्रमा करने वाले व्यक्ति ही भविष्य में प्रमोशन के पात्र होंगे।

बैट, बैडमिंटन, रैकेट फुटबालरों की ओर इशारा करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि मंगल और शनि में इस साल जबरदस्त टकराव रहने के कारण, टेनिस एवं क्रिकेट में उन्हीं सितारों का जलजला रहेगा जो अच्छा खेल-खेलने के बजाय मैच फिक्सिंग पर अपना ध्यान अधिक देंगे और कोच के कहने से सौदेबाजी में हाँ-हाँ करते रहेंगे। टेनिस खेलने वाले खिलाड़ियों के लिए चन्द्र की स्थिति ठीक होने के कारण खेल चाहे कितना ही खराब क्यों न हो पर उनकी स्कर्ट की लम्बाई कम से कम होने से दशर्कों की संख्या में इजाफा बना रहेगा।

फटाफट खिलाड़ियों की विजयी टीम (ट्वेन्टी-ट्वेन्टी) की ओर गम्भीरता से अवलोकर करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि मेरे लिटिल मास्टरों इस जीत को बरकरार रखने के लिये खेल पर कम ध्यान रहे एवं विज्ञापन पर अपने चेहरों को ज्यादा चमकाना होगा! यदि परदे पर चेहरे नहीं चमकेंगे तो नायिकायें आपको लिफ्ट नहीं मारेंगी। मंगल एवं बृहस्पति को मजबूत करने के लिये नवोदित खिलाड़ियों को बॉलीवुड की नायिकाओं पर ध्यान केन्द्रित करना होगा, क्योंकि ज़रूरी नहीं कि अगले टीम मैनेजमेन्ट में उनका खेलना जारी रहे, इसलिये टीम मैनेजमेन्ट से ज़रूरी है होम मैनेजमेन्ट।

साहित्यकारों एवं कवियों के चेहरों की ओर अवलोकन करते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि- राहु, शनि एवं मंगल की ग्रह दशा से उपेक्षित लेखकों की उपेक्षा पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष बनी रहेगी। छपास नामक संक्रमण बीमारी अपने विकराल रूप में इस वर्ष भी जारी रहेगी। हड्डी तोड़ मेहनती, आंख फोडू पढ़ाकुओं के प्रति शनि की वक्रदृष्ट बनी रहेगी, जिससे वे मारे-मारे फिरेंगे, इसके विपरीत सूर्य के नवम खाने में आने से कटियामार लेखकों (नकलचियों) का भविष्य निष्कंटक बने रहने की सम्भावना है। महान साहित्यकार बनने एवं साहित्यिक पुरस्कार झटकने के लिए कथाकारो को अपनी कथा में सुरेन्द्र मोहन, गुलशन नंदा, रानू, जेम्स हेडली, वीरेन्द्र यादव की रचनाओं को कोड करना होगा। बृहस्पति की नाराजगी मौलिक लेखक-लेखिकाओं को झेलनी पड़ सकती है! जे शुद्धता, नयापन, मौलिकता को अपना मानक मानते हैं। घरेलू लेखिकाओं के लिए अभी शनि महाराज की साढ़े साती बरकरार होगी। शनि की साढ़े साती को कम करने के लिये घरेलू कवयित्रियों/लेखिकाओं के लिए ‘बेलन, कलछीं दोनों एक साथ लेकर चलना शुभ पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष भी बना रहेगा। शनि को नियंत्र्ण में रखने के लिए, साथ ही स्त्री चेतना के लिये यह आवश्यक हो गया है कि (सरदार जी लोगों की तरह कमर में कटार) घरेलू लेखिकाओं की कमर में में एक छोटी कुल्हाड़ी ठुसी रहे। तभी सदियों से सदाबहार पतियों/लेखकों की उचित देखभाल हो सकेगी। प्रशासकों एवं वितरकों पर राहु-केतु की प्रसन्नता की वजह से यह साल तुंदियाने/मुटियाने वाला साबित होगा। वहीं लेखकों के लिए दुविलियाने/सीकियाने वाला होगा। गम्भीर एवं आलोचना प्रधान साहित्य छापने के स्थान पर लोकसमझ एवं मनोरंजन प्रधान साहित्य प्रकाशन करने वाले प्रकाशकों के लिए यह साल उन्हें बुलंदियों (नोटों पर) पर पहुँचा सकता है। मारकेस गृह की वक्रदृष्ट होने के कारण आलोचक/कवि लेखक मारे-मारे छुट्टा जानवरों की भाँति टहलते रहेंगे!

अन्त में बढ़ती भीड़ की हलचल को देखते हुए फाइव ज़ीरो भविष्यानन्द जी महाराज ने कहा कि मेरे प्रिय शिष्यो घबड़ाने की कोई बात नहीं है, बल्कि हार्दिक प्रसन्न होने की बात है कि हम तो अनादिकाल से लोगों का भविष्य देखते/वाँचते आये हैं, क्योंकि हमने जितना सुख सतयुग में देखा/भोगा है उसका कुछ ही अंश आज (कलियुग) के प्रारम्भिक युग में देखने को मिल रहा है। इसमें घबड़ाने की कोई बात नहीं है। हम अभी तो नीति, धर्म, सिद्धान्त, ईमानदारी, स्वाभिमान, आत्मा, नियम, कायदे, शालीनता की दुहाई देकर लोगों को शर्मिन्दा कर देते हैं यानी शब्दों में अभी बजन है। भविष्य में आने वाले वर्षों की ओर मैं जब देखता हूँ तो हमें हैरानी होती है, इसलिये आने वाले वर्षों के बारे में मैं अधिक बताता नहीं हूँ वह इसलिये कि आप सब में आशा का संचार बना रहे, आशा ही जीवन, विकास, मृत्यु है। नये साल का स्वागत करिये जो एक नयी आशा एवं विश्वास के साथ आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। दरवाजे पर जोर-जोर से आहट (थपथपाने की) हुई। आवाज आई प्रोफेसर साहब दस बज रहे हैं, अभी भी खुमारी है क्या? हम झट से बिस्तर से उठ बैठे! सामने देखा कि लालू पोस्टमैन भाई अपनी चिरपरिचित कपिल देव जी वाली मुस्कान में खड़े थे। हमने उनके द्वारा दी गयी ग्रीटिंग को हाथ में लेते हुए कहा कि नया वर्ष मंगलमय हो भईया; इसके साथ ही स्वप्न का ध्यान हमारे ज़ेहन से धीरे-धीरे गायब होता चला गया!


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