Wednesday, October 28, 2009

सेमिनार में हुआ स्मारिका का विमोचन

अखिल भारतीय सेमिनार
21 वीं सदी में भारत : दशा एवं दिशा
26 - 27 सितम्बर 2009
सेमिनार की स्मारिका का विमोचन करते हुए अतिथि

Sunday, July 12, 2009

कुमारेन्द्र सिंह सेंगर से वीरेन्द्र सिंह यादव की बातचीत : दलित साहित्यकारों को लामबंदी से बचना होगा


June 12, 2009
कुमारेन्द्र सिंह सेंगर से वीरेन्द्र सिंह यादव की बातचीत : दलित साहित्यकारों को लामबंदी से बचना होगा


युवा साहित्यकार एवं सामाजिक चिंतक डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर आलोचक के रूप में ख्यात अर्जित कर चुके हैं। आप साहित्य की समस्त विधाओं में समान रूप से सहजता के साथ कलम चलाने में महारथ हासिल कर चुके हैं। डॉ 0 कुमारेन्द्र के कहानी संग्रह के अतिरिक्त पाठ्यक्रम सम्बन्धी एवम् सामाजिक विषयों से सम्बन्धित अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। इण्टरनेट पर वेब पत्रिका शब्दकार एवम साहित्यिक पत्रिका स्पंदन (त्रैमासिक) का सम्पादन डॉ 0 कुमारेन्द्र जी बड़ी कुशलता के साथ कर रहे हैं। आप दलित चिंतन एवं परम्परा के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखते हैं। दलित साहित्य पर आपके मतभेद हो सकते हैं परन्तु मनभेद नहीं है हालांकि आप एकतरफा हो रहे दलित विमर्श (दलितों के द्वारा लिखित ही दलित साहित्य है) पर सहमत नही हैं। आपके द्वारा दिये गये कुछ उत्तरों पर दलित चिंतकों एवं विद्वत मनीषियों को आपत्ति हो सकती है परन्तु विमर्श का मतलब ही होता है ज्वलंत बहस ....

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव - डॉ 0 साहब आप वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दलित जागरण कितना महसूस करते हैं ? और क्यों ?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - जहाँ तक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दलित जागरण की बात है तो यह जागरण अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग रूप में हो रहा है। क्षेत्रगत आधार पर दलित जागरण की स्थिति अलग है। यदि साहित्य की बात करें तो साहित्य का वही अध्ययन कर रहा है जो शिक्षित है और जो दलित शिक्षित हैं अथवा शिक्षा ग्रहण कर रहा है वह तो जागरण की स्थिति में ही है। यही स्थिति कमोवेश अन्य क्षेत्रों में है। हाँ, यदि समाज की, सामाजिक स्तर की चर्चा करें तो अभी यहाँ जागरण की स्थिति में ऊहापोह की स्थिति है। पद, शक्तिधारी दलित जाग्रत हैं शेष अभी भी अपनी स्थितियों से दो चार हो रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जाये तो दलित जागरण की स्थिति उतनी सुखद नहीं है जितनी दिखाई जा रही है।

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव - हिन्दी साहित्य में आप दलित चिंतन/लेखन को कब से मानते हैं ?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - हिन्दी साहित्य में दलित चिन्तन/लेखन की परम्परा की शुरूआत की बात से पूर्व यह समझना जरूरी है कि यहाँ किस दलित चिन्तन/लेखन की बात की जा रही है। दलितों द्वारा लिखे हुये साहित्य की अथवा गैर-दलितों द्वारा लिखे गये साहित्य की बात। दलित चिन्तन अथवा लेखन की सारी स्थिति एक बिन्दु पर आकर ठहर जाती है कि दलित लेखन किसका स्वीकारा जाये। यदि गैर-दलितों द्वारा लिखी रचनाओं में दलितों की समस्याओं, परेशानियों को सामने लाने को दलित चिन्तन/लेखन का हिस्सा माना जाता है तो भारतीय हिन्दी साहित्य में यह चिन्तन पुराना है। अब यदि वर्तमान परिदृश्य में दलित-चिंतन की चर्चा की जाये तो दलित लेखकों द्वारा काफी पहले से भी और काफी बाद में भी अलग-अलग रूपों में साहित्य सर्जना की गई। मराठी भाषा में तो एक पत्रिका ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन डॉ 0 अम्बेडकर द्वारा सन् 1927 में किया जा रहा था और इससे भी लगभग 13-14 वर्ष पूर्व इसी नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन दलित नेता गणेश अक्का गवई ने सन् 1914 में अमरावती से प्रारम्भ किया था। दलित चिन्तन/लेखन काल का निर्धारण करने के लिये पहले दलित साहित्य का निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - डॉ 0 भीमराव अम्बेडकर ने एक स्थान पर लिखा है कि यदि गुलाम को गुलाम होने का अहसास दिला दीजिये तो वह इसके प्रतिरोध में भड़क उठेगा ? क्या दलित साहित्य भी दलितों में उनके दलित होने का अहसास दिला रहा है ? इस मत से आप कहाँ तक सहमत हैं। स्पष्ट कीजिये ?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - देखिए डॉ 0 साहब, अम्बेडकर जी ने कब किस रूप में गुलाम को गुलामी का अहसास कराने की बात की और कैसे की पता नहीं पर इस बात को परिस्थितिगत रूप में समझा जाये तो वास्तविकता कुछ और ही है। यदि एक गुलाम दूसरे गुलाम को गुलामी का एहसास करायेगा तो प्रतिरोध होगा। एक दबे कुचले को, दबा कुचला व्यक्ति ही उसकी स्थिति का आभास करायेगा तो वह भड़केगा। इसके ठीक उलट यदि किसी गुलाम को उसका मालिक गुलामी का एहसास करायेगा तो वह अपना प्रतिरोध किस पर दिखायेगा? शोषण करने वाला यदि शोषित से उसकी स्थिति का आभास कराता रहे तो शोषित का प्रतिरोध किस पर भड़केगा? यदि गुलाम अथवा शोषित प्रतिरोध की स्थिति में होता तो उसका शोषण ही क्यों होता? यह बात तो सामान्य सी है कि जिसका शोषण हो रहा होता है वह प्रतिरोध की स्थिति में नहीं होता है, हाँ उसका प्रतिरोध क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में अपने परिवार, पत्नी, बच्चों, जानवरों आदि पर ही निकलता है।

आपके प्रश्न के दूसरे भाग की चर्चा की जाये कि क्या दलित साहित्य भी दलितों में उनके दलित होने का अहसास दिला रहा है, यह विरोधाभासी बयान सा लगता है। आप ही सोचिये कि दलित-साहित्य से पूर्व दलितों में दलित होने का अहसास नहीं था? सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने में दलित साहित्य की संकल्पना के पूर्व भी दलित को दलित का अहसास था। दलित साहित्य की स्थिति अपने आप में विकट है। आज कोई दलित यदि दलित की चर्चा करता है, लिखता है तो वही दलित साहित्य है और यदि मैं कुछ कहूँ तो वह दलित साहित्य नहीं है।

देखिये दलित साहित्य से दलितों को दलित होने का अहसास हो रहा है या नहीं यह बाद का सवाल है, पहले यह निर्धारण हो कि दलित साहित्य क्या और किसके लिये? मेरे स्वयं के मतानुसार किसी जाति-वर्ग-धर्म को उसका अहसास कराने के लिये उसी के साहित्य की आवश्यकता नहीं है। दलितों को उनके दलित होने का अहसास है, दलित साहित्य इसे समाज में और भी गहराई से स्थापित कर रहा है। यदि यहाँ बात सिर्फ दलित होने के एहसास की हो तो दलित साहित्य से अधिक दलित होने का अहसास दलित साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों ने करवाया है। यहाँ विस्तार की आवश्यकता नहीं है स्थितियाँ आपके, हमारे सभी के सामने स्पष्ट हैं।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - समाज की सामाजिक व्यवस्था के तहत कुछ लोग आरक्षण का विरोध करते हैं? परन्तु कुछ एक जगह उनका पूरा वर्चस्व है (जैसे मंदिरों में पुजारी के पद पर एक ही जाति ब्राह्मणों का अधिकार है)? इस वाक्य की सहमति या असहमति में आप अपने विचार व्यक्त कीजिये?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - इस प्रश्न पर सहमति/असहमति का सवाल नहीं उठता है। मंदिर में पुजारी की स्थिति और समाज में आरक्षण की स्थिति दो अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं। वर्तमान में जिस आरक्षण व्यवस्था का विरोध हो रहा है इस आरक्षण से कितने दलितों का भला हो सका है। मंदिर के पुजारी की चर्चा से पहले आज समाज को जिस स्थिति की जरूरत है उसकी चर्चा जरूरी है। आप स्वयं देखिये जिस क्षेत्र में आरक्षण है क्या वहाँ वास्तविक रूप में दलितों को लाभ प्राप्त हुआ है ? शिक्षा में आरक्षण का मैं भी पक्षधर हूँ पर जिस प्रकार से अच्छी मेरिट के बाद भी सामान्य वर्ग का विद्यार्थी बाहर रह जाता है और अत्यधिक कम मेरिट पाने के बाद भी आरक्षित वर्ग को प्रवेश मिलता है, यह गलत है। इस व्यवस्था से आप किस समाज की स्थापना कर रहे हैं।

देखिये आगे आने के अवसर, बढ़ने न देना जैसे सवालों से ही दलित समाज का भला नहीं हो पा रहा है। आप ही बताए डॉ0 अम्बेडकर क्या किसी दलित साहित्य के सहारे, दलित विमर्श के सहारे अथवा आरक्षण के सहारे इतना ज्ञानार्जन कर सके थे? तब आज क्यों इस आरक्षण पर इतना बवाल होता है? आज तो परिस्थितियाँ भी उतनी प्रतिकूल नहीं है जितनी अम्बेडकर के समय में थीं। रही बात मंदिर में पुजारी पद के आसीन/आरक्षण की तो यह वो पद है जो किसी जमाने में कार्य-व्यवस्था से उत्पन्न था न कि जन्म व्यवस्था से। बाद में इसी वर्ग ने अपना एकाधिकार सा स्थापित कर इसको ब्राह्मणों के लिये ही स्थापित कर लिया। फिर भी मंदिर और समाज दो अलग स्थितियाँ हैं। ब्राह्मण दलितों से बचता है, दलित मंदिरों, पूजा-अर्चना से तो दलितों को ब्राह्मण, पुजारी, मंदिर जैसे मुद्दों पर गम्भीर नहीं होना चाहिये। सामाजिक स्थिति में आरक्षण का लाभ लेकर स्वयं कैसे बढ़ा जाये यह सोचना चाहिये, आरक्षण के लाभ से स्वयं के विकास की बात सोचनी चाहिये न कि इसका लाभ औरों में स्थानान्तरित करवा देना चाहिये, जैसा कि आजकल राजनीति में हो रहा है। स्थितियाँ आप समझ सकते हैं।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - कुछ आलोचकों का मानना है कि दलित साहित्य से भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को खतरा है? आपकी दृष्टि में यह कितना सत्य है? भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में दलितों के स्थान को रेखांकित कीजिये?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - मैं इस बात से पूरी तरह असहमत हूँ कि दलित साहित्य से भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को खतरा है। पहली बात कि भारतीय संस्कृति कोई ऐसा सामान नहीं है कि जिसे कोई भी आकर नष्ट कर जाये। यह इस देश की करोड़ों-करोड़ वर्ष की पहचान है जो दिन-प्रतिदिन और भी सशक्त होती जाती है। दूसरी बात, दलित साहित्य है क्या ? मेरी अपनी दृष्टि अपने विचार में एक वर्ग विशेष के कुछ विशेष लोगों का अपना मंच है जो एक दूसरे वर्ग को गाली देने का काम कर रहा है।

यहाँ मैं आपके पूर्व में पूछे गये एक सवाल की ओर आपका ध्यान खीचूंगा जहाँ आपने गुलाम को गुलामी का अहसास दिलाने पर प्रतिरोध की बात पूछी थी। दलित साहित्य के द्वारा दलित साहित्यकार यही काम कर रहे हैं। एक साहित्यकार अपनी व्यथा, अपना शोषण लिखता है, दिखाता है तो उसके प्रतिरोधात्मक रूप में दूसरा दलित साहित्यकार अपने साहित्य में सवर्णों को, ठाकुरों को ब्राह्मणों को गरियाता दिखता है, उनकी मारपीट, हत्या करता दिखता है, सवर्णों की महिलाओं से अवैध सम्बन्धों को दिखाता है ..... क्या वाकई समाज में ऐसा हो रहा है ? या यह दलित साहित्यकारों की अपनी खोपड़ी की उपज है ? इसी बिन्दु के परिदृश्य में आप स्वयं निर्णय लीजियेगा कि यदि दलित साहित्य की तरह ही सवर्ण साहित्य का प्रारम्भ हो जाये और उसमें दलितों के शोषण, गाली-गलौज, मारपीट, दलित महिलाओं के यौन शोषण के वीभत्स चित्र दिखाये जानें लगें तो खतरा किसे होगा, भारतीय संस्कृति/परम्परा को अथवा समाज को ?

यह दलित चिन्तन नहीं है, दलित विमर्श नहीं है, दलित साहित्य नहीं है। यह उनकी प्रतिशोध की भावना है जो दलित साहित्य का नाम लेकर सामने आ रही है। इससे संस्कृति को भले खतरा हो या न हो पर समाज को साहित्य को अवश्य ही नुकसान है।

दलितों के स्थान का आपका प्रश्न स्थितिगत हैं। कमोबेश ऐसी स्थिति प्रत्येक गरीब-शोषित वर्ग के साथ है। उच्च पदस्थ दलित आज सम्मानित हैं तो इसलिये नहीं कि दलित जागरण हुआ है बल्कि ऐसा इसलिये क्योंकि उनके पास पद प्रतिष्ठा है। गरीब, अनपढ़, दलित आज भी उपेक्षित हैं। यह उपेक्षा यदि सवर्ण से है तो उसे दलितों से भी मिल रही है। मेरे पास ऐसे एक-दो नहीं दसियों उदाहरण हैं जो दलितों का स्थान उनकी पद-प्रतिष्ठा के आधार पर निर्धारित करते हैं। उपेक्षा की स्थिति गरीब सवर्णों के साथ भी है। यदि आपने रोजमर्रा के क्रियाकलापों को गौर से देखा हो तो सम्पन्न व्यक्ति किसी भी जाति-धर्म का हो मजदूर वर्ग के व्यक्ति से भेदभाव भरा बर्ताव करता है। दलित मजदूर को वह पानी पिलायेगा तो दूर से और सवर्ण मजदूर को पास से पर बगल में किसी को नहीं बैठायेगा।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - कुछ प्रगतिशील लेखकों/विद्वानों की दृष्टि से भारत में जाति-पांति खत्म हो रही है ? और दलित साहित्य के लेखक केवल प्रचार पाने के लिये शोषण एवं अत्याचार की मनगढ़ंत बातें करते रहते है ? आपकी दृष्टि में यह कहाँ तक उचित है?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - यह कहना तो नितान्त गलत है कि देश से जाति-पांति खतम हो गई है अथवा खतम हो रही है। जो लोग यह कह रहे हैं कि ऐसा हो रहा है वो समाज को बरगलाने के और कुछ नहीं कर रहा है। मैं यह तो नहीं बता सकता कि आगे क्या होता, जाति-पांति खतम होती या नहीं, कुछ कम तो होती ही पर अब ऐसा लगता है कि यह समाप्त होने वाली नहीं। ऐसा मैं बिना किसी आधार के नहीं कह रहा हूँ। आप किसी दलित को कोरी, चमार जैसे शब्दों से सम्बोधित करिये तो कहो आपके ऊपर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने पर केस दर्ज हो जाये पर चुनावों के समय देखिये तमाम जातियाँ बैनरों, पोस्टरों पर सुशोभित होने लगती हैं। जाति विशेष के आधार पर टिकट देने की स्थितियां निर्धारित होती हैं तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि जाति-पांति समाप्त हो रही है।

अब यही स्थिति साहित्य को लेकर देखी जाये तो जब तक दलित-सवर्ण का एहसास लेखन के सहारे जगाये रखा जायेगा तब तक जातियों के समाप्त होने का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। रही बात प्रगतिशील लेखकों/विद्वानों की तो इस वर्ग में वे लोग हैं जो हमेशा किसी न किसी व्यवस्था का विरोध करते नजर आते हैं। इनकी प्रगतिशीलता हिन्दुओं को गाली देने और गैर-हिन्दुओं को सम्मान देने में सामने आती है। इनकी प्रगतिशीलता स्वयं के जातिसूचक शब्दों से आरम्भ होती है और स्वयं पर ही समाप्त होती है।

जहाँ तक शोषण-अत्याचार का सवाल है, जो आपने उठाया है इसमें कमी तो आई है पर दलितों का, गरीब सवर्णों का शोषण अभी भी हो रहा है। हाँ, यदि इसे पूर्वाग्रह से मुक्त रखा जाये तो दलित साहित्य की बढ़ती लाभबन्दी से शोषण (दलितों पर) बढ़ा ही होगा, कम होने का तो सवाल ही नहीं।

डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव - ईश्वर को मानने वालों की दृष्टि में सब समान हैं तब फिर ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक क्षत्रिय का नाम बल युक्त तथा वैश्य का नाम धन सूचक शब्द से युक्त रखा गया। फिर शूद्र का नाम घृणित शब्दों में क्यों रखा जाता है ? बात यहीं समाप्त नहीं होती समाज के सभ्य कहे जाने वाले लोग जब आपस में लड़ते या बहस करते हैं तो जातिसूचक (चोर, चमार, भंगी) गाली देकर अपनी भड़ास निकालते हैं? आज भी इस भारतीय व्यवस्था में दलित हाशिए पर हैं? उत्पीड़न के इस समाजशास्त्र पर आप कहाँ तक सहमत हैं? अपने मत व्यक्त कीजिए?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - भारतीय समाज में दलित वर्ग को सेवा करने वाला स्वीकारा जाने लगा है। यदि वर्ण व्यवस्था के रूप में देखे तो शूद्र को सेवक के रूप में जाना गया था। समाज-शास्त्रीय रूप में जैसे-जैसे ‘वर्ण’ कर्म के आधार पर नहीं जन्म के आधार पर निर्मित होने लगे तो उनके घृणित कार्यों के आधार पर उनका नामकरण होने लगा। जहाँ तक लड़ाई झगड़े के मध्य दो लोगो के गाली-गलौज में जाति सूचक शब्दों का प्रयोग उसको नीचा दिखाने के लिए किया जा रहा है न कि सम्मानित करने के लिए, ऐसे में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की जातियों का सम्बोधन न होकर घृणित कार्यों वाली जातियों का प्रयोग होता है। इसके विपरीत आप किसी चमार को चमार, भंगी को भंगी, मेहतर को मेहतर कह के देखिए पता चल जायेगा कि जाति सूचक शब्द क्या है? यही सामाजिक स्थिति है।

अब यदि कहा जाये कि दलितों का उत्पीड़न नहीं हो रहा है तो गलत होगा पर यदि कहा जाये कि सिर्फ दलितों का ही उत्पीड़न हो रहा है तो यह भी गलत होगा। हाँ, यहाँ एक बात आपके गालियों वाले सवाल पर, वो ये कि लड़ाई में आपने देखा होगा कि लोग जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने के अतिरिक्त माँ-बहिन की गालियों का भी प्रयोग करते हैं। मनुष्य की यह प्रकृति है कि वह किसी भी रूप में दूसरे को नीचा दिखाना चाहता है, चाहे शूद्र वर्ग की गाली देकर, चाहे माँ-बहिन की गाली देकर।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - दलित उत्पीड़न के पीछे मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि क्या है? भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसे कैसे समाप्त किया जा सकता है?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - आपका यह सवाल कालखण्ड के अनुसार अलग-अलग जवाब देता रहेगा। आज से सौ साल पहले की बात करें तो दलित उत्पीड़न का मनोविज्ञान अलग था। एक हजार साल पूर्व की बात करें तो मनोविज्ञान अलग था। जो लोग मानते हों और जो न मानते हों तब भी यदि ‘राम’ के समय की बात करें तो मनोविज्ञान अलग था, जब मनु-स्मृति की रचना की गई तब दलित-उत्पीड़न का मनोविज्ञान अलग था।

आज हो यह रहा है कि दलित चिन्तक हों अथवा गैर-दलित-चिन्तक, राजनीतिज्ञ हों या समाज सेवक सभी दलित-उत्पीड़न की व्याख्या कर रहे हैं, उसके मनोविज्ञान को तलाश कर समाधान खोज रहे हैं पर वर्तमान से आँखें मूँद कर। ऐसे तो बस चर्चा होंगीं, बहस होंगीं, गोष्ठियाँ होंगी, चुनाव होंगे, सत्ता परिवर्तन होंगे पर दलित जागरण अथवा सुधार नहीं होगा। पहले स्वयं का मनोविज्ञान सुधारना होगा।

आप ही बताइए यदि दलित समाज राम को रामायण को काल्पनिक मानता है तो फिर ‘शम्बूक वध’ को वास्तविक क्यों मानता है। यह भी सवर्ण साहित्य मानकर उसी तरह स्वीकारा जाये जैसे दलित साहित्य में आज कोई दलित, सवर्ण की हत्या कर समाज परिवर्तन की बात करता है। काल्पनिकता में वास्तविकता को समझाना कौन सा मनोविज्ञान है ? इसी तरह ‘मनुस्मृति’ में क्या-क्या लिखा यह बीती बातें हैं, दलितों की समस्याओं का हल वर्तमान परिदृश्य में न निकालकर मनुस्मृति काल से निकाला जायेगा तो इसे कौन सा मनोविज्ञान कहा जायेगा?

आज समस्या वेद-पुराण पढ़ने पर कान में पिघला सीसा या मुँह में गरम लोहा घुसा देने की नहीं है, आज समस्या छुआछूत, गरीबी, बेकारी की है। दलित उत्पीड़न से पूर्व उत्पीड़न का मनोविज्ञान समझना होगा। किसी भी व्यक्ति का उत्पीड़न क्यों होता है, यह जानना होगा। अपने आसपास देखिये सम्पन्न दलित वर्ग अपने यहाँ काम करने वाले दलित का ही शोषण कर रहा है। इसे दलित साहित्यकार अथवा चिन्तक अथवा किसी दलित नेता को बताया जाये तो वह इसे भी सवर्ण की साजिश बताकर कुतर्क करेगा। आज इसी मनोविज्ञान को समझना होगा।

बहुत छोटे रूप में देखा जाये तो समूचे समाज में उत्पीड़न के पीछे आधिपत्य का मनोविज्ञान कार्य करता है। एक वर्ग का दूसरे पर, एक जाति का दूसरी पर, एक व्यक्ति का दूसरे पर प्रभुत्व बनाये रखने की चाह में उत्पीड़न होता है। इसे आप ऐसे समझिये कि यदि एक समूचा गाँव क्षत्रियों का है तो क्या वहाँ उत्पीड़न नहीं है ? एक पूरा समूह यदि शूद्रों का, दलितों का है तो क्या वे एक जैसे सामाजिक स्थिति के बाद भी एक दूसरे का उत्पीड़न नहीं करते ? देखिये इसे नकारा नहीं जा सकता है, अपनी शक्ति, अपनी सत्ता, अपना आधिपत्य स्थापित करने की होड़ ही उत्पीड़न को जन्म देती है। यह चाहे सवर्ण-सवर्ण में हो, दलित-दलित में हो अथवा सवर्ण-दलित में हो।

समाप्ति की बात तो, हास्यास्पद लगती है क्योंकि मनुष्य कभी अपनी प्रवृत्ति को तो बदलेगा नहीं। शक्ति प्रदर्शन, सत्ता प्राप्ति, धनार्जन किसी न किसी रूप में वह करता रहेगा और उत्पीड़न होता रहेगा। कल्पना कीजिये कल को समूचा दलित समाज सवर्ण समाज की तरह शक्तिशाली, सामाजिक प्रस्थिति वाला, वैभव सम्पन्न, सत्ता सम्पन्न हो जाये तो क्या उत्पीड़न थम जायेगा ? नहीं, न ..... उत्पीड़न भी समाज की एक गति है जो समाज निर्माण से चली आ रही है और समाज ध्वंस तक चलती रहेगी। हम, आप या कोई भी यह कहे कि यह अहिंसा, प्रेम, भाईचारा, त्याग आदि से समाप्त हो जायेगा तो सिवाय अपने को धोखा देने के कुछ भी नहीं कर रहा है। मनुष्य द्वारा मनुष्य की बात तो आप छोड़िये डॉ

0 साहब, मनुष्य तो जानवरों तक का उत्पीड़न करने का मौका नहीं चूकता, तब आप इसके समाप्त होने की उम्मीद कैसे कर रहे हैं? हाँ हो सकता है सवर्णों द्वारा दलितों का शोषण बन्द हो जाये पर सवर्णों का, दलितों का शोषण होना बन्द नहीं होगा, अब शोषण भले ही करने वाला कोई भी हो।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - दलित साहित्य को साहित्य में आप किस दृष्टि से देखते हैं? दलित साहित्य के सामाजिक सरोकार क्या हैं?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - दलित साहित्य को लेकर जहाँ तक मेरी अपनी दृष्टि का सवाल है तो साहित्य के लिये अथवा समाज के लिये यह शुभ संकेत नहीं है। दलितों द्वारा, दलितों की शोषण की स्थिति को दर्शा कर उसका समाधान निकालना यदि दलित साहित्य का उद्देश्य होता तो अच्छा था, पर ऐसा तो हो नहीं रहा है। दलित साहित्य के द्वारा दलित साहित्यकार अपना अथवा दलितों का भोगा सत्य सामने ला रहे हैं, साथ ही प्रतिशोधात्मक रूप में सवर्णों को गरिया रहे हैं। क्या इस तरह से साहित्य का या स्पष्ट रूप से कहें तो खुद दलितों का भला होगा ? जो लोग दलित साहित्य को क्रांतिकारी, चेतनाशील, जाग्रति लाने वाला बता रहे हैं वे स्वयं इस बात को खोजते फिर रहे हैं कि उनका साहित्य पढ़ कितने लोग रहे हैं ?

यदि सामाजिक सरोकारों की बात करें तो ऐसे साहित्य से सकारात्मक उम्मीद नहीं की जा सकती जो विद्वेष की भावना से लिखा जा रहा हो। इस तरह का साहित्य अपने शेष, आक्रोश की अभिव्यक्ति का साधन तो बन सकता है पर सामाजिक सरोकारों पर खरा नहीं उतरता है। यह साहित्य न तो किसी प्रकार के मानक निर्मित कर रहा है, न किसी आदर्श की स्थापना कर रहा है तो फिर सामाजिक सरोकारों को कैसे स्थापित करेगा ? देखा जाये तो इसी तर्ज पर सवर्ण साहित्य की रचना की जाने लगे और उसमें दलितों के शोषण को, उन पर अत्याचार को दर्शाया जाता रहे तो इस प्रकार साहित्य में वही वर्ग-विभेद तैयार होगा जो समाज में बना है। मूल्यों की स्थापना, आदर्शों की स्थापना, समाज विकास की संकल्पना, समाज हित का निर्धारण आदि की पूर्ति जहाँ न हो सके, जिससे न हो सके उस साहित्य से सामाजिक सरोकारों की आशा कदापि नहीं करनी चाहिये।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - आपकी दृष्टि में सहानुभूति, समानुभूति एवं स्वानुभूति का लेखन क्या है? दलित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में इस पर आप अपने विचार व्यक्त कीजिये।

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - मेरी राय में स्वानुभूति, समानुभूति, सहानुभूति दलित साहित्यकारों द्वारा बनायी गई व्यवस्था हैं। इस व्यवस्था का रूप उसी तरह लगता है जैसे कि भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था का रूप था। कर्म जैसा होगा वैसा ही वर्ण होगा पर धीरे-धीरे सब बदल गया। आप बताइये स्वानुभूति-समानुभूति की बारीक रेखा को पहचानने वाला दलित ही दलित साहित्य रचेगा। चूंकि ये सारे शब्द दलित साहित्य के इर्द-गिर्द ही परिभाषित किये जा रहे हैं इस कारण इनका अर्थ भी सीमित होकर रह गया है।

स्वानुभूति-समानुभूति-सहानुभूति को भोगी पीड़ा से उपजा मानकर दलित साहित्य निर्माण की बात करी जा रही है। यहाँ एक सवाल मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि भोगी गई पीड़ा को दर्शाता साहित्य दलित साहित्य है तो क्या शोषित सवर्ण के स्वानुभूतिपरक लेखन को आप दलित-साहित्य का हिस्सा मानेंगे? दलित साहित्यकार यहीं आकर कुतर्क करते हैं। यदि दलित साहित्य से तात्पर्य भोगी गई पीड़ा वालों का, शोषितों का साहित्य है तो शोषित सवर्ण भी है, पीड़ा सवर्ण भी भोग रहे हैं, पर उनके लेखन को दलित साहित्यकार दलित साहित्य की सीमा में नहीं मानते। आप शैलेश मटियानी का उदाहरण ले सकते हैं जिनका जीवन किसी भी रूप में किसी शूद्र से कम पीड़ादायक नहीं रहा पर उनका साहित्य तो दलित साहित्य की श्रेणी में नहीं आता। दूसरी ओर यदि दलित साहित्य जातिगत रूप से दलित घोषित व्यक्तियों का साहित्य है तो स्वानुभूति-समानुभूति- सहानुभूति जैसे शब्दों की चोचलेबाजी का कोई अर्थ नहीं है। सीधी सी बात है वही साहित्य दलित साहित्य होगा जो दलित वर्ग द्वारा लिखा जायेगा।

हो सकता है कि तमाम सारे दलित साहित्यकारों को मेरी बातें हजम न हों, मुझ पर दलित विरोधी होने का ठप्पा लग जाये पर साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण यह अवश्य कहना चाहूँगा कि यह सब साहित्य हित में नहीं है। जो दलित साहित्यकार अथवा सम्पन्न दलित वर्ग चाहे वे राजनेता हों, नौकरी पेशा हों, चाहें व्यापारी हों, सभी आज अपना पीड़ादायक सत्य लिखकर दलित साहित्य का निर्माण कर रहे हैं पर उनकी आने वाली पीढ़ियाँ जो पीड़ा को मात्र किताबों में देख रही होंगी उसका लिखा साहित्य दलित साहित्य होगा या नहीं ? क्योंकि यहाँ भी सहानुभूति-समानुभूति-स्वानुभूति का शब्द जाल मौजूद रहेगा। इसके अलावा इसी से जुड़ी एक और बात, वो ये कि दलितों के मसीहा गौतम बुद्ध ने भी ‘सहानुभूति’ की स्थिति को देखा था। वे न तो दलित थे और न ही पीड़ा भोग रहे थे तब वे दलितों के उद्वारक कैसे मान लिये गये।

वैसे डॉ0 साहब पूरा दलित साहित्य तर्कों, कुतर्कों, बहसों पर निर्भर करता है, हम अपनी बात कहेंगे, आप आपसी, दलित साहित्यकार अपनी कहेगा, अपनी ही सुनेगा तो फिर स्वानुभूति- समानुभूति-सहानुभूति का कोई मतलब नहीं रह जाता। यदि दलित साहित्य किसी जाति विशेष का साहित्य है तो यह साहित्य कहाँ रह गया?

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - कुछ विद्वान आलोचकों का मानना है कि जब साहित्य में कमलेश्वर, डॉ 0 मैनेजर पाण्डेय, डॉ 0 महीप सिंह, डॉ 0 बजरंग तिवारी, डॉ 0 राजेन्द्र यादव जैसे धुरंधर गैर दलित लेखक अपनी रचनाओं के द्वारा दलित समाज के बारे में श्रेष्ठ सृजन कर रहे हैं? ऐसे में दलितों को कमजोर रचनाएं (शिल्प विधान) नहीं देनी चाहिए? इस मत से आप कहाँ तक सहमत हैं?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - आप किस रचना को श्रेष्ठ कहेंगे और किसे निम्न ? साहित्य में रचनाओं की श्रेष्ठता के मापन का पैमाना साहित्य के स्वयंभू ठेकेदारों ने ही बना रखा है। आपने अभी जिन धुरंधर साहित्यकारों के नाम लिये वे स्वयं अपनी रचनाओं को पढ़ लें तो उसकी श्रेष्ठता खुद-ब-खुद साबित हो जायेगी। रचनाओं की श्रेष्ठता आज रचनाकार के नाम पर निर्भर करती है। आलोचक आज खेमेबंदी कर लेखक को प्रसिद्धि दिला रहे हैं। यदि आपके पास वर्ग है, आलोचकों का झुण्ड है तो आप कुछ भी लिखें वो श्रेष्ठ है। दलित साहित्यकारों को तो पहले ही इन कथित साहित्यकारों ने दबा रखा था ऊपर से दलित साहित्यकारों की अपनी लामबन्दी ने उन्हें खुद हाशिये पर खड़ा कर दिया।

आप बतायें, वीरेन्द्र जी, आपका लिखा कोई पढ़े और पसंद करे तो आलोचक को यह अधिकार किसने दिया कि वह उसका पोस्टमार्टम करे। मैं तो किसी भी आलोचक को अधिकार नहीं देता कि मेरी रचना को जाँचने की हिमाकत करे। अरे! मेरे पाठक हैं, वो पढ़ रहे हैं, मजा ले रहे हैं, प्रसन्न हैं बस रचना श्रेष्ठ हैं आज कितने लोग हैं जो इन स्थापित लेखकों की कृतियां पढ़ते हैं? यह साहित्य जगत की विडम्बना ही कही जायेगी कि जिन्हें लिखने का ज्ञान नहीं, जिनका कोई पाठक वर्ग नहीं लोग आलोचक बने बैठे हैं। लाइब्रेरी की शेल्फ में सज जाना, अमीरों की किताबों के बीच अपनी पुस्तक खपा लेना, किसी कृति पर फिल्म का, सीरियल का निर्माण करवा लेना ही सफलता है तो आपके बताये धुरंधर वाकई धुरंधर हैं, वर्ना रचनाओं में गहराई तो एक नये लेखक में भी होती है।

यह कहना कि हम श्रेष्ठ का निर्माण कर रहे हैं और आप निम्नहीन का निर्माण कर रहे हैं तो निर्माण बन्द कर दें कहाँ की साहित्यिकता है? हाँ, यदि ये श्रेष्ठ साहित्य सर्जक यदि अमर घुट्टी पीकर आये हों कि ताउम्र अच्छा लेखन करते रहेंगे तो वाकई कमजोर रचना करने वालों को रचनायें नहीं करनी चाहिये क्योंकि इन धुरंधर लेखकों की अमरता साहित्य को श्रेष्ठ रचनायें प्रदान करती रहेगी।

डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - डॉ 0 साहब आपके जहन में ऐसे कौन से कारक हैं जो आपको सृजन की ओर आकर्षित करते हैं। नये रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - इस प्रश्न का उत्तर यदि बिना किसी लाग लपेट के दिया जाये तो वह होगा नाम कमाने की आकांक्षा। यह आपको अजीब लग रहा होगा पर सत्यता यही है कि सभी का लेखन कार्य नाम प्राप्ति, यश प्राप्ति के लिये ही होता है न कि समाज अथवा साहित्य हित में। स्वान्तः सुखाय वाली स्थिति वाले दो चार लोग होंगे, मैं यह नहीं कहता कि ऐसे लोग नहीं है पर वे सामने कहाँ हैं ? खैर ..... जहाँ तक कारकों की बात है तो कुछ मुद्दे, कुछ घटनायें ऐसी होती हैं जो मन को भीतर तक उद्वेलित कर जाती हैं। इसी आवेग में कभी कविता, कभी कहानी तो कभी लेख की रचना हो जाती है, फिर भी यह सत्य है कि अधिकांश लेखन तो प्रकाशन के लिये होने लगा है, मैं भी कहीं न कहीं इसी तरह के लेखन का शिकार हूँ।

हाँ एक बात जो मैंने महसूस की है कि गम्भीरता उसी लेखन में आती है जिसके भाव भीतर से अपने आप उठते हैं। नये रचनाकारों में अब प्रयोगधर्मिता दिखाई दे रही है। नये-नये शिल्पविधान, नये-नये प्रतीकों, नये विषयों से साहित्य का भण्डार तो बढ़ रहा है पर उसमें से आत्मा मर चुकी है। नये रचनाकार अब पढ़ने की ओर ध्यान नहीं देते हैं और चाहते हैं कि लेखन प्रेमचन्द, निराला, प्रसाद, पन्त जैसा हो जाये। नये रचनाकार स्थापित लेखकों वास्तविक साहित्यकारों को अधिक से अधिक पढ़ें, गंभीर विषयों का अध्ययन करें ताकि लेखन में उथलापन अथवा हलकापन न आये। दूसरी बात यह कि इधर-उधर से सामग्री की नकल कर लेखन तो किया जा सकता है पर अच्छा साहित्य नहीं रचा जा सकता, तो नकल की प्रवृत्ति से नये रचनाकार बचें। अपने विचारों को, भावों को जाग्रत करें। तीसरी बात नये रचनाकार प्रत्येक विषय में कलम चलाने के अहं से बचें। सभी विषयों में पारंगत नहीं हुआ जा सकता, वे अपनी सीमा पहचानें, अपना क्षेत्र पहचानें और उसी पर अधिकारपूर्वक कलम चलायें। एक बात और ज्यादा से ज्यादा प्रयास सीखने का हो क्योंकि लगातार सीखने वाला कभी भी असफल नहीं हो सकता। नये रचनाकारों पर ही साहित्य का भविष्य टिका है। उनके लेखन की उज्ज्वलता साहित्य को भी उज्ज्वल बनायेगी।



इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 14:51 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!

विषय: आलेख


3 टिप्पणियाँ.:
Science Bloggers Association said...
यह बात उन सभी लोगों पर लागू होती है, जो जीवन में आगे बढना चाहते हैं।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

4:31 PM
AlbelaKhatri.com said...
khooooooooooooooooooooooob lambi lekin umda varta......badhaai !

4:41 PM
काजल कुमार Kajal Kumar said...
लामबंदी से बचा जा सकता है ?
लामबंदी हम भारतियों की रग-रग में रची बसी हुई है.

8:39

सहस्‍त्राब्‍दी का पर्यावरण आकलन (संयुक्‍तराष्‍ट्र की पर्यावरण सम्‍बन्‍धी विशेष रिपोर्ट)


June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन


सहस्‍त्राब्‍दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्‍तराष्‍ट्र की पर्यावरण सम्‍बन्‍धी विशेष रिपोर्ट)

-डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव
(युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फ़ेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)

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पर्यावरण की वर्तमान समस्‍या को देखते हुए आज सम्‍पूर्ण विश्‍व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्‍य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्‍पष्‍ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्‍टि, बिजली और अक्‍सर सूखे की स्‍थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्‍य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्‍यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्‍योंकि ताजिकिस्‍तान, उजबेकिस्‍तान, कजाकिस्‍तान, किर्गिस्‍तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्‍तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्‍थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्‍यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्‍च शक्‍ति के हथियार इस्‍तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्‍व के अन्‍य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्‍चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्‍टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्‍हीं समस्‍याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद्‌ काफी समय से संघर्षरत थे।

संयुक्‍त राष्‍ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्‍चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्‍तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्‍य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्‍तित्‍व के प्रति चिन्‍तित होने का आगाह किया है। सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्‍पष्‍ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्‍न-भिन्‍न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्‍वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्‍हें फिर से इस्‍तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्‍कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्‍थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्‍त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्‍जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्‍यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्‍पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्‍यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्‍तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्‍तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्‍तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्‍तेमाल ज्‍यादा है और प्राप्‍ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्‍दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।

सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्‍थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्‍सा प्रदूषित हो गया है। इस स्‍थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्‍तित्‍व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्‍लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्‍य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्‍जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्‍सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्‍त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्‍तविकता यह है कि हमारी पृथ्‍वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्‍य खतरे में पड़ गया है। इस अध्‍ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्‍तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्‍यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।

सहस्‍त्राब्‍दी के इस पर्यावरण अध्‍ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन्‌ 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्‍त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्‍य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्‍ड) जीव जन्‍तुओं और जलीय वनस्‍पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्‍ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्‍टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्‍ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्‍टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्‍ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्‍यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्‍थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्‍तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।

वनों के विनाश पर प्रस्‍तुत सहस्‍त्राब्‍दी अध्‍ययन रिपोर्ट में चिन्‍ता व्‍यक्‍त की गयी है, इसमें स्‍पष्‍ट कहा गया है कि ‘सन्‌ 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्‍योंकि इससे वनों से होने वाले उत्‍पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्‍यौता देकर स्‍वास्‍थ्‍य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्‍त में इंग्‍लैण्‍ड और वेल्‍स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्‍तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन्‌ 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्‍यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्‍ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्‍ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्‍कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्‍सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्‍पाद 100 अरब डालर ज्‍यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र ने माना है कि सन्‌ 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्‍य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्‍या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्‍यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्‍या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।

भारतीय परिप्रेक्ष्‍य की सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्‍व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्‍ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्‍व सभी से ज्‍यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्‍या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्‍तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्‍कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्‍न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्‍विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्‍चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्‍यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्‍कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्‌दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्‍तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्‍व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्‍यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्‍भीरता से समझना होगा।

निष्‍कर्ष रूप में संयुक्‍त राष्‍ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्‍य और विभिन्‍न परिकल्‍पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्‍तियों के आधार पर सहस्‍त्राब्‍दी आकलन रिपोर्ट में निम्‍न चार स्‍थितियों पर विस्‍तार दिखाई देता है - हस्‍तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार

- एक वैश्‍विक समाज बनेगा जो विश्‍व व्‍यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्‍याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्‍विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्‍थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्‍यादा होगा। उम्‍मीद है कि इस स्‍थिति में 2050 तक जनसंख्‍या सबसे कम होगी।

- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्‍द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्‍थानीय संस्‍थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्‍यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्‍या का सवाल है सन्‌ 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।

- इस परिदृश्‍य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्‍याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्‍मक रूप से ज्‍यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्‍या मध्‍यम स्‍थिति में रहे।

- इस परिदृश्‍य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्‍वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्‍यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्‍याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्‍या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्‍य में आर्थिक विकास और घटेगा।

भावी वैश्‍विक परिदृश्‍य की ये परिकल्‍पनाएं महज अटकल या भविष्‍यवाणी नहीं हैं बल्‍कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्‍तियों के विकास के धुंधले दृश्‍य हैं। इन्‍हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्‍य का नक्‍शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्‍यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्‍यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्‍मीद है कि पहले परिदृश्‍य में व्‍यापार बाधाएं समाप्‍त हो जाएंगी, सब्‍सिडी खत्‍म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्‍म करने पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्‍य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्‍पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्‍यता और ज्ञान का प्रवाह संस्‍थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्‍य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्‍पादन बढ़ेगा, विकल्‍प बढ़ेंगे और हानिकारक व्‍यापार में कमी आएगी।

वैश्‍विक तापमान को कम करने का वैश्‍विक प्रयास ः क्‍योटो प्रोटोकॉल

वैश्‍विक गरमाहट की समस्‍या पृथ्‍वी के समक्ष एक आसन्‍न संकट है जिससे समग्र जैव समष्‍टि का भविष्‍य जुड़ा हुआ है क्‍योंकि हमारी पृथ्‍वी का तापमान निरन्‍तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्‍पूर्ण विश्‍व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्‍वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्‍साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्‍लोरो फ्‍लोरो, नाइट्रस आक्‍साइड तथा सल्‍फर-डाई-आक्‍साइड हैं। वायुमण्‍डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्‍प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्‍तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्‍भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्‍न हो जायेंगे।

हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्‍वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्‍वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्‍साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन्‌ 1930 में इसकी सान्‍द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्‍त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्‍य तक ब्‍व्‍2 की सान्‍द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्‍य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्‍तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्‍लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्‍न हो जाएंगे। रेगिस्‍तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्‍ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्‍योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्‍टि के लिए घातक होगी।

जलवायु परिवर्तन की समस्‍या जो कि एक वैश्‍विक चुनौती है, का हल भी वैश्‍विक स्‍तर पर आवश्‍यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्‍सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्‍त रूप से विभिन्‍न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्‍सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्‍योटो प्रोटोकॉल। क्‍योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्‍तित्‍व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्‍तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्‍विक स्‍तर पर ‘ग्‍लोबल वार्मिंग' की समस्‍या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्‍तित्‍व में नहीं आया बल्‍कि कई सम्‍मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्‍वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्‍बन्‍धित महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्‍यक है -

क्‍योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्‍बन्‍धित महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलन एवं तिथियाँ -

- विश्‍व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्‍ता 1992 में पृथ्‍वी सम्‍मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्‍ठी आयोजित की गयी जिसमें सन्‌ 2000 तक कार्बन-डाई-आक्‍साइड को 1990 के स्‍तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्‍तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्‍तु यह सम्‍मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के प्रयास नहीं किये।

- UNFCCC ‍ द्वारा प्रस्‍तावित समझौते को कानूनी बाध्‍यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्‍मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ‍ ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्‍तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।

- 1997 में 165 देशों ने क्‍योटो प्रोटोकॉल (क्‍योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्‍य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्‍तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्‍वीकार नहीं किया)।

- सन्‌ 2000 में हेग में क्‍योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्‍मेलन बुलाया गया परन्‍तु किसी अन्‍तिम निष्‍कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्‍मेलन असफल रहा।

- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्‍मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।

- नवम्‍बर 2001 में 160 देशों ने क्‍योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्‍य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्‍वीकार किया।

- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्‍तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्‍य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।

- अभी हाल ही में 11 सितम्‍बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्‍ड में सम्‍मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्‍यक्‍त की गयी कि क्‍योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्‍त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्‍सर्जन के बारे में क्‍या किया जायेगा। ।ैम्‍ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्‍भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।

विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्‍योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं किये। परन्‍तु यह समझौता भविष्‍य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।

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सम्‍पर्क ः वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता ः हिन्‍दी विभाग दयानन्‍द वैदिक स्‍नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत


इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!

विषय: आलेख


June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन


सहस्‍त्राब्‍दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्‍तराष्‍ट्र की पर्यावरण सम्‍बन्‍धी विशेष रिपोर्ट)

-डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव
(युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फ़ेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)

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पर्यावरण की वर्तमान समस्‍या को देखते हुए आज सम्‍पूर्ण विश्‍व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्‍य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्‍पष्‍ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्‍टि, बिजली और अक्‍सर सूखे की स्‍थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्‍य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्‍यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्‍योंकि ताजिकिस्‍तान, उजबेकिस्‍तान, कजाकिस्‍तान, किर्गिस्‍तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्‍तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्‍थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्‍यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्‍च शक्‍ति के हथियार इस्‍तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्‍व के अन्‍य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्‍चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्‍टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्‍हीं समस्‍याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद्‌ काफी समय से संघर्षरत थे।

संयुक्‍त राष्‍ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्‍चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्‍तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्‍य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्‍तित्‍व के प्रति चिन्‍तित होने का आगाह किया है। सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्‍पष्‍ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्‍न-भिन्‍न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्‍वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्‍हें फिर से इस्‍तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्‍कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्‍थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्‍त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्‍जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्‍यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्‍पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्‍यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्‍तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्‍तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्‍तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्‍तेमाल ज्‍यादा है और प्राप्‍ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्‍दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।

सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्‍थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्‍सा प्रदूषित हो गया है। इस स्‍थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्‍तित्‍व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्‍लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्‍य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्‍जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्‍सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्‍त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्‍तविकता यह है कि हमारी पृथ्‍वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्‍य खतरे में पड़ गया है। इस अध्‍ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्‍तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्‍यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।

सहस्‍त्राब्‍दी के इस पर्यावरण अध्‍ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन्‌ 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्‍त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्‍य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्‍ड) जीव जन्‍तुओं और जलीय वनस्‍पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्‍ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्‍टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्‍ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्‍टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्‍ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्‍यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्‍थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्‍तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।

वनों के विनाश पर प्रस्‍तुत सहस्‍त्राब्‍दी अध्‍ययन रिपोर्ट में चिन्‍ता व्‍यक्‍त की गयी है, इसमें स्‍पष्‍ट कहा गया है कि ‘सन्‌ 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्‍योंकि इससे वनों से होने वाले उत्‍पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्‍यौता देकर स्‍वास्‍थ्‍य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्‍त में इंग्‍लैण्‍ड और वेल्‍स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्‍तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन्‌ 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्‍यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्‍ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्‍ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्‍कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्‍सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्‍पाद 100 अरब डालर ज्‍यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र ने माना है कि सन्‌ 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्‍य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्‍या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्‍यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्‍या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।

भारतीय परिप्रेक्ष्‍य की सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्‍व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्‍ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्‍व सभी से ज्‍यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्‍या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्‍तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्‍कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्‍न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्‍विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्‍चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्‍यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्‍कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्‌दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्‍तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्‍व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्‍यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्‍भीरता से समझना होगा।

निष्‍कर्ष रूप में संयुक्‍त राष्‍ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्‍य और विभिन्‍न परिकल्‍पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्‍तियों के आधार पर सहस्‍त्राब्‍दी आकलन रिपोर्ट में निम्‍न चार स्‍थितियों पर विस्‍तार दिखाई देता है - हस्‍तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार

- एक वैश्‍विक समाज बनेगा जो विश्‍व व्‍यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्‍याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्‍विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्‍थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्‍यादा होगा। उम्‍मीद है कि इस स्‍थिति में 2050 तक जनसंख्‍या सबसे कम होगी।

- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्‍द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्‍थानीय संस्‍थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्‍यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्‍या का सवाल है सन्‌ 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।

- इस परिदृश्‍य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्‍याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्‍मक रूप से ज्‍यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्‍या मध्‍यम स्‍थिति में रहे।

- इस परिदृश्‍य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्‍वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्‍यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्‍याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्‍या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्‍य में आर्थिक विकास और घटेगा।

भावी वैश्‍विक परिदृश्‍य की ये परिकल्‍पनाएं महज अटकल या भविष्‍यवाणी नहीं हैं बल्‍कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्‍तियों के विकास के धुंधले दृश्‍य हैं। इन्‍हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्‍य का नक्‍शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्‍यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्‍यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्‍मीद है कि पहले परिदृश्‍य में व्‍यापार बाधाएं समाप्‍त हो जाएंगी, सब्‍सिडी खत्‍म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्‍म करने पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्‍य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्‍पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्‍यता और ज्ञान का प्रवाह संस्‍थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्‍य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्‍पादन बढ़ेगा, विकल्‍प बढ़ेंगे और हानिकारक व्‍यापार में कमी आएगी।

वैश्‍विक तापमान को कम करने का वैश्‍विक प्रयास ः क्‍योटो प्रोटोकॉल

वैश्‍विक गरमाहट की समस्‍या पृथ्‍वी के समक्ष एक आसन्‍न संकट है जिससे समग्र जैव समष्‍टि का भविष्‍य जुड़ा हुआ है क्‍योंकि हमारी पृथ्‍वी का तापमान निरन्‍तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्‍पूर्ण विश्‍व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्‍वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्‍साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्‍लोरो फ्‍लोरो, नाइट्रस आक्‍साइड तथा सल्‍फर-डाई-आक्‍साइड हैं। वायुमण्‍डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्‍प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्‍तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्‍भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्‍न हो जायेंगे।

हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्‍वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्‍वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्‍साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन्‌ 1930 में इसकी सान्‍द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्‍त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्‍य तक ब्‍व्‍2 की सान्‍द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्‍य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्‍तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्‍लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्‍न हो जाएंगे। रेगिस्‍तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्‍ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्‍योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्‍टि के लिए घातक होगी।

जलवायु परिवर्तन की समस्‍या जो कि एक वैश्‍विक चुनौती है, का हल भी वैश्‍विक स्‍तर पर आवश्‍यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्‍सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्‍त रूप से विभिन्‍न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्‍सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्‍योटो प्रोटोकॉल। क्‍योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्‍तित्‍व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्‍तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्‍विक स्‍तर पर ‘ग्‍लोबल वार्मिंग' की समस्‍या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्‍तित्‍व में नहीं आया बल्‍कि कई सम्‍मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्‍वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्‍बन्‍धित महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्‍यक है -

क्‍योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्‍बन्‍धित महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलन एवं तिथियाँ -

- विश्‍व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्‍ता 1992 में पृथ्‍वी सम्‍मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्‍ठी आयोजित की गयी जिसमें सन्‌ 2000 तक कार्बन-डाई-आक्‍साइड को 1990 के स्‍तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्‍तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्‍तु यह सम्‍मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के प्रयास नहीं किये।

- UNFCCC ‍ द्वारा प्रस्‍तावित समझौते को कानूनी बाध्‍यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्‍मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ‍ ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्‍तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।

- 1997 में 165 देशों ने क्‍योटो प्रोटोकॉल (क्‍योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्‍य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्‍तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्‍वीकार नहीं किया)।

- सन्‌ 2000 में हेग में क्‍योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्‍मेलन बुलाया गया परन्‍तु किसी अन्‍तिम निष्‍कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्‍मेलन असफल रहा।

- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्‍मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।

- नवम्‍बर 2001 में 160 देशों ने क्‍योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्‍य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्‍वीकार किया।

- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्‍तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्‍य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।

- अभी हाल ही में 11 सितम्‍बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्‍ड में सम्‍मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्‍यक्‍त की गयी कि क्‍योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्‍त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्‍सर्जन के बारे में क्‍या किया जायेगा। ।ैम्‍ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्‍भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।

विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्‍योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं किये। परन्‍तु यह समझौता भविष्‍य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।

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सम्‍पर्क ः वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता ः हिन्‍दी विभाग दयानन्‍द वैदिक स्‍नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत


इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!

विषय: आलेख


June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन


सहस्‍त्राब्‍दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्‍तराष्‍ट्र की पर्यावरण सम्‍बन्‍धी विशेष रिपोर्ट)

-डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव
(युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फ़ेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)

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पर्यावरण की वर्तमान समस्‍या को देखते हुए आज सम्‍पूर्ण विश्‍व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्‍य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्‍पष्‍ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्‍टि, बिजली और अक्‍सर सूखे की स्‍थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्‍य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्‍यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्‍योंकि ताजिकिस्‍तान, उजबेकिस्‍तान, कजाकिस्‍तान, किर्गिस्‍तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्‍तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्‍थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्‍यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्‍च शक्‍ति के हथियार इस्‍तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्‍व के अन्‍य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्‍चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्‍टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्‍हीं समस्‍याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद्‌ काफी समय से संघर्षरत थे।

संयुक्‍त राष्‍ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्‍चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्‍तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्‍य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्‍तित्‍व के प्रति चिन्‍तित होने का आगाह किया है। सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्‍पष्‍ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्‍न-भिन्‍न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्‍वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्‍हें फिर से इस्‍तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्‍कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्‍थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्‍त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्‍जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्‍यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्‍पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्‍यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्‍तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्‍तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्‍तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्‍तेमाल ज्‍यादा है और प्राप्‍ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्‍दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।

सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्‍थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्‍सा प्रदूषित हो गया है। इस स्‍थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्‍तित्‍व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्‍लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्‍य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्‍जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्‍सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्‍त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्‍तविकता यह है कि हमारी पृथ्‍वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्‍य खतरे में पड़ गया है। इस अध्‍ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्‍तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्‍यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।

सहस्‍त्राब्‍दी के इस पर्यावरण अध्‍ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन्‌ 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्‍त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्‍य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्‍ड) जीव जन्‍तुओं और जलीय वनस्‍पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्‍ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्‍टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्‍ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्‍टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्‍ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्‍यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्‍थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्‍तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।

वनों के विनाश पर प्रस्‍तुत सहस्‍त्राब्‍दी अध्‍ययन रिपोर्ट में चिन्‍ता व्‍यक्‍त की गयी है, इसमें स्‍पष्‍ट कहा गया है कि ‘सन्‌ 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्‍टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्‍योंकि इससे वनों से होने वाले उत्‍पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्‍यौता देकर स्‍वास्‍थ्‍य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्‍त में इंग्‍लैण्‍ड और वेल्‍स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्‍तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन्‌ 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्‍यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्‍ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्‍ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्‍कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्‍सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्‍पाद 100 अरब डालर ज्‍यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्‍त राष्‍ट्र ने माना है कि सन्‌ 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्‍य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्‍या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्‍यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्‍या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।

भारतीय परिप्रेक्ष्‍य की सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्‍व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्‍ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्‍व सभी से ज्‍यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्‍या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्‍तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्‍कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्‍न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्‍विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्‍चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्‍यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्‍कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्‌दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्‍तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्‍व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्‍यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्‍भीरता से समझना होगा।

निष्‍कर्ष रूप में संयुक्‍त राष्‍ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्‍त्राब्‍दी पारिस्‍थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्‍य और विभिन्‍न परिकल्‍पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्‍तियों के आधार पर सहस्‍त्राब्‍दी आकलन रिपोर्ट में निम्‍न चार स्‍थितियों पर विस्‍तार दिखाई देता है - हस्‍तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार

- एक वैश्‍विक समाज बनेगा जो विश्‍व व्‍यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्‍याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्‍विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्‍थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्‍यादा होगा। उम्‍मीद है कि इस स्‍थिति में 2050 तक जनसंख्‍या सबसे कम होगी।

- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्‍द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्‍थानीय संस्‍थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्‍यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्‍या का सवाल है सन्‌ 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।

- इस परिदृश्‍य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्‍याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्‍मक रूप से ज्‍यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्‍या मध्‍यम स्‍थिति में रहे।

- इस परिदृश्‍य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्‍वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्‍यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्‍याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्‍या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्‍य में आर्थिक विकास और घटेगा।

भावी वैश्‍विक परिदृश्‍य की ये परिकल्‍पनाएं महज अटकल या भविष्‍यवाणी नहीं हैं बल्‍कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्‍तियों के विकास के धुंधले दृश्‍य हैं। इन्‍हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्‍य का नक्‍शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्‍यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्‍यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्‍मीद है कि पहले परिदृश्‍य में व्‍यापार बाधाएं समाप्‍त हो जाएंगी, सब्‍सिडी खत्‍म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्‍म करने पर विशेष ध्‍यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्‍य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्‍पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्‍यता और ज्ञान का प्रवाह संस्‍थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्‍य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्‍पादन बढ़ेगा, विकल्‍प बढ़ेंगे और हानिकारक व्‍यापार में कमी आएगी।

वैश्‍विक तापमान को कम करने का वैश्‍विक प्रयास ः क्‍योटो प्रोटोकॉल

वैश्‍विक गरमाहट की समस्‍या पृथ्‍वी के समक्ष एक आसन्‍न संकट है जिससे समग्र जैव समष्‍टि का भविष्‍य जुड़ा हुआ है क्‍योंकि हमारी पृथ्‍वी का तापमान निरन्‍तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्‍पूर्ण विश्‍व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्‍वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्‍पन्‍न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्‍साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्‍लोरो फ्‍लोरो, नाइट्रस आक्‍साइड तथा सल्‍फर-डाई-आक्‍साइड हैं। वायुमण्‍डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्‍प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्‍तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्‍भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्‍न हो जायेंगे।

हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्‍वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्‍वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्‍साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन्‌ 1930 में इसकी सान्‍द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्‍त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्‍य तक ब्‍व्‍2 की सान्‍द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्‍य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्‍तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्‍लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्‍न हो जाएंगे। रेगिस्‍तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्‍ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्‍योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्‍टि के लिए घातक होगी।

जलवायु परिवर्तन की समस्‍या जो कि एक वैश्‍विक चुनौती है, का हल भी वैश्‍विक स्‍तर पर आवश्‍यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्‍सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्‍सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्‍त रूप से विभिन्‍न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्‍सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्‍योटो प्रोटोकॉल। क्‍योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्‍तित्‍व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्‍तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्‍विक स्‍तर पर ‘ग्‍लोबल वार्मिंग' की समस्‍या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्‍तित्‍व में नहीं आया बल्‍कि कई सम्‍मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्‍वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्‍बन्‍धित महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्‍यक है -

क्‍योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्‍बन्‍धित महत्‍वपूर्ण सम्‍मेलन एवं तिथियाँ -

- विश्‍व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्‍ता 1992 में पृथ्‍वी सम्‍मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्‍ठी आयोजित की गयी जिसमें सन्‌ 2000 तक कार्बन-डाई-आक्‍साइड को 1990 के स्‍तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्‍तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्‍तु यह सम्‍मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने के प्रयास नहीं किये।

- UNFCCC ‍ द्वारा प्रस्‍तावित समझौते को कानूनी बाध्‍यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्‍मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ‍ ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्‍तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।

- 1997 में 165 देशों ने क्‍योटो प्रोटोकॉल (क्‍योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्‍य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्‍तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्‍वीकार नहीं किया)।

- सन्‌ 2000 में हेग में क्‍योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्‍मेलन बुलाया गया परन्‍तु किसी अन्‍तिम निष्‍कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्‍मेलन असफल रहा।

- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्‍मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।

- नवम्‍बर 2001 में 160 देशों ने क्‍योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्‍य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्‍वीकार किया।

- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्‍तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्‍य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।

- अभी हाल ही में 11 सितम्‍बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्‍ड में सम्‍मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्‍यक्‍त की गयी कि क्‍योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्‍त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्‍सर्जन के बारे में क्‍या किया जायेगा। ।ैम्‍ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्‍भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।

विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्‍योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्‍ताक्षर नहीं किये। परन्‍तु यह समझौता भविष्‍य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।

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सम्‍पर्क ः वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता ः हिन्‍दी विभाग दयानन्‍द वैदिक स्‍नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत


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विषय: आलेख

शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा


June 30, 2009
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा




शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा

डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव



किसी भी सम्‍प्रदाय के विकास में शिक्षा की अहम भूमिका होती है क्‍योंकि शिक्षा व्‍यक्‍ति को सुसंस्‍कृत एवं सभ्‍य बनाकर एक सुन्‍दर, मनोहर आदर्श समाज का सृजन करती है। सच्‍ची शिक्षा व्‍यक्‍ति को निर्माण की प्रक्रिया की ओर प्रेरित कर उसमें व्‍यवहार के परिष्‍कार, दृष्‍टिकोण को तो विकसित करती ही है साथ ही व्‍यक्‍ति के चरित्र का निर्माण और व्‍यवहार का निरूपण भी करती है। शिक्षा संविधान, प्रतिष्‍ठान, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र के आदर्श मूल्‍यों की प्राप्‍ति में मार्ग दर्शन कर सहायता करती है। अर्थात्‌ बौद्धिक सम्‍पन्‍नता एवं राष्‍ट्रीय आत्‍म निर्भरता की जड़ शिक्षा है। शिक्षा वास्‍तविक मायनों में प्रवृत्‍ति और आन्‍तरिक शोध की प्रक्रिया में प्रत्‍यक्ष सुधार उत्‍पन्‍न करती है। शिक्षा मानव को अधिक तार्किक और उदार बनाती है और पढ़ा लिखा व्‍यक्‍ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति संकुचित दृष्‍टिकोण नहीं रखता। यदि व्‍यक्‍ति या समुदाय को उचित ढ़ंग से शिक्षित किया जाये तो प्रत्‍येक नागरिक एकता की क्षमता को विकसित करता है जिसका परिणाम एक शक्‍तिशाली राष्‍ट्र के रूप में सामने आता है। वास्‍तविकता यह है कि व्‍यक्‍ति और किसी भी समुदाय के चतुर्मुखी विकास के लिए शिक्षा एक अति महत्‍वपूर्ण घटक के रूप में कार्य करती है।

दुनिया का सबसे शक्‍तिशाली लोकतंत्र अपनी अनेक ख़ामियों के बावजूद विश्‍व में सदैव आकर्षण का केन्‍द्र रहा है, क्‍योंकि इसने (भारत) समाज के हाशिए पर पड़े समूहों समेत विभिन्‍न वर्गों वाली शक्‍तियों को जीवंत/संजीदा और मजबूत किया है। अंतर-लोकतंत्रीकरण (समाज में समान दर्जे की अनुभूति) एवं लोकतंत्रीकरण (सामाजिक और श्‍ौक्षिक स्थिति में सुधार) की इस प्रकिया ने दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं में नयी जान डाल दी है परन्‍तु इस प्रक्रिया नें भारतीय मुसलमानों को खास प्रभावित नहीं किया है क्‍योंकि मुस्‍लिम समुदाय के अंदर जितनी व्‍यापक सामाजिक और श्‍ौक्षिक सुधार की पहल होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है। भारतीय संविधान पर दृष्‍टि डालें तो यह धर्म-निरपेक्षता की स्‍पष्‍ट घोषणा करता है। अर्थात्‌ ऐसा राष्‍ट्र जिसका अपना कोई मजहब नहीं होता और वह किसी समुदाय के साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। भारतीय संविधान का अनुच्‍छेद 25 प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को लोक व्‍यवस्‍था एवं स्‍वास्‍थ्‍य तथा नैतिकता के अधीन रहते हुए केवल ऐसा धर्म ग्रहण करने की स्‍वतंत्रता नहीं देता, बल्‍कि अपने विचारों का प्रचार व प्रसार करने के लिए अपने विश्‍वास को ऐसे बाहरी कार्यों में भी प्रदर्शित करने की स्‍वतंत्रता देता है। जैसा कि वह व्‍यक्‍ति उचित समझता है साथ ही उसके निर्णय एवं अन्‍तःकरण द्वारा अनुमोदित हो। धर्म की स्‍वतंत्रता पर राज्‍य द्वारा कतिपय पाबन्‍दी लगाने की व्‍यवस्‍था भी संविधान में है। भारतीय संविधान का अनुच्‍छेद-30 अल्‍पसंख्‍यक वर्गों को अपनी पसंद की श्‍ौक्षिक संस्‍थानों को स्‍थापित करने और प्रबन्‍ध करने का अधिकार देता है। यहाँ अल्‍पसंख्‍यक से तात्‍पर्य मुस्‍लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई तथा फारसी समुदायों से है।

भारतीय मुसलमान शिक्षा में देश के अन्‍य समूहों से बहुत पीछे हैं यह एक स्‍थापित सत्‍य है। और इसके पीछे मुसलमानों का पिछड़ापन बताया जाता है यहाँ यक्ष प्रश्‍न यह है कि मुस्‍लिम समुदाय का आर्थिक रूप से पिछड़ापन होना, उनके श्‍ौक्षिक पिछड़े पन के लिए जिम्‍मेदार है या यूं कहा जाये कि शिक्षा में पीछे होने के कारण ही ये आर्थिक व सामाजिक रूप से पीछे रह जाते हैं। कुल मिलाकर मुस्‍लिम समुदाय की स्थिति भारत में श्‍ौक्षिक स्‍तर पर दयनीय है। मुस्‍लिम समुदाय की इस दशा को रेखांकित करने के लिए हमें कुछ वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। देखा जाये तो वास्‍तव में देश विभाजन एवं देश की स्‍वाधीनता हमें दोनों एक साथ प्राप्‍त हुई। जहाँ एक ओर हम देश की स्‍वतंत्रता से प्रफुल्‍लित थे वहीं दूसरी तरफ हम देश के विभाजन से दुःखी भी थे। विश्‍ोषकर जिसमें मुस्‍लिम समुदाय को साम्‍प्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ा। जिनके पास जो सम्‍पत्‍ति थी उसे या तो उनको वहीं छोड़ना पड़ा था और ऐसी स्थिति में पाकिस्‍तान भी जाना पड़ा। अर्थात्‌ अधिकतर मुस्‍लिम समुदाय के लोगों को शरणार्थी के रूप में यहाँ रहना पड़ा। स्‍वतंत्रता पश्‍चात मुसलमानों का लखनऊ में मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहल पर एक अधिवेशन हुआ इसके द्वारा तय किया गया कि मुसलमान अपना कोई स्‍वतंत्र राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे और इसमें उन्‍हें काफी हद तक सफलता भी मिली, लेकिन मुस्‍लिम समुदाय की यह समस्‍या बनी रही कि भारतीय राष्‍ट्रीयता से जुड़ जाने के बाद भी साम्‍प्रदायिक दंगो से परेशान रहे, मुस्‍लिम समुदाय की वह पीढ़ी, जो भारत में 1947 के आसपास पैदा हुई थी, छठवें दशक तक आते-आते युवा हो गयी तब भी ये राजनीति की धारा में अलग-थलग बनें रहे। प्रारम्‍भ में कांग्रेस का दामन थामने पर इस समुदाय की बहुत ठोस जगह मुकम्‍मल नहीं हो पायी। पाकिस्‍तान के साथ बढ़ती शत्रुता और युद्धों ने साम्‍प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। कांग्रेस के पास मुद्दों का अभाव होने की वजह से उसने अपने वोट बैंक खिसकने की वजह से धर्म का सहारा लिया। वामपंथी एवं किसान, संगठन की मूलधारा से न जुड़ने से साम्‍प्रदायिकता को बल मिला। फलतः मुस्‍लिम समुदाय में जो सामाजिक, सांस्‍कृतिक, श्‍ौक्षिक विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया और इसके परिणाम स्‍वरूप धर्मांध मुस्‍लिम नेताओं की एक नयी जमात तैयार हो गयी, क्‍योंकि जहाँ हिन्‍दुओं की शक्‍तियां एक होकर संस्‍थायें बना रही थीं (विश्‍व हिन्‍दू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना, भाजपा), वहीं मुस्‍लिम समुदाय के भी धार्मिक संगठन बनाये जा रहे थे। साम्प्रदायिक घृणा की यह दीवार दिनों-दिन बढ़ती गयी फलतः श्‍ौक्षिक विकास जो इस वर्ग में होना चाहिए वह नहीं हो पाया। हालाँकि इसके लिए कुछ मुस्‍लिम भाई भारतीय समाज को दोषी ठहराते हैं कि हिन्‍दू समाज मुस्‍लिम समुदाय की अपेक्षा अधिक कट्टर है। परन्‍तु भारत एवं विश्‍व सहित अनेक शोध रिपोर्टों से यह साबित होता है कि ‘भारतीय समाज किसी भी देश के समाज से अधिक उन्‍नत समाज है इसलिए आप एक पिछड़े समाज की तुलना किसी उन्‍नत समाज से नहीं कर सकते और यह नहीं कह सकते कि पिछड़े समाज के मूल्‍य उन्‍नत समाज पर थोप दिये जायें।' लोगों के मस्‍तिष्‍क में चाहे जो पूर्वाग्रह हों परन्‍तु स्‍वतंत्रता के पश्‍चात भारत में मुस्‍लिम समुदाय को बहुत सी ऐसी स्‍वतंत्रताएं हासिल हैं। जो अन्‍य मुस्‍लिम देशों में उन्‍हें कहीं नहीं मिलती हैं। धर्मनिरपेक्ष, व्‍यवस्‍था चाहे कितनी ही दोषपूर्ण, लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था चाहे जितनी ही गैर प्रतिनिधिक हो, भारत के मुस्‍लिम समुदाय को जो खास सहूलियतें मिली हुई हैं, वे बहुत से मुसलमानों ,यहाँ तक कि इस्‍लामी राष्ट्रों को भी हासिल नहीं हैं, उदाहरण के लिए अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता, संगठन और राजनैतिक प्रक्रिया में हिस्‍सेदारी की स्‍वतंत्रता। हालांकि ऐतिहासिक कारणों से उन्‍हें साम्‍प्रदायिक पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है जो बराबर मुस्‍लिम समुदाय को तनाव/अवसाद में डालें रखता है और कभी-कभी इसका इतना विकराल/विस्‍फोटक रूप हो जाता है कि उसका वर्णन नहीं किया जाता है। वास्‍तविकता यह है कि मुसलमानों ने जिंदगी, सम्‍पत्‍ति और सम्‍मान की क्षति झेली है, कुछ त्रासदी पूर्व भयानक घटनाओं ने आम लोगों के मस्‍तिष्‍क पर बहुत गहरे घाव छोड़े हैं, पर इतना क्‍या कम है कि मुसलमान अपने अस्‍तित्व में बने रहे और बढ़ते रहे। कुल मिलाकर यह मुस्‍लिम समुदाय आजादी और क्षति के साथ जीता रहा, पर एक बात है जैसा न्‍याय, अधिकार एवं बराबरी एवं शिक्षा इस समुदाय को मिलनी चाहिए। वह मुसलमानों को आज भी मुकम्‍मल नहीं हो पायी हैं। इसलिए इनका श्‍ौक्षिक स्‍तर अधिक नहीं बढ़ पाया है।

भारतीय मुसलमानों का श्‍ौक्षिक स्‍तर कम होने का दूसरा पहलू इनका रहन-सहन का वातावरण भी है। भारतीय मुसलमानों का रहन-सहन अपनी विशिष्‍ट पहचान रखता है और इसी पहचान के लिए इस समुदाय का श्‍ौक्षिक वातावरण (तालीमी) भी अलग रहा है। इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि मदरसों ने मुस्‍लिम समुदाय को साक्षरता के क्षेत्र में अति महत्‍वपूर्ण मुकाम पर पहुंचाया है। सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि मदरसे उन क्षेत्रों में छात्रों को साक्षर बनाते हैं, जहाँ औपचारिक शिक्षण संस्‍थाएं नहीं हैं शायद इसके पीछे यह कारण भी महत्‍वपूर्ण हो सकता है कि इन क्षेत्रों के लोगों की आर्थिक स्‍थिति इतनी बेहतर नहीं है कि अच्‍छे स्‍कूलों में जाकर अध्‍ययन कर सकें इससे स्‍पष्‍ट है कि एक तो गरीबी में अधिक से अधिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार मदरसों ने किया साथ ही दूर -दराज तक साक्षरता का मिशन भी पूरा किया, परन्‍तु आज सैकड़ों साल पुरानी विशिष्‍ट मदरसा शिक्षा की भव्‍य इमारतों की शानदार (सुनहरी) यात्रा कर आये मदरसों को जहाँ एक खास विचारधारा के लोग आतंकवाद या धार्मिक उग्रवाद का उत्‍पादन केन्‍द्र घोषित कर रहे हैं इसके साथ ही एक धारणा यह भी जोड़ दी जाती है कि मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा बच्‍चों , किशोरों को धर्मांध, रूढ़िवादी , प्रचीनतावादी तथा आधुनिकता का विरोधी बनाने का काम करती है। इधर कुछ वर्षों में मदरसों के पाठ्‌यक्रम और शिक्षा पद्धति को लेकर भारत में बहुत सार्थक और उपयोगी काम हुए हैं। यहाँ पर कम्‍प्‍यूटर की शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी एवं व्‍यावसायिक शिक्षा भी दी जा रही है इसके लिए उ0 प्र0 सरकार के अरबी-फारसी परीक्षा बोर्ड ने मान्‍यता दे दी है।

मदरसा शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ वर्तमान में मुस्‍लिम नवजवान शिक्षा की सभी संस्‍थाओं में अपने आपको अध्‍ययन के लिए उत्‍सुक हैं। आज मुस्‍लिम समुदाय के समक्ष जीविकोपार्जन एक चुनौती के रूप में है इसके लिए इनके समक्ष अब नैतिकता बौनी हो गयी है अर्थात्‌ नैतिक शिक्षा का बल कम हो गया है। उ0 प्र0 में मकातबे इस्‍लामियाँ, शिक्षा को आधुनिकता का मोड़ देकर अति महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अर्थात्‌ स्‍पष्‍ट है कि भारत में अरबी के मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सेक्‍यूलर शिक्षा पर भी जोर (अनिवार्यता) दिया जा रहा है।

भारत में मुस्‍लिम समुदाय उच्‍च शिक्षा में उतना आगे नहीं है जितना होना चाहिए परन्‍तु इसके लिए भारत सरकार अपने स्‍तर से पूरी छूट दिये हुए है। अलीगढ़ मुस्‍लिम विश्‍वविद्यालय इस दिशा में एक महत्‍वपूर्ण काम कर रहा है और शिक्षा की जितनी आधुनिक प्रणालियाँ हैं वह सब यहाँ उपलब्‍ध हैं। सबसे अहम बात मुस्‍लिम समुदाय के लिए यह है कि इस वर्ग की महिलाएं शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में किसी भी वर्ग से बहुत पीछे हैं, फिलहाल कुछ भी हो आज स्‍कूली शिक्षा (मदरसा) के साथ-साथ मुस्‍लिम समुदाय को अपने नौनिहालों को माध्‍यमिक शिक्षा एवं उच्‍च शिक्षा को बढ़ाने की जरूरत है। सर सैय्‍यद अहमद साहब के अलीगढ़ मूवमेंट से लेकर अभी तक तमाम श्‍ौक्षिक सुधार अभियानों के पीछे (सच्‍चर समिति की रिपोर्ट को छोड़कर)बहुत सीमित मंशा काम करती रही है। इससे सबको शिक्षित करने का सवाल नहीं होता यह सामाजिक रूप से मौजूद बुराइयों को मजबूत करने वाला है और सिर्फ मुस्‍लिम कुलीन जमात की जरूरत को पूरा करने के ख्‍याल से चलाये जाते हैं। इसके लिए आज आवश्‍यकता है कि सरकार मुस्‍लिम समुदाय के लिए अन्‍य वर्गों की भाँति ( अनु0 जाति-अनु0 जनजाति/पिछड़े वर्ग) ठोस श्‍ौक्षिक नीति बनाएँ जिसमें मुस्‍लिमों के लिए शिक्षा पर विश्‍ोष बल दिये जाने की बात हो। जिससे प्राथमिक एवं माध्‍यमिक तथा उच्‍च शिक्षा के साथ-साथ व्‍यावसायिक शिक्षा के महत्‍व पर बल दिया जाये इसके साथ ही मुस्‍लिम बच्‍चों को विश्‍ोष रूप से ट्रेनिंग एवं कोचिंग की व्‍यवस्‍था पर भी जोर दिया जाये।

यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मुस्‍लिम समुदाय के शिक्षा में पिछड़ने के पहलुओं पर पिछली एवम्‌ वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के साथ-साथ मुस्‍लिम समुदाय की रूढ़ियां एवं आर्थिक पिछड़ापन भी कम दोषी नहीं हैं। आज वास्‍तविकता यह है कि मुस्‍लिम समुदाय इनके भंवर जाल के रूप में फंस गया है जिससे वह आज तक नहीं निकल पाया है फिलहाल आज के इस गलाकाट प्रतिस्‍पर्धा वाले युग में मुसलमान अपने को कितना आगे (श्‍ौक्षिक स्‍तर पर) ले जायेंगे यह भविष्‍य के गर्भ में छिपा हुआ है?

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम प्रतिभा का अदभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवम पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।



सम्‍पर्क-वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग, डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0प्र0-285001,भारत


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विषय: आलेख


1 टिप्पणियाँ.:
सतीश सक्सेना said...
बहुत अच्छा शोध परक लेख, अशिक्षा मुस्लिम समुदाय के पिछडेपन के लिए जिम्मेवार है ! इस समुदाय को प्रोत्साहन देना सरकार के साथ साथ हम सबकी सामूहिक जिम्मेवारी बनती है जिससे मुस्लिम समुदाय और प्रतिबद्धता के साथ मुख्य धारा से जुड़ कर रहे
आवश्यकता है की अलगाव वादी शक्तियों और नफरत के सौदागरों को बेनकाब किया जाए !
सादर

10:36 AM
June 30, 2009
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा




शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा

डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव



किसी भी सम्‍प्रदाय के विकास में शिक्षा की अहम भूमिका होती है क्‍योंकि शिक्षा व्‍यक्‍ति को सुसंस्‍कृत एवं सभ्‍य बनाकर एक सुन्‍दर, मनोहर आदर्श समाज का सृजन करती है। सच्‍ची शिक्षा व्‍यक्‍ति को निर्माण की प्रक्रिया की ओर प्रेरित कर उसमें व्‍यवहार के परिष्‍कार, दृष्‍टिकोण को तो विकसित करती ही है साथ ही व्‍यक्‍ति के चरित्र का निर्माण और व्‍यवहार का निरूपण भी करती है। शिक्षा संविधान, प्रतिष्‍ठान, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र के आदर्श मूल्‍यों की प्राप्‍ति में मार्ग दर्शन कर सहायता करती है। अर्थात्‌ बौद्धिक सम्‍पन्‍नता एवं राष्‍ट्रीय आत्‍म निर्भरता की जड़ शिक्षा है। शिक्षा वास्‍तविक मायनों में प्रवृत्‍ति और आन्‍तरिक शोध की प्रक्रिया में प्रत्‍यक्ष सुधार उत्‍पन्‍न करती है। शिक्षा मानव को अधिक तार्किक और उदार बनाती है और पढ़ा लिखा व्‍यक्‍ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति संकुचित दृष्‍टिकोण नहीं रखता। यदि व्‍यक्‍ति या समुदाय को उचित ढ़ंग से शिक्षित किया जाये तो प्रत्‍येक नागरिक एकता की क्षमता को विकसित करता है जिसका परिणाम एक शक्‍तिशाली राष्‍ट्र के रूप में सामने आता है। वास्‍तविकता यह है कि व्‍यक्‍ति और किसी भी समुदाय के चतुर्मुखी विकास के लिए शिक्षा एक अति महत्‍वपूर्ण घटक के रूप में कार्य करती है।

दुनिया का सबसे शक्‍तिशाली लोकतंत्र अपनी अनेक ख़ामियों के बावजूद विश्‍व में सदैव आकर्षण का केन्‍द्र रहा है, क्‍योंकि इसने (भारत) समाज के हाशिए पर पड़े समूहों समेत विभिन्‍न वर्गों वाली शक्‍तियों को जीवंत/संजीदा और मजबूत किया है। अंतर-लोकतंत्रीकरण (समाज में समान दर्जे की अनुभूति) एवं लोकतंत्रीकरण (सामाजिक और श्‍ौक्षिक स्थिति में सुधार) की इस प्रकिया ने दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं में नयी जान डाल दी है परन्‍तु इस प्रक्रिया नें भारतीय मुसलमानों को खास प्रभावित नहीं किया है क्‍योंकि मुस्‍लिम समुदाय के अंदर जितनी व्‍यापक सामाजिक और श्‍ौक्षिक सुधार की पहल होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है। भारतीय संविधान पर दृष्‍टि डालें तो यह धर्म-निरपेक्षता की स्‍पष्‍ट घोषणा करता है। अर्थात्‌ ऐसा राष्‍ट्र जिसका अपना कोई मजहब नहीं होता और वह किसी समुदाय के साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। भारतीय संविधान का अनुच्‍छेद 25 प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को लोक व्‍यवस्‍था एवं स्‍वास्‍थ्‍य तथा नैतिकता के अधीन रहते हुए केवल ऐसा धर्म ग्रहण करने की स्‍वतंत्रता नहीं देता, बल्‍कि अपने विचारों का प्रचार व प्रसार करने के लिए अपने विश्‍वास को ऐसे बाहरी कार्यों में भी प्रदर्शित करने की स्‍वतंत्रता देता है। जैसा कि वह व्‍यक्‍ति उचित समझता है साथ ही उसके निर्णय एवं अन्‍तःकरण द्वारा अनुमोदित हो। धर्म की स्‍वतंत्रता पर राज्‍य द्वारा कतिपय पाबन्‍दी लगाने की व्‍यवस्‍था भी संविधान में है। भारतीय संविधान का अनुच्‍छेद-30 अल्‍पसंख्‍यक वर्गों को अपनी पसंद की श्‍ौक्षिक संस्‍थानों को स्‍थापित करने और प्रबन्‍ध करने का अधिकार देता है। यहाँ अल्‍पसंख्‍यक से तात्‍पर्य मुस्‍लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई तथा फारसी समुदायों से है।

भारतीय मुसलमान शिक्षा में देश के अन्‍य समूहों से बहुत पीछे हैं यह एक स्‍थापित सत्‍य है। और इसके पीछे मुसलमानों का पिछड़ापन बताया जाता है यहाँ यक्ष प्रश्‍न यह है कि मुस्‍लिम समुदाय का आर्थिक रूप से पिछड़ापन होना, उनके श्‍ौक्षिक पिछड़े पन के लिए जिम्‍मेदार है या यूं कहा जाये कि शिक्षा में पीछे होने के कारण ही ये आर्थिक व सामाजिक रूप से पीछे रह जाते हैं। कुल मिलाकर मुस्‍लिम समुदाय की स्थिति भारत में श्‍ौक्षिक स्‍तर पर दयनीय है। मुस्‍लिम समुदाय की इस दशा को रेखांकित करने के लिए हमें कुछ वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। देखा जाये तो वास्‍तव में देश विभाजन एवं देश की स्‍वाधीनता हमें दोनों एक साथ प्राप्‍त हुई। जहाँ एक ओर हम देश की स्‍वतंत्रता से प्रफुल्‍लित थे वहीं दूसरी तरफ हम देश के विभाजन से दुःखी भी थे। विश्‍ोषकर जिसमें मुस्‍लिम समुदाय को साम्‍प्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ा। जिनके पास जो सम्‍पत्‍ति थी उसे या तो उनको वहीं छोड़ना पड़ा था और ऐसी स्थिति में पाकिस्‍तान भी जाना पड़ा। अर्थात्‌ अधिकतर मुस्‍लिम समुदाय के लोगों को शरणार्थी के रूप में यहाँ रहना पड़ा। स्‍वतंत्रता पश्‍चात मुसलमानों का लखनऊ में मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहल पर एक अधिवेशन हुआ इसके द्वारा तय किया गया कि मुसलमान अपना कोई स्‍वतंत्र राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे और इसमें उन्‍हें काफी हद तक सफलता भी मिली, लेकिन मुस्‍लिम समुदाय की यह समस्‍या बनी रही कि भारतीय राष्‍ट्रीयता से जुड़ जाने के बाद भी साम्‍प्रदायिक दंगो से परेशान रहे, मुस्‍लिम समुदाय की वह पीढ़ी, जो भारत में 1947 के आसपास पैदा हुई थी, छठवें दशक तक आते-आते युवा हो गयी तब भी ये राजनीति की धारा में अलग-थलग बनें रहे। प्रारम्‍भ में कांग्रेस का दामन थामने पर इस समुदाय की बहुत ठोस जगह मुकम्‍मल नहीं हो पायी। पाकिस्‍तान के साथ बढ़ती शत्रुता और युद्धों ने साम्‍प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। कांग्रेस के पास मुद्दों का अभाव होने की वजह से उसने अपने वोट बैंक खिसकने की वजह से धर्म का सहारा लिया। वामपंथी एवं किसान, संगठन की मूलधारा से न जुड़ने से साम्‍प्रदायिकता को बल मिला। फलतः मुस्‍लिम समुदाय में जो सामाजिक, सांस्‍कृतिक, श्‍ौक्षिक विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया और इसके परिणाम स्‍वरूप धर्मांध मुस्‍लिम नेताओं की एक नयी जमात तैयार हो गयी, क्‍योंकि जहाँ हिन्‍दुओं की शक्‍तियां एक होकर संस्‍थायें बना रही थीं (विश्‍व हिन्‍दू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना, भाजपा), वहीं मुस्‍लिम समुदाय के भी धार्मिक संगठन बनाये जा रहे थे। साम्प्रदायिक घृणा की यह दीवार दिनों-दिन बढ़ती गयी फलतः श्‍ौक्षिक विकास जो इस वर्ग में होना चाहिए वह नहीं हो पाया। हालाँकि इसके लिए कुछ मुस्‍लिम भाई भारतीय समाज को दोषी ठहराते हैं कि हिन्‍दू समाज मुस्‍लिम समुदाय की अपेक्षा अधिक कट्टर है। परन्‍तु भारत एवं विश्‍व सहित अनेक शोध रिपोर्टों से यह साबित होता है कि ‘भारतीय समाज किसी भी देश के समाज से अधिक उन्‍नत समाज है इसलिए आप एक पिछड़े समाज की तुलना किसी उन्‍नत समाज से नहीं कर सकते और यह नहीं कह सकते कि पिछड़े समाज के मूल्‍य उन्‍नत समाज पर थोप दिये जायें।' लोगों के मस्‍तिष्‍क में चाहे जो पूर्वाग्रह हों परन्‍तु स्‍वतंत्रता के पश्‍चात भारत में मुस्‍लिम समुदाय को बहुत सी ऐसी स्‍वतंत्रताएं हासिल हैं। जो अन्‍य मुस्‍लिम देशों में उन्‍हें कहीं नहीं मिलती हैं। धर्मनिरपेक्ष, व्‍यवस्‍था चाहे कितनी ही दोषपूर्ण, लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था चाहे जितनी ही गैर प्रतिनिधिक हो, भारत के मुस्‍लिम समुदाय को जो खास सहूलियतें मिली हुई हैं, वे बहुत से मुसलमानों ,यहाँ तक कि इस्‍लामी राष्ट्रों को भी हासिल नहीं हैं, उदाहरण के लिए अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता, संगठन और राजनैतिक प्रक्रिया में हिस्‍सेदारी की स्‍वतंत्रता। हालांकि ऐतिहासिक कारणों से उन्‍हें साम्‍प्रदायिक पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है जो बराबर मुस्‍लिम समुदाय को तनाव/अवसाद में डालें रखता है और कभी-कभी इसका इतना विकराल/विस्‍फोटक रूप हो जाता है कि उसका वर्णन नहीं किया जाता है। वास्‍तविकता यह है कि मुसलमानों ने जिंदगी, सम्‍पत्‍ति और सम्‍मान की क्षति झेली है, कुछ त्रासदी पूर्व भयानक घटनाओं ने आम लोगों के मस्‍तिष्‍क पर बहुत गहरे घाव छोड़े हैं, पर इतना क्‍या कम है कि मुसलमान अपने अस्‍तित्व में बने रहे और बढ़ते रहे। कुल मिलाकर यह मुस्‍लिम समुदाय आजादी और क्षति के साथ जीता रहा, पर एक बात है जैसा न्‍याय, अधिकार एवं बराबरी एवं शिक्षा इस समुदाय को मिलनी चाहिए। वह मुसलमानों को आज भी मुकम्‍मल नहीं हो पायी हैं। इसलिए इनका श्‍ौक्षिक स्‍तर अधिक नहीं बढ़ पाया है।

भारतीय मुसलमानों का श्‍ौक्षिक स्‍तर कम होने का दूसरा पहलू इनका रहन-सहन का वातावरण भी है। भारतीय मुसलमानों का रहन-सहन अपनी विशिष्‍ट पहचान रखता है और इसी पहचान के लिए इस समुदाय का श्‍ौक्षिक वातावरण (तालीमी) भी अलग रहा है। इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि मदरसों ने मुस्‍लिम समुदाय को साक्षरता के क्षेत्र में अति महत्‍वपूर्ण मुकाम पर पहुंचाया है। सबसे महत्‍वपूर्ण बात यह है कि मदरसे उन क्षेत्रों में छात्रों को साक्षर बनाते हैं, जहाँ औपचारिक शिक्षण संस्‍थाएं नहीं हैं शायद इसके पीछे यह कारण भी महत्‍वपूर्ण हो सकता है कि इन क्षेत्रों के लोगों की आर्थिक स्‍थिति इतनी बेहतर नहीं है कि अच्‍छे स्‍कूलों में जाकर अध्‍ययन कर सकें इससे स्‍पष्‍ट है कि एक तो गरीबी में अधिक से अधिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार मदरसों ने किया साथ ही दूर -दराज तक साक्षरता का मिशन भी पूरा किया, परन्‍तु आज सैकड़ों साल पुरानी विशिष्‍ट मदरसा शिक्षा की भव्‍य इमारतों की शानदार (सुनहरी) यात्रा कर आये मदरसों को जहाँ एक खास विचारधारा के लोग आतंकवाद या धार्मिक उग्रवाद का उत्‍पादन केन्‍द्र घोषित कर रहे हैं इसके साथ ही एक धारणा यह भी जोड़ दी जाती है कि मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा बच्‍चों , किशोरों को धर्मांध, रूढ़िवादी , प्रचीनतावादी तथा आधुनिकता का विरोधी बनाने का काम करती है। इधर कुछ वर्षों में मदरसों के पाठ्‌यक्रम और शिक्षा पद्धति को लेकर भारत में बहुत सार्थक और उपयोगी काम हुए हैं। यहाँ पर कम्‍प्‍यूटर की शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी एवं व्‍यावसायिक शिक्षा भी दी जा रही है इसके लिए उ0 प्र0 सरकार के अरबी-फारसी परीक्षा बोर्ड ने मान्‍यता दे दी है।

मदरसा शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ वर्तमान में मुस्‍लिम नवजवान शिक्षा की सभी संस्‍थाओं में अपने आपको अध्‍ययन के लिए उत्‍सुक हैं। आज मुस्‍लिम समुदाय के समक्ष जीविकोपार्जन एक चुनौती के रूप में है इसके लिए इनके समक्ष अब नैतिकता बौनी हो गयी है अर्थात्‌ नैतिक शिक्षा का बल कम हो गया है। उ0 प्र0 में मकातबे इस्‍लामियाँ, शिक्षा को आधुनिकता का मोड़ देकर अति महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अर्थात्‌ स्‍पष्‍ट है कि भारत में अरबी के मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सेक्‍यूलर शिक्षा पर भी जोर (अनिवार्यता) दिया जा रहा है।

भारत में मुस्‍लिम समुदाय उच्‍च शिक्षा में उतना आगे नहीं है जितना होना चाहिए परन्‍तु इसके लिए भारत सरकार अपने स्‍तर से पूरी छूट दिये हुए है। अलीगढ़ मुस्‍लिम विश्‍वविद्यालय इस दिशा में एक महत्‍वपूर्ण काम कर रहा है और शिक्षा की जितनी आधुनिक प्रणालियाँ हैं वह सब यहाँ उपलब्‍ध हैं। सबसे अहम बात मुस्‍लिम समुदाय के लिए यह है कि इस वर्ग की महिलाएं शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में किसी भी वर्ग से बहुत पीछे हैं, फिलहाल कुछ भी हो आज स्‍कूली शिक्षा (मदरसा) के साथ-साथ मुस्‍लिम समुदाय को अपने नौनिहालों को माध्‍यमिक शिक्षा एवं उच्‍च शिक्षा को बढ़ाने की जरूरत है। सर सैय्‍यद अहमद साहब के अलीगढ़ मूवमेंट से लेकर अभी तक तमाम श्‍ौक्षिक सुधार अभियानों के पीछे (सच्‍चर समिति की रिपोर्ट को छोड़कर)बहुत सीमित मंशा काम करती रही है। इससे सबको शिक्षित करने का सवाल नहीं होता यह सामाजिक रूप से मौजूद बुराइयों को मजबूत करने वाला है और सिर्फ मुस्‍लिम कुलीन जमात की जरूरत को पूरा करने के ख्‍याल से चलाये जाते हैं। इसके लिए आज आवश्‍यकता है कि सरकार मुस्‍लिम समुदाय के लिए अन्‍य वर्गों की भाँति ( अनु0 जाति-अनु0 जनजाति/पिछड़े वर्ग) ठोस श्‍ौक्षिक नीति बनाएँ जिसमें मुस्‍लिमों के लिए शिक्षा पर विश्‍ोष बल दिये जाने की बात हो। जिससे प्राथमिक एवं माध्‍यमिक तथा उच्‍च शिक्षा के साथ-साथ व्‍यावसायिक शिक्षा के महत्‍व पर बल दिया जाये इसके साथ ही मुस्‍लिम बच्‍चों को विश्‍ोष रूप से ट्रेनिंग एवं कोचिंग की व्‍यवस्‍था पर भी जोर दिया जाये।

यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मुस्‍लिम समुदाय के शिक्षा में पिछड़ने के पहलुओं पर पिछली एवम्‌ वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के साथ-साथ मुस्‍लिम समुदाय की रूढ़ियां एवं आर्थिक पिछड़ापन भी कम दोषी नहीं हैं। आज वास्‍तविकता यह है कि मुस्‍लिम समुदाय इनके भंवर जाल के रूप में फंस गया है जिससे वह आज तक नहीं निकल पाया है फिलहाल आज के इस गलाकाट प्रतिस्‍पर्धा वाले युग में मुसलमान अपने को कितना आगे (श्‍ौक्षिक स्‍तर पर) ले जायेंगे यह भविष्‍य के गर्भ में छिपा हुआ है?

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श्‍ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्‍यकार डाँ वीरेन्‍द्रसिंह यादव ने साहित्‍यिक, सांस्‍कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावर्णीय समस्‍याओं से सम्‍बन्‍धित गतिविधियों को केन्‍द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्‍त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम प्रतिभा का अदभुत सामंजस्‍य है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी एवम पर्यावरण में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।



सम्‍पर्क-वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता, हिन्‍दी विभाग, डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0प्र0-285001,भारत


इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 07:56 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!

विषय: आलेख


1 टिप्पणियाँ.:
सतीश सक्सेना said...
बहुत अच्छा शोध परक लेख, अशिक्षा मुस्लिम समुदाय के पिछडेपन के लिए जिम्मेवार है ! इस समुदाय को प्रोत्साहन देना सरकार के साथ साथ हम सबकी सामूहिक जिम्मेवारी बनती है जिससे मुस्लिम समुदाय और प्रतिबद्धता के साथ मुख्य धारा से जुड़ कर रहे
आवश्यकता है की अलगाव वादी शक्तियों और नफरत के सौदागरों को बेनकाब किया जाए !
सादर

10:36 AM