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Sunday, July 12, 2009
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन (संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
(युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फ़ेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)
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पर्यावरण की वर्तमान समस्या को देखते हुए आज सम्पूर्ण विश्व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्पष्ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्टि, बिजली और अक्सर सूखे की स्थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्योंकि ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्च शक्ति के हथियार इस्तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्व के अन्य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्हीं समस्याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद् काफी समय से संघर्षरत थे।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्तित्व के प्रति चिन्तित होने का आगाह किया है। सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्हें फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्तेमाल ज्यादा है और प्राप्ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।
सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित हो गया है। इस स्थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्तित्व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्तविकता यह है कि हमारी पृथ्वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।
सहस्त्राब्दी के इस पर्यावरण अध्ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन् 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्ड) जीव जन्तुओं और जलीय वनस्पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।
वनों के विनाश पर प्रस्तुत सहस्त्राब्दी अध्ययन रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त की गयी है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ‘सन् 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्योंकि इससे वनों से होने वाले उत्पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्यौता देकर स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्त में इंग्लैण्ड और वेल्स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन् 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्पाद 100 अरब डालर ज्यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने माना है कि सन् 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य की सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्व सभी से ज्यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्भीरता से समझना होगा।
निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्य और विभिन्न परिकल्पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्तियों के आधार पर सहस्त्राब्दी आकलन रिपोर्ट में निम्न चार स्थितियों पर विस्तार दिखाई देता है - हस्तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार
- एक वैश्विक समाज बनेगा जो विश्व व्यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्यादा होगा। उम्मीद है कि इस स्थिति में 2050 तक जनसंख्या सबसे कम होगी।
- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्थानीय संस्थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्या का सवाल है सन् 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।
- इस परिदृश्य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्या मध्यम स्थिति में रहे।
- इस परिदृश्य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्य में आर्थिक विकास और घटेगा।
भावी वैश्विक परिदृश्य की ये परिकल्पनाएं महज अटकल या भविष्यवाणी नहीं हैं बल्कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्तियों के विकास के धुंधले दृश्य हैं। इन्हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्य का नक्शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्मीद है कि पहले परिदृश्य में व्यापार बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, सब्सिडी खत्म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्म करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्यता और ज्ञान का प्रवाह संस्थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्पादन बढ़ेगा, विकल्प बढ़ेंगे और हानिकारक व्यापार में कमी आएगी।
वैश्विक तापमान को कम करने का वैश्विक प्रयास ः क्योटो प्रोटोकॉल
वैश्विक गरमाहट की समस्या पृथ्वी के समक्ष एक आसन्न संकट है जिससे समग्र जैव समष्टि का भविष्य जुड़ा हुआ है क्योंकि हमारी पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्पूर्ण विश्व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्लोरो फ्लोरो, नाइट्रस आक्साइड तथा सल्फर-डाई-आक्साइड हैं। वायुमण्डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे।
हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन् 1930 में इसकी सान्द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्य तक ब्व्2 की सान्द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्न हो जाएंगे। रेगिस्तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्टि के लिए घातक होगी।
जलवायु परिवर्तन की समस्या जो कि एक वैश्विक चुनौती है, का हल भी वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्त रूप से विभिन्न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्योटो प्रोटोकॉल। क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्तित्व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आया बल्कि कई सम्मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्यक है -
क्योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलन एवं तिथियाँ -
- विश्व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्ता 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें सन् 2000 तक कार्बन-डाई-आक्साइड को 1990 के स्तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्तु यह सम्मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये।
- UNFCCC द्वारा प्रस्तावित समझौते को कानूनी बाध्यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।
- 1997 में 165 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल (क्योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया)।
- सन् 2000 में हेग में क्योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्मेलन बुलाया गया परन्तु किसी अन्तिम निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।
- नवम्बर 2001 में 160 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्वीकार किया।
- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।
- अभी हाल ही में 11 सितम्बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्ड में सम्मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्सर्जन के बारे में क्या किया जायेगा। ।ैम्ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।
विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये। परन्तु यह समझौता भविष्य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।
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सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!
विषय: आलेख
June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
(युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फ़ेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)
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पर्यावरण की वर्तमान समस्या को देखते हुए आज सम्पूर्ण विश्व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्पष्ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्टि, बिजली और अक्सर सूखे की स्थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्योंकि ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्च शक्ति के हथियार इस्तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्व के अन्य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्हीं समस्याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद् काफी समय से संघर्षरत थे।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्तित्व के प्रति चिन्तित होने का आगाह किया है। सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्हें फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्तेमाल ज्यादा है और प्राप्ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।
सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित हो गया है। इस स्थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्तित्व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्तविकता यह है कि हमारी पृथ्वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।
सहस्त्राब्दी के इस पर्यावरण अध्ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन् 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्ड) जीव जन्तुओं और जलीय वनस्पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।
वनों के विनाश पर प्रस्तुत सहस्त्राब्दी अध्ययन रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त की गयी है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ‘सन् 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्योंकि इससे वनों से होने वाले उत्पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्यौता देकर स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्त में इंग्लैण्ड और वेल्स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन् 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्पाद 100 अरब डालर ज्यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने माना है कि सन् 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य की सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्व सभी से ज्यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्भीरता से समझना होगा।
निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्य और विभिन्न परिकल्पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्तियों के आधार पर सहस्त्राब्दी आकलन रिपोर्ट में निम्न चार स्थितियों पर विस्तार दिखाई देता है - हस्तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार
- एक वैश्विक समाज बनेगा जो विश्व व्यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्यादा होगा। उम्मीद है कि इस स्थिति में 2050 तक जनसंख्या सबसे कम होगी।
- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्थानीय संस्थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्या का सवाल है सन् 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।
- इस परिदृश्य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्या मध्यम स्थिति में रहे।
- इस परिदृश्य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्य में आर्थिक विकास और घटेगा।
भावी वैश्विक परिदृश्य की ये परिकल्पनाएं महज अटकल या भविष्यवाणी नहीं हैं बल्कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्तियों के विकास के धुंधले दृश्य हैं। इन्हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्य का नक्शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्मीद है कि पहले परिदृश्य में व्यापार बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, सब्सिडी खत्म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्म करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्यता और ज्ञान का प्रवाह संस्थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्पादन बढ़ेगा, विकल्प बढ़ेंगे और हानिकारक व्यापार में कमी आएगी।
वैश्विक तापमान को कम करने का वैश्विक प्रयास ः क्योटो प्रोटोकॉल
वैश्विक गरमाहट की समस्या पृथ्वी के समक्ष एक आसन्न संकट है जिससे समग्र जैव समष्टि का भविष्य जुड़ा हुआ है क्योंकि हमारी पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्पूर्ण विश्व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्लोरो फ्लोरो, नाइट्रस आक्साइड तथा सल्फर-डाई-आक्साइड हैं। वायुमण्डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे।
हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन् 1930 में इसकी सान्द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्य तक ब्व्2 की सान्द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्न हो जाएंगे। रेगिस्तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्टि के लिए घातक होगी।
जलवायु परिवर्तन की समस्या जो कि एक वैश्विक चुनौती है, का हल भी वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्त रूप से विभिन्न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्योटो प्रोटोकॉल। क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्तित्व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आया बल्कि कई सम्मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्यक है -
क्योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलन एवं तिथियाँ -
- विश्व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्ता 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें सन् 2000 तक कार्बन-डाई-आक्साइड को 1990 के स्तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्तु यह सम्मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये।
- UNFCCC द्वारा प्रस्तावित समझौते को कानूनी बाध्यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।
- 1997 में 165 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल (क्योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया)।
- सन् 2000 में हेग में क्योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्मेलन बुलाया गया परन्तु किसी अन्तिम निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।
- नवम्बर 2001 में 160 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्वीकार किया।
- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।
- अभी हाल ही में 11 सितम्बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्ड में सम्मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्सर्जन के बारे में क्या किया जायेगा। ।ैम्ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।
विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये। परन्तु यह समझौता भविष्य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।
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सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!
विषय: आलेख
June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
(युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फ़ेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)
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पर्यावरण की वर्तमान समस्या को देखते हुए आज सम्पूर्ण विश्व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्पष्ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्टि, बिजली और अक्सर सूखे की स्थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्योंकि ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्च शक्ति के हथियार इस्तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्व के अन्य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्हीं समस्याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद् काफी समय से संघर्षरत थे।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्तित्व के प्रति चिन्तित होने का आगाह किया है। सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्हें फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्तेमाल ज्यादा है और प्राप्ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।
सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित हो गया है। इस स्थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्तित्व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्तविकता यह है कि हमारी पृथ्वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।
सहस्त्राब्दी के इस पर्यावरण अध्ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन् 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्ड) जीव जन्तुओं और जलीय वनस्पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।
वनों के विनाश पर प्रस्तुत सहस्त्राब्दी अध्ययन रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त की गयी है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ‘सन् 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्योंकि इससे वनों से होने वाले उत्पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्यौता देकर स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्त में इंग्लैण्ड और वेल्स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन् 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्पाद 100 अरब डालर ज्यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने माना है कि सन् 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य की सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्व सभी से ज्यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्भीरता से समझना होगा।
निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्य और विभिन्न परिकल्पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्तियों के आधार पर सहस्त्राब्दी आकलन रिपोर्ट में निम्न चार स्थितियों पर विस्तार दिखाई देता है - हस्तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार
- एक वैश्विक समाज बनेगा जो विश्व व्यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्यादा होगा। उम्मीद है कि इस स्थिति में 2050 तक जनसंख्या सबसे कम होगी।
- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्थानीय संस्थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्या का सवाल है सन् 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।
- इस परिदृश्य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्या मध्यम स्थिति में रहे।
- इस परिदृश्य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्य में आर्थिक विकास और घटेगा।
भावी वैश्विक परिदृश्य की ये परिकल्पनाएं महज अटकल या भविष्यवाणी नहीं हैं बल्कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्तियों के विकास के धुंधले दृश्य हैं। इन्हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्य का नक्शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्मीद है कि पहले परिदृश्य में व्यापार बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, सब्सिडी खत्म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्म करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्यता और ज्ञान का प्रवाह संस्थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्पादन बढ़ेगा, विकल्प बढ़ेंगे और हानिकारक व्यापार में कमी आएगी।
वैश्विक तापमान को कम करने का वैश्विक प्रयास ः क्योटो प्रोटोकॉल
वैश्विक गरमाहट की समस्या पृथ्वी के समक्ष एक आसन्न संकट है जिससे समग्र जैव समष्टि का भविष्य जुड़ा हुआ है क्योंकि हमारी पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्पूर्ण विश्व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्लोरो फ्लोरो, नाइट्रस आक्साइड तथा सल्फर-डाई-आक्साइड हैं। वायुमण्डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे।
हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन् 1930 में इसकी सान्द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्य तक ब्व्2 की सान्द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्न हो जाएंगे। रेगिस्तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्टि के लिए घातक होगी।
जलवायु परिवर्तन की समस्या जो कि एक वैश्विक चुनौती है, का हल भी वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्त रूप से विभिन्न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्योटो प्रोटोकॉल। क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्तित्व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आया बल्कि कई सम्मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्यक है -
क्योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलन एवं तिथियाँ -
- विश्व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्ता 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें सन् 2000 तक कार्बन-डाई-आक्साइड को 1990 के स्तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्तु यह सम्मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये।
- UNFCCC द्वारा प्रस्तावित समझौते को कानूनी बाध्यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।
- 1997 में 165 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल (क्योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया)।
- सन् 2000 में हेग में क्योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्मेलन बुलाया गया परन्तु किसी अन्तिम निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।
- नवम्बर 2001 में 160 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्वीकार किया।
- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।
- अभी हाल ही में 11 सितम्बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्ड में सम्मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्सर्जन के बारे में क्या किया जायेगा। ।ैम्ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।
विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये। परन्तु यह समझौता भविष्य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।
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सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
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विषय: आलेख
शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा
June 30, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा
शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव
किसी भी सम्प्रदाय के विकास में शिक्षा की अहम भूमिका होती है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सभ्य बनाकर एक सुन्दर, मनोहर आदर्श समाज का सृजन करती है। सच्ची शिक्षा व्यक्ति को निर्माण की प्रक्रिया की ओर प्रेरित कर उसमें व्यवहार के परिष्कार, दृष्टिकोण को तो विकसित करती ही है साथ ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण और व्यवहार का निरूपण भी करती है। शिक्षा संविधान, प्रतिष्ठान, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र के आदर्श मूल्यों की प्राप्ति में मार्ग दर्शन कर सहायता करती है। अर्थात् बौद्धिक सम्पन्नता एवं राष्ट्रीय आत्म निर्भरता की जड़ शिक्षा है। शिक्षा वास्तविक मायनों में प्रवृत्ति और आन्तरिक शोध की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष सुधार उत्पन्न करती है। शिक्षा मानव को अधिक तार्किक और उदार बनाती है और पढ़ा लिखा व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति संकुचित दृष्टिकोण नहीं रखता। यदि व्यक्ति या समुदाय को उचित ढ़ंग से शिक्षित किया जाये तो प्रत्येक नागरिक एकता की क्षमता को विकसित करता है जिसका परिणाम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में सामने आता है। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति और किसी भी समुदाय के चतुर्मुखी विकास के लिए शिक्षा एक अति महत्वपूर्ण घटक के रूप में कार्य करती है।
दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र अपनी अनेक ख़ामियों के बावजूद विश्व में सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है, क्योंकि इसने (भारत) समाज के हाशिए पर पड़े समूहों समेत विभिन्न वर्गों वाली शक्तियों को जीवंत/संजीदा और मजबूत किया है। अंतर-लोकतंत्रीकरण (समाज में समान दर्जे की अनुभूति) एवं लोकतंत्रीकरण (सामाजिक और श्ौक्षिक स्थिति में सुधार) की इस प्रकिया ने दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं में नयी जान डाल दी है परन्तु इस प्रक्रिया नें भारतीय मुसलमानों को खास प्रभावित नहीं किया है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के अंदर जितनी व्यापक सामाजिक और श्ौक्षिक सुधार की पहल होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है। भारतीय संविधान पर दृष्टि डालें तो यह धर्म-निरपेक्षता की स्पष्ट घोषणा करता है। अर्थात् ऐसा राष्ट्र जिसका अपना कोई मजहब नहीं होता और वह किसी समुदाय के साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक व्यक्ति को लोक व्यवस्था एवं स्वास्थ्य तथा नैतिकता के अधीन रहते हुए केवल ऐसा धर्म ग्रहण करने की स्वतंत्रता नहीं देता, बल्कि अपने विचारों का प्रचार व प्रसार करने के लिए अपने विश्वास को ऐसे बाहरी कार्यों में भी प्रदर्शित करने की स्वतंत्रता देता है। जैसा कि वह व्यक्ति उचित समझता है साथ ही उसके निर्णय एवं अन्तःकरण द्वारा अनुमोदित हो। धर्म की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा कतिपय पाबन्दी लगाने की व्यवस्था भी संविधान में है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-30 अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी पसंद की श्ौक्षिक संस्थानों को स्थापित करने और प्रबन्ध करने का अधिकार देता है। यहाँ अल्पसंख्यक से तात्पर्य मुस्लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई तथा फारसी समुदायों से है।
भारतीय मुसलमान शिक्षा में देश के अन्य समूहों से बहुत पीछे हैं यह एक स्थापित सत्य है। और इसके पीछे मुसलमानों का पिछड़ापन बताया जाता है यहाँ यक्ष प्रश्न यह है कि मुस्लिम समुदाय का आर्थिक रूप से पिछड़ापन होना, उनके श्ौक्षिक पिछड़े पन के लिए जिम्मेदार है या यूं कहा जाये कि शिक्षा में पीछे होने के कारण ही ये आर्थिक व सामाजिक रूप से पीछे रह जाते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम समुदाय की स्थिति भारत में श्ौक्षिक स्तर पर दयनीय है। मुस्लिम समुदाय की इस दशा को रेखांकित करने के लिए हमें कुछ वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। देखा जाये तो वास्तव में देश विभाजन एवं देश की स्वाधीनता हमें दोनों एक साथ प्राप्त हुई। जहाँ एक ओर हम देश की स्वतंत्रता से प्रफुल्लित थे वहीं दूसरी तरफ हम देश के विभाजन से दुःखी भी थे। विश्ोषकर जिसमें मुस्लिम समुदाय को साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ा। जिनके पास जो सम्पत्ति थी उसे या तो उनको वहीं छोड़ना पड़ा था और ऐसी स्थिति में पाकिस्तान भी जाना पड़ा। अर्थात् अधिकतर मुस्लिम समुदाय के लोगों को शरणार्थी के रूप में यहाँ रहना पड़ा। स्वतंत्रता पश्चात मुसलमानों का लखनऊ में मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहल पर एक अधिवेशन हुआ इसके द्वारा तय किया गया कि मुसलमान अपना कोई स्वतंत्र राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे और इसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली, लेकिन मुस्लिम समुदाय की यह समस्या बनी रही कि भारतीय राष्ट्रीयता से जुड़ जाने के बाद भी साम्प्रदायिक दंगो से परेशान रहे, मुस्लिम समुदाय की वह पीढ़ी, जो भारत में 1947 के आसपास पैदा हुई थी, छठवें दशक तक आते-आते युवा हो गयी तब भी ये राजनीति की धारा में अलग-थलग बनें रहे। प्रारम्भ में कांग्रेस का दामन थामने पर इस समुदाय की बहुत ठोस जगह मुकम्मल नहीं हो पायी। पाकिस्तान के साथ बढ़ती शत्रुता और युद्धों ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। कांग्रेस के पास मुद्दों का अभाव होने की वजह से उसने अपने वोट बैंक खिसकने की वजह से धर्म का सहारा लिया। वामपंथी एवं किसान, संगठन की मूलधारा से न जुड़ने से साम्प्रदायिकता को बल मिला। फलतः मुस्लिम समुदाय में जो सामाजिक, सांस्कृतिक, श्ौक्षिक विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया और इसके परिणाम स्वरूप धर्मांध मुस्लिम नेताओं की एक नयी जमात तैयार हो गयी, क्योंकि जहाँ हिन्दुओं की शक्तियां एक होकर संस्थायें बना रही थीं (विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना, भाजपा), वहीं मुस्लिम समुदाय के भी धार्मिक संगठन बनाये जा रहे थे। साम्प्रदायिक घृणा की यह दीवार दिनों-दिन बढ़ती गयी फलतः श्ौक्षिक विकास जो इस वर्ग में होना चाहिए वह नहीं हो पाया। हालाँकि इसके लिए कुछ मुस्लिम भाई भारतीय समाज को दोषी ठहराते हैं कि हिन्दू समाज मुस्लिम समुदाय की अपेक्षा अधिक कट्टर है। परन्तु भारत एवं विश्व सहित अनेक शोध रिपोर्टों से यह साबित होता है कि ‘भारतीय समाज किसी भी देश के समाज से अधिक उन्नत समाज है इसलिए आप एक पिछड़े समाज की तुलना किसी उन्नत समाज से नहीं कर सकते और यह नहीं कह सकते कि पिछड़े समाज के मूल्य उन्नत समाज पर थोप दिये जायें।' लोगों के मस्तिष्क में चाहे जो पूर्वाग्रह हों परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मुस्लिम समुदाय को बहुत सी ऐसी स्वतंत्रताएं हासिल हैं। जो अन्य मुस्लिम देशों में उन्हें कहीं नहीं मिलती हैं। धर्मनिरपेक्ष, व्यवस्था चाहे कितनी ही दोषपूर्ण, लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहे जितनी ही गैर प्रतिनिधिक हो, भारत के मुस्लिम समुदाय को जो खास सहूलियतें मिली हुई हैं, वे बहुत से मुसलमानों ,यहाँ तक कि इस्लामी राष्ट्रों को भी हासिल नहीं हैं, उदाहरण के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन और राजनैतिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी की स्वतंत्रता। हालांकि ऐतिहासिक कारणों से उन्हें साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है जो बराबर मुस्लिम समुदाय को तनाव/अवसाद में डालें रखता है और कभी-कभी इसका इतना विकराल/विस्फोटक रूप हो जाता है कि उसका वर्णन नहीं किया जाता है। वास्तविकता यह है कि मुसलमानों ने जिंदगी, सम्पत्ति और सम्मान की क्षति झेली है, कुछ त्रासदी पूर्व भयानक घटनाओं ने आम लोगों के मस्तिष्क पर बहुत गहरे घाव छोड़े हैं, पर इतना क्या कम है कि मुसलमान अपने अस्तित्व में बने रहे और बढ़ते रहे। कुल मिलाकर यह मुस्लिम समुदाय आजादी और क्षति के साथ जीता रहा, पर एक बात है जैसा न्याय, अधिकार एवं बराबरी एवं शिक्षा इस समुदाय को मिलनी चाहिए। वह मुसलमानों को आज भी मुकम्मल नहीं हो पायी हैं। इसलिए इनका श्ौक्षिक स्तर अधिक नहीं बढ़ पाया है।
भारतीय मुसलमानों का श्ौक्षिक स्तर कम होने का दूसरा पहलू इनका रहन-सहन का वातावरण भी है। भारतीय मुसलमानों का रहन-सहन अपनी विशिष्ट पहचान रखता है और इसी पहचान के लिए इस समुदाय का श्ौक्षिक वातावरण (तालीमी) भी अलग रहा है। इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि मदरसों ने मुस्लिम समुदाय को साक्षरता के क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंचाया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मदरसे उन क्षेत्रों में छात्रों को साक्षर बनाते हैं, जहाँ औपचारिक शिक्षण संस्थाएं नहीं हैं शायद इसके पीछे यह कारण भी महत्वपूर्ण हो सकता है कि इन क्षेत्रों के लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी बेहतर नहीं है कि अच्छे स्कूलों में जाकर अध्ययन कर सकें इससे स्पष्ट है कि एक तो गरीबी में अधिक से अधिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार मदरसों ने किया साथ ही दूर -दराज तक साक्षरता का मिशन भी पूरा किया, परन्तु आज सैकड़ों साल पुरानी विशिष्ट मदरसा शिक्षा की भव्य इमारतों की शानदार (सुनहरी) यात्रा कर आये मदरसों को जहाँ एक खास विचारधारा के लोग आतंकवाद या धार्मिक उग्रवाद का उत्पादन केन्द्र घोषित कर रहे हैं इसके साथ ही एक धारणा यह भी जोड़ दी जाती है कि मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा बच्चों , किशोरों को धर्मांध, रूढ़िवादी , प्रचीनतावादी तथा आधुनिकता का विरोधी बनाने का काम करती है। इधर कुछ वर्षों में मदरसों के पाठ्यक्रम और शिक्षा पद्धति को लेकर भारत में बहुत सार्थक और उपयोगी काम हुए हैं। यहाँ पर कम्प्यूटर की शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा भी दी जा रही है इसके लिए उ0 प्र0 सरकार के अरबी-फारसी परीक्षा बोर्ड ने मान्यता दे दी है।
मदरसा शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ वर्तमान में मुस्लिम नवजवान शिक्षा की सभी संस्थाओं में अपने आपको अध्ययन के लिए उत्सुक हैं। आज मुस्लिम समुदाय के समक्ष जीविकोपार्जन एक चुनौती के रूप में है इसके लिए इनके समक्ष अब नैतिकता बौनी हो गयी है अर्थात् नैतिक शिक्षा का बल कम हो गया है। उ0 प्र0 में मकातबे इस्लामियाँ, शिक्षा को आधुनिकता का मोड़ देकर अति महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अर्थात् स्पष्ट है कि भारत में अरबी के मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सेक्यूलर शिक्षा पर भी जोर (अनिवार्यता) दिया जा रहा है।
भारत में मुस्लिम समुदाय उच्च शिक्षा में उतना आगे नहीं है जितना होना चाहिए परन्तु इसके लिए भारत सरकार अपने स्तर से पूरी छूट दिये हुए है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इस दिशा में एक महत्वपूर्ण काम कर रहा है और शिक्षा की जितनी आधुनिक प्रणालियाँ हैं वह सब यहाँ उपलब्ध हैं। सबसे अहम बात मुस्लिम समुदाय के लिए यह है कि इस वर्ग की महिलाएं शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में किसी भी वर्ग से बहुत पीछे हैं, फिलहाल कुछ भी हो आज स्कूली शिक्षा (मदरसा) के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय को अपने नौनिहालों को माध्यमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा को बढ़ाने की जरूरत है। सर सैय्यद अहमद साहब के अलीगढ़ मूवमेंट से लेकर अभी तक तमाम श्ौक्षिक सुधार अभियानों के पीछे (सच्चर समिति की रिपोर्ट को छोड़कर)बहुत सीमित मंशा काम करती रही है। इससे सबको शिक्षित करने का सवाल नहीं होता यह सामाजिक रूप से मौजूद बुराइयों को मजबूत करने वाला है और सिर्फ मुस्लिम कुलीन जमात की जरूरत को पूरा करने के ख्याल से चलाये जाते हैं। इसके लिए आज आवश्यकता है कि सरकार मुस्लिम समुदाय के लिए अन्य वर्गों की भाँति ( अनु0 जाति-अनु0 जनजाति/पिछड़े वर्ग) ठोस श्ौक्षिक नीति बनाएँ जिसमें मुस्लिमों के लिए शिक्षा पर विश्ोष बल दिये जाने की बात हो। जिससे प्राथमिक एवं माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा के महत्व पर बल दिया जाये इसके साथ ही मुस्लिम बच्चों को विश्ोष रूप से ट्रेनिंग एवं कोचिंग की व्यवस्था पर भी जोर दिया जाये।
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय के शिक्षा में पिछड़ने के पहलुओं पर पिछली एवम् वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय की रूढ़ियां एवं आर्थिक पिछड़ापन भी कम दोषी नहीं हैं। आज वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समुदाय इनके भंवर जाल के रूप में फंस गया है जिससे वह आज तक नहीं निकल पाया है फिलहाल आज के इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले युग में मुसलमान अपने को कितना आगे (श्ौक्षिक स्तर पर) ले जायेंगे यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है?
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श्ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम प्रतिभा का अदभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवम पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
सम्पर्क-वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0प्र0-285001,भारत
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विषय: आलेख
1 टिप्पणियाँ.:
सतीश सक्सेना said...
बहुत अच्छा शोध परक लेख, अशिक्षा मुस्लिम समुदाय के पिछडेपन के लिए जिम्मेवार है ! इस समुदाय को प्रोत्साहन देना सरकार के साथ साथ हम सबकी सामूहिक जिम्मेवारी बनती है जिससे मुस्लिम समुदाय और प्रतिबद्धता के साथ मुख्य धारा से जुड़ कर रहे
आवश्यकता है की अलगाव वादी शक्तियों और नफरत के सौदागरों को बेनकाब किया जाए !
सादर
10:36 AM
June 30, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा
शिक्षा में भारतीय मुसलमानों की दशा एवं दिशा
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव
किसी भी सम्प्रदाय के विकास में शिक्षा की अहम भूमिका होती है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृत एवं सभ्य बनाकर एक सुन्दर, मनोहर आदर्श समाज का सृजन करती है। सच्ची शिक्षा व्यक्ति को निर्माण की प्रक्रिया की ओर प्रेरित कर उसमें व्यवहार के परिष्कार, दृष्टिकोण को तो विकसित करती ही है साथ ही व्यक्ति के चरित्र का निर्माण और व्यवहार का निरूपण भी करती है। शिक्षा संविधान, प्रतिष्ठान, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र के आदर्श मूल्यों की प्राप्ति में मार्ग दर्शन कर सहायता करती है। अर्थात् बौद्धिक सम्पन्नता एवं राष्ट्रीय आत्म निर्भरता की जड़ शिक्षा है। शिक्षा वास्तविक मायनों में प्रवृत्ति और आन्तरिक शोध की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष सुधार उत्पन्न करती है। शिक्षा मानव को अधिक तार्किक और उदार बनाती है और पढ़ा लिखा व्यक्ति अपनी धार्मिक पहचान के प्रति संकुचित दृष्टिकोण नहीं रखता। यदि व्यक्ति या समुदाय को उचित ढ़ंग से शिक्षित किया जाये तो प्रत्येक नागरिक एकता की क्षमता को विकसित करता है जिसका परिणाम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में सामने आता है। वास्तविकता यह है कि व्यक्ति और किसी भी समुदाय के चतुर्मुखी विकास के लिए शिक्षा एक अति महत्वपूर्ण घटक के रूप में कार्य करती है।
दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र अपनी अनेक ख़ामियों के बावजूद विश्व में सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है, क्योंकि इसने (भारत) समाज के हाशिए पर पड़े समूहों समेत विभिन्न वर्गों वाली शक्तियों को जीवंत/संजीदा और मजबूत किया है। अंतर-लोकतंत्रीकरण (समाज में समान दर्जे की अनुभूति) एवं लोकतंत्रीकरण (सामाजिक और श्ौक्षिक स्थिति में सुधार) की इस प्रकिया ने दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं में नयी जान डाल दी है परन्तु इस प्रक्रिया नें भारतीय मुसलमानों को खास प्रभावित नहीं किया है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के अंदर जितनी व्यापक सामाजिक और श्ौक्षिक सुधार की पहल होनी चाहिए वह नहीं हो पा रही है। भारतीय संविधान पर दृष्टि डालें तो यह धर्म-निरपेक्षता की स्पष्ट घोषणा करता है। अर्थात् ऐसा राष्ट्र जिसका अपना कोई मजहब नहीं होता और वह किसी समुदाय के साथ धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25 प्रत्येक व्यक्ति को लोक व्यवस्था एवं स्वास्थ्य तथा नैतिकता के अधीन रहते हुए केवल ऐसा धर्म ग्रहण करने की स्वतंत्रता नहीं देता, बल्कि अपने विचारों का प्रचार व प्रसार करने के लिए अपने विश्वास को ऐसे बाहरी कार्यों में भी प्रदर्शित करने की स्वतंत्रता देता है। जैसा कि वह व्यक्ति उचित समझता है साथ ही उसके निर्णय एवं अन्तःकरण द्वारा अनुमोदित हो। धर्म की स्वतंत्रता पर राज्य द्वारा कतिपय पाबन्दी लगाने की व्यवस्था भी संविधान में है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-30 अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी पसंद की श्ौक्षिक संस्थानों को स्थापित करने और प्रबन्ध करने का अधिकार देता है। यहाँ अल्पसंख्यक से तात्पर्य मुस्लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई तथा फारसी समुदायों से है।
भारतीय मुसलमान शिक्षा में देश के अन्य समूहों से बहुत पीछे हैं यह एक स्थापित सत्य है। और इसके पीछे मुसलमानों का पिछड़ापन बताया जाता है यहाँ यक्ष प्रश्न यह है कि मुस्लिम समुदाय का आर्थिक रूप से पिछड़ापन होना, उनके श्ौक्षिक पिछड़े पन के लिए जिम्मेदार है या यूं कहा जाये कि शिक्षा में पीछे होने के कारण ही ये आर्थिक व सामाजिक रूप से पीछे रह जाते हैं। कुल मिलाकर मुस्लिम समुदाय की स्थिति भारत में श्ौक्षिक स्तर पर दयनीय है। मुस्लिम समुदाय की इस दशा को रेखांकित करने के लिए हमें कुछ वर्ष पीछे जाना पड़ेगा। देखा जाये तो वास्तव में देश विभाजन एवं देश की स्वाधीनता हमें दोनों एक साथ प्राप्त हुई। जहाँ एक ओर हम देश की स्वतंत्रता से प्रफुल्लित थे वहीं दूसरी तरफ हम देश के विभाजन से दुःखी भी थे। विश्ोषकर जिसमें मुस्लिम समुदाय को साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ा। जिनके पास जो सम्पत्ति थी उसे या तो उनको वहीं छोड़ना पड़ा था और ऐसी स्थिति में पाकिस्तान भी जाना पड़ा। अर्थात् अधिकतर मुस्लिम समुदाय के लोगों को शरणार्थी के रूप में यहाँ रहना पड़ा। स्वतंत्रता पश्चात मुसलमानों का लखनऊ में मौलाना अबुल कलाम आजाद की पहल पर एक अधिवेशन हुआ इसके द्वारा तय किया गया कि मुसलमान अपना कोई स्वतंत्र राजनीतिक दल नहीं बनायेंगे और इसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली, लेकिन मुस्लिम समुदाय की यह समस्या बनी रही कि भारतीय राष्ट्रीयता से जुड़ जाने के बाद भी साम्प्रदायिक दंगो से परेशान रहे, मुस्लिम समुदाय की वह पीढ़ी, जो भारत में 1947 के आसपास पैदा हुई थी, छठवें दशक तक आते-आते युवा हो गयी तब भी ये राजनीति की धारा में अलग-थलग बनें रहे। प्रारम्भ में कांग्रेस का दामन थामने पर इस समुदाय की बहुत ठोस जगह मुकम्मल नहीं हो पायी। पाकिस्तान के साथ बढ़ती शत्रुता और युद्धों ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया। कांग्रेस के पास मुद्दों का अभाव होने की वजह से उसने अपने वोट बैंक खिसकने की वजह से धर्म का सहारा लिया। वामपंथी एवं किसान, संगठन की मूलधारा से न जुड़ने से साम्प्रदायिकता को बल मिला। फलतः मुस्लिम समुदाय में जो सामाजिक, सांस्कृतिक, श्ौक्षिक विकास होना चाहिए था वह नहीं हो पाया और इसके परिणाम स्वरूप धर्मांध मुस्लिम नेताओं की एक नयी जमात तैयार हो गयी, क्योंकि जहाँ हिन्दुओं की शक्तियां एक होकर संस्थायें बना रही थीं (विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना, भाजपा), वहीं मुस्लिम समुदाय के भी धार्मिक संगठन बनाये जा रहे थे। साम्प्रदायिक घृणा की यह दीवार दिनों-दिन बढ़ती गयी फलतः श्ौक्षिक विकास जो इस वर्ग में होना चाहिए वह नहीं हो पाया। हालाँकि इसके लिए कुछ मुस्लिम भाई भारतीय समाज को दोषी ठहराते हैं कि हिन्दू समाज मुस्लिम समुदाय की अपेक्षा अधिक कट्टर है। परन्तु भारत एवं विश्व सहित अनेक शोध रिपोर्टों से यह साबित होता है कि ‘भारतीय समाज किसी भी देश के समाज से अधिक उन्नत समाज है इसलिए आप एक पिछड़े समाज की तुलना किसी उन्नत समाज से नहीं कर सकते और यह नहीं कह सकते कि पिछड़े समाज के मूल्य उन्नत समाज पर थोप दिये जायें।' लोगों के मस्तिष्क में चाहे जो पूर्वाग्रह हों परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात भारत में मुस्लिम समुदाय को बहुत सी ऐसी स्वतंत्रताएं हासिल हैं। जो अन्य मुस्लिम देशों में उन्हें कहीं नहीं मिलती हैं। धर्मनिरपेक्ष, व्यवस्था चाहे कितनी ही दोषपूर्ण, लोकतांत्रिक व्यवस्था चाहे जितनी ही गैर प्रतिनिधिक हो, भारत के मुस्लिम समुदाय को जो खास सहूलियतें मिली हुई हैं, वे बहुत से मुसलमानों ,यहाँ तक कि इस्लामी राष्ट्रों को भी हासिल नहीं हैं, उदाहरण के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन और राजनैतिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी की स्वतंत्रता। हालांकि ऐतिहासिक कारणों से उन्हें साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है जो बराबर मुस्लिम समुदाय को तनाव/अवसाद में डालें रखता है और कभी-कभी इसका इतना विकराल/विस्फोटक रूप हो जाता है कि उसका वर्णन नहीं किया जाता है। वास्तविकता यह है कि मुसलमानों ने जिंदगी, सम्पत्ति और सम्मान की क्षति झेली है, कुछ त्रासदी पूर्व भयानक घटनाओं ने आम लोगों के मस्तिष्क पर बहुत गहरे घाव छोड़े हैं, पर इतना क्या कम है कि मुसलमान अपने अस्तित्व में बने रहे और बढ़ते रहे। कुल मिलाकर यह मुस्लिम समुदाय आजादी और क्षति के साथ जीता रहा, पर एक बात है जैसा न्याय, अधिकार एवं बराबरी एवं शिक्षा इस समुदाय को मिलनी चाहिए। वह मुसलमानों को आज भी मुकम्मल नहीं हो पायी हैं। इसलिए इनका श्ौक्षिक स्तर अधिक नहीं बढ़ पाया है।
भारतीय मुसलमानों का श्ौक्षिक स्तर कम होने का दूसरा पहलू इनका रहन-सहन का वातावरण भी है। भारतीय मुसलमानों का रहन-सहन अपनी विशिष्ट पहचान रखता है और इसी पहचान के लिए इस समुदाय का श्ौक्षिक वातावरण (तालीमी) भी अलग रहा है। इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि मदरसों ने मुस्लिम समुदाय को साक्षरता के क्षेत्र में अति महत्वपूर्ण मुकाम पर पहुंचाया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मदरसे उन क्षेत्रों में छात्रों को साक्षर बनाते हैं, जहाँ औपचारिक शिक्षण संस्थाएं नहीं हैं शायद इसके पीछे यह कारण भी महत्वपूर्ण हो सकता है कि इन क्षेत्रों के लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी बेहतर नहीं है कि अच्छे स्कूलों में जाकर अध्ययन कर सकें इससे स्पष्ट है कि एक तो गरीबी में अधिक से अधिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार मदरसों ने किया साथ ही दूर -दराज तक साक्षरता का मिशन भी पूरा किया, परन्तु आज सैकड़ों साल पुरानी विशिष्ट मदरसा शिक्षा की भव्य इमारतों की शानदार (सुनहरी) यात्रा कर आये मदरसों को जहाँ एक खास विचारधारा के लोग आतंकवाद या धार्मिक उग्रवाद का उत्पादन केन्द्र घोषित कर रहे हैं इसके साथ ही एक धारणा यह भी जोड़ दी जाती है कि मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा बच्चों , किशोरों को धर्मांध, रूढ़िवादी , प्रचीनतावादी तथा आधुनिकता का विरोधी बनाने का काम करती है। इधर कुछ वर्षों में मदरसों के पाठ्यक्रम और शिक्षा पद्धति को लेकर भारत में बहुत सार्थक और उपयोगी काम हुए हैं। यहाँ पर कम्प्यूटर की शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा भी दी जा रही है इसके लिए उ0 प्र0 सरकार के अरबी-फारसी परीक्षा बोर्ड ने मान्यता दे दी है।
मदरसा शिक्षा प्रणाली के साथ-साथ वर्तमान में मुस्लिम नवजवान शिक्षा की सभी संस्थाओं में अपने आपको अध्ययन के लिए उत्सुक हैं। आज मुस्लिम समुदाय के समक्ष जीविकोपार्जन एक चुनौती के रूप में है इसके लिए इनके समक्ष अब नैतिकता बौनी हो गयी है अर्थात् नैतिक शिक्षा का बल कम हो गया है। उ0 प्र0 में मकातबे इस्लामियाँ, शिक्षा को आधुनिकता का मोड़ देकर अति महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अर्थात् स्पष्ट है कि भारत में अरबी के मदरसों में धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सेक्यूलर शिक्षा पर भी जोर (अनिवार्यता) दिया जा रहा है।
भारत में मुस्लिम समुदाय उच्च शिक्षा में उतना आगे नहीं है जितना होना चाहिए परन्तु इसके लिए भारत सरकार अपने स्तर से पूरी छूट दिये हुए है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इस दिशा में एक महत्वपूर्ण काम कर रहा है और शिक्षा की जितनी आधुनिक प्रणालियाँ हैं वह सब यहाँ उपलब्ध हैं। सबसे अहम बात मुस्लिम समुदाय के लिए यह है कि इस वर्ग की महिलाएं शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में किसी भी वर्ग से बहुत पीछे हैं, फिलहाल कुछ भी हो आज स्कूली शिक्षा (मदरसा) के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय को अपने नौनिहालों को माध्यमिक शिक्षा एवं उच्च शिक्षा को बढ़ाने की जरूरत है। सर सैय्यद अहमद साहब के अलीगढ़ मूवमेंट से लेकर अभी तक तमाम श्ौक्षिक सुधार अभियानों के पीछे (सच्चर समिति की रिपोर्ट को छोड़कर)बहुत सीमित मंशा काम करती रही है। इससे सबको शिक्षित करने का सवाल नहीं होता यह सामाजिक रूप से मौजूद बुराइयों को मजबूत करने वाला है और सिर्फ मुस्लिम कुलीन जमात की जरूरत को पूरा करने के ख्याल से चलाये जाते हैं। इसके लिए आज आवश्यकता है कि सरकार मुस्लिम समुदाय के लिए अन्य वर्गों की भाँति ( अनु0 जाति-अनु0 जनजाति/पिछड़े वर्ग) ठोस श्ौक्षिक नीति बनाएँ जिसमें मुस्लिमों के लिए शिक्षा पर विश्ोष बल दिये जाने की बात हो। जिससे प्राथमिक एवं माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक शिक्षा के महत्व पर बल दिया जाये इसके साथ ही मुस्लिम बच्चों को विश्ोष रूप से ट्रेनिंग एवं कोचिंग की व्यवस्था पर भी जोर दिया जाये।
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय के शिक्षा में पिछड़ने के पहलुओं पर पिछली एवम् वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के साथ-साथ मुस्लिम समुदाय की रूढ़ियां एवं आर्थिक पिछड़ापन भी कम दोषी नहीं हैं। आज वास्तविकता यह है कि मुस्लिम समुदाय इनके भंवर जाल के रूप में फंस गया है जिससे वह आज तक नहीं निकल पाया है फिलहाल आज के इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले युग में मुसलमान अपने को कितना आगे (श्ौक्षिक स्तर पर) ले जायेंगे यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है?
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श्ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवम प्रतिभा का अदभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवम पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
सम्पर्क-वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0प्र0-285001,भारत
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विषय: आलेख
1 टिप्पणियाँ.:
सतीश सक्सेना said...
बहुत अच्छा शोध परक लेख, अशिक्षा मुस्लिम समुदाय के पिछडेपन के लिए जिम्मेवार है ! इस समुदाय को प्रोत्साहन देना सरकार के साथ साथ हम सबकी सामूहिक जिम्मेवारी बनती है जिससे मुस्लिम समुदाय और प्रतिबद्धता के साथ मुख्य धारा से जुड़ कर रहे
आवश्यकता है की अलगाव वादी शक्तियों और नफरत के सौदागरों को बेनकाब किया जाए !
सादर
10:36 AM
मानवाधिकार की परिकल्पना एवम् अर्न्तद्वन्द्व
July 8, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : मानवाधिकार की परिकल्पना एवम् अर्न्तद्वन्द्व
मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिये सामाजिक वातावरण का स्वस्थ्य दृष्टिकोण आवश्यक होता है क्योंकि स्वस्थ्य (सकारात्मक) परिस्थितियों के द्वारा ही कोई व्यक्ति अपना विकास कर सकता है। समाज में मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिये कतिपय अधिकारों की आवश्यकता होती है अर्थात् इनके अभाव में उसके व्यक्तित्व का विकास समाज में संभव नहीं है। इन्हीं को मानव अधिकार कहा जाता है। मानवाधिकार शब्द अपने आपमें स्वतंत्र अस्तित्व रखता है क्योंकि मानव अपने अस्तित्व में आने तक की यात्रा में उसे अधिकार विरासत में प्राप्त होते चले गये। नैतिक एवं कानूनी रूप में जब हम मानव अधिकार की बात करते हैं तो जो मानव जाति के विकास के लिये मूलभूत मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करता हो वह मानवाधिकार कहलाता है। मानव अधिकार मानव के विशेष अस्तित्व के कारण उनसे सम्बन्धित है इसलिये ये जन्म से ही प्राप्त हैं और इसकी प्राप्ति में जाति, लिंग, धर्म, भाषा, रंग तथा राष्ट्रीयता बाधक नहीं होती। मानव अधिकार को ‘मूलाधिकार' आधारभूत अधिकार अन्तर्निहित अधिकार तथा नैसर्गिक अधिकार भी कहा जाता है। ‘‘मानव अधिकार की कोई सर्वमान्य विश्वव्यापी परिभाषा नहीं है। इसलिये राष्ट्र इसकी परिभाषा अपने सुविधानुसार देते हैं। विश्व के विकसित देश मानवाधिकार की परिभाषा को केवल मनुष्य के राजनीतिक तथा नागरिक अधिकारों को भी शामिल रखते हैं।'' मानवाधिकार को कानून के माध्यम से स्थापित किया जा सकता है। इसका विस्तृत फलक होता है, जिसमें नागरिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं, ‘‘चीन तथा इस्लामी राज्य कहते हैं कि मानवाधिकार की परिभाषा, सांस्कृतिक मूल्य के अन्तर्गत दी जानी चाहिये अर्थात् मानवाधिकार में मनुष्यों के सांस्कृतिक अधिकार को भी शामिल किया जाना चाहिये। चूँकि मानव के अधिकार नैसर्गिक हैं, लेकिन सामाजिक जागरूकता और कर्तव्यों की जानकारी न होने के कारण मानव के अधिकारों का हनन हो रहा है। ऐसी स्थिति में मानवाधिकार राज्य से विधिमान्य अपेक्षाएं रखता है साथ ही अपेक्षा करता है कि राज्य मानवाधिकार का निर्माता होने के साथ-साथ संरक्षक भी रहे।
मानव अधिकारों के पद का प्रयोग सर्वप्रथम अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने जनवरी 1941 में कांग्रेस को सम्बोधित अपने प्रसिद्ध संदेश में किया था, जिसमें उन्होंने चार मर्मभूत स्वतंत्रताओं वाक् स्वातंत्र्य गरीबी से मुक्ति और भय से स्वातंत्र्य पर आधारित विश्व की घोषणा की थी। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जब मानवाधिकार की बात होती है, तब इसे मानवाधिकार बिल के रूप में कोडीकृत तथा परिभाषित किया गया। इसमें विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों एवं घोषणाओं का योगदान है । मानवाधिकार के विकास में वैधानिक प्रावधान, प्रशासनिक आदेश तथा स्थानीय स्तर पर न्यायिक घोषणाओं की महती भूमिका रही है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मानवाधिकार की यदि हम बात करें तो मानव-अधिकार की विभिन्न समस्याएं नस्लीय भेदभाव, भाषायी अधिकार, धार्मिक अधिकार, स्वतंत्रता, लैंगिक भेदभाव (लिंगभेद), मृत्युदंड, पुलिस अत्याचार (नृशंसता) मौलिक अधिकार के उल्लंघन से जुड़ी हुई हैं। मानवाधिकार से जुड़ी ये समस्याएं अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर नीति-निर्माताओं, शिक्षकों, समाजसेवियों एवं छात्रों का ध्यान आकर्षित करने लगी हैं।
स्वतंत्र भारत का संविधान हर नागरिक के मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा की गारण्टी देता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत प्रत्येक नागरिक को अपनी मानवीय गरिमा से जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इसके तहत प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करने के साथ कुछ न्यूनतम आवश्यकतायें अनिवार्य हैं, जिसमें मजदूरों (स्त्री एवं पुरूष) के स्वास्थ्य एवं शक्ति तथा बच्चों के शोषण के विरूद्ध संरक्षण के साथ बच्चों को स्वस्थ्य रूप से विकसित होने के साथ-साथ, स्वतंत्रता एवं गरिमा का माहौल बनाए रखना, समान शिक्षा का अवसर प्रदान करना तथा मातृत्व सुविधा प्रदान करने के लिए न्यायपूर्ण एवं मानवोचित परिवेश बनाना चाहिए। लेकिन हकीकत कुछ भी हो परन्तु स्वतंत्र भारत के संविधान लागू होने के आधी सदी से अधिक बीत जाने के बाद लोगों में मानवाधिकारों के प्रति सजगता तो दिखती है परन्तु अपने कार्यक्षेत्र में अपने विरूद्ध किए जा रहे उत्पीड़न को चुपचाप सहते रहते हैं। ऐसी स्थिति में मानवाधिकार के लिए उपयुक्त वातावरण पैदा करना, विकास का केन्द्रीय एवं अपरिवर्तनीय लक्ष्य हो गया है।
रूजवेल्ट ने कहा था ‘‘स्वातन्त्र्य से हर जगह मानव अधिकारों की सर्वोच्चता अभिप्रेत है। हमारा समर्थन उन्हीं को है, जो इन अधिकारों को पाने के लिए या बनाये रखने के लिये संघर्ष करते हैं - मानव अधिकारों पद का प्रयोग अटलांटिक चार्टर में किया गया था। उसी के अनुरूप मानव अधिकारों पद का लिखित प्रयोग संयुक्त राष्ट्र चार्टर में पाया जाता है। जिसको द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात सेन फ्रांसिसको में 25 जून 1945 को अंगीकृत किया गया है।'' मानवाधिकार की विश्वव्यापी घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ के बैनर तले हुई। 10 दिसम्बर 1948 के संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकार आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में प्रारंभ करने के साथ मानवाधिकार चार्टर भी प्रकाशित किया। संघ अपने सदस्यों से अपेक्षा करता है कि इसके चार्टर का ईमानदारी से पालन किया जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा से पूर्व भी यद्यपि इस दिशा में स्थानीय स्तरों पर छोटे-मोटे प्रयास किये जाते रहे हैं जिनके योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता है पूर्व में किये गये इन छुटपुट प्रयासों के आंकलन से विदित होता है कि ‘‘सबसे पहले मानवाधिकारों के लिये संघर्ष की शुरूआत 15 जून 1215 से हुई जब ब्रिटेन के तत्कालीन सम्राट जॉन को उसके मामलों द्वारा कतिपय मानवीय अधिकारों को मान्यता देने वाले घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिये विवश किया गया था। इतिहास में इसे ‘मैग्नाकार्टा' कहा जाता है, मैग्नाकार्टा के द्वारा जो अधिकार सामन्तों को प्राप्त हुये वे कालान्तर में जनसाधारण को हस्तान्तरित हो गए। इसी प्रकार वर्ष 1628 के अधिकार-पत्र पर ब्रिटेन के सम्राट के हस्ताक्षर करवाने में ब्रिटेन की संसद सफल हुई जो कालान्तर में मानवीय अधिकारों के क्षेत्र में मील के पत्थर सिद्ध हुए।'' मानवाधिकार की अंतर्राष्ट्रीय घोषणा के तहत निम्न अधिकार समाहित हैं -
* वाक स्वतंत्रता का अधिकार
* न्यायिक उपचार का अधिकार
* सरकार (किसी देश में) की भागीदारी का अधिकार
* काम का अधिकार
* स्तरीय जीवन जीने का अधिकार
* आराम एवं सुविधापूर्ण जीवन जीने का अधिकार
* शिक्षा का अधिकार
* समान काम के लिए समान वेतन का अधिकार
* सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
* वैज्ञानिक प्रगति में भाग एवं उससे लाभ लेने का अधिकार
* जीवन, सुरक्षा एवं स्वतंत्रता का अधिकार
* मनमानी ढंग से गिरफ्तारी अथवा निर्वासन के विरूद्ध अधिकार
* विचार, विवेक एवं धार्मिक स्वतंत्रता
* निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यायिक सुनवाई का अधिकार
* शांतिपूर्ण सभा संगोष्ठी करने तथा संघ बनाने का अधिकार
संयुक्त राष्ट्र के इस घोषणा पत्र के मूल में मात्र प्रजातांत्रिक (लोकतांत्रिक) संविधानों में निहित नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार ही नहीं अपितु कई आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की भी चर्चा है। प्रत्येक नागरिक एवं राष्ट्र के लिये अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले प्रत्येक देश का यह कर्तव्य है कि वे अपने यहाँ इन अधिकारों का संवर्द्धन तथा संरक्षण सुनिश्चित करें साथ ही प्रत्येक नागरिक के लिये इन अधिकारों को प्रभावी बनाने तथा उनका निरीक्षण करने के लिये जागरूक एवं प्रेरित किया जाना चाहिए।
सन् 1948 से सन् 1954 के बीच संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने वैधानिक रूप से दो मसौदे तैयार किए। सन् 1976 में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अधिकारों से सम्बन्धित अन्तर्राष्ट्रीय मसौदा तैयार किया गया। इस अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा के साथ-साथ इन प्रावधानों को जोड़कर अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार बिल बनाया गया। इसमें नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार जहाँ परम्परागत अधिकार की श्रेणी में आते हैं, वहीं दूसरी ओर आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार, आधुनिक अधिकार हैं।
मानवाधिकार किसी व्यक्ति या समूह विशेष द्वारा की जाने वाली मांग से ज्यादा राज्य के कर्तव्य क्षेत्र का हिस्सा होना चाहिए। यदि किसी भी व्यक्ति या समूह द्वारा यह तथ्य उभारा या प्रस्तुत किया जा रहा है कि उसका मानवाधिकार हनन हो रहा है, उसके जीवन के प्रति विपरीत परिस्थितियां हैं तो यह राज्य की उपेक्षा को प्रदर्शित करता है। राज्य सत्ता से चलता है और सत्ता के मुखिया की भूमिका राजा की तरह ही है।'' भारत में मानवाधिकार की शुरूआत के बारे में आम सहमत नहीं है। एक वर्ग का मानना है कि इसकी शुरूआत स्वतंत्रता आन्दोलन के समय अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध चलाए गए आन्दोलन या अभियानों के तहत इसकी शुरूआत हुई, वहीं दूसरों का मानना है कि भारत का गौरवशाली इतिहास इस बात का साथी रहा है, जिनमें सहनशीलता, उदारता और दया भारतीय परम्परा के अभिन्न अंग रहे हैं। ऐसा सिर्फ भारत में होता आया है अन्य देश तो केवल इसे आचरण में ढालने तक ही सीमित रहे परन्तु इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली। प्राचीनकाल से हमारा धर्म एवं संस्कृति दूसरे देशों की संस्कृतियों एवं धर्मों को आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखता रहा है। हमारी वैदिक सभ्यता में सहनशीलता और दूसरों के प्रति आस्था का सम्मान करते हुए इसमें मानव अधिकार के संरक्षण की परम्परा रही है। तथापि संहिताबद्ध कानून तथा न्याय में मानव अधिकार को अनिवार्य बाध्यता के रूप में स्थान नहीं दिया गया था। यद्यपि एक विकसित न्याय व्यवस्था का अस्तित्व था, किन्तु कोई मानव अधिकार घोषणा पत्र नहीं था। हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म तथा अशोक के शिलालेखों पर उत्कीर्ण दार्शनिक आध्यात्मिक और धार्मिक विचारों में मानव-अधिकार के पुट व्याप्त थे। मौलिक अधिकारों की मान्यता स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान की गई। यह संघर्ष मूलरूप से नागरिक एवं मानवाधिकारों को कुचलने के विरूद्ध था। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान चले स्वराज (भारतीय शासन) आन्दोलन लाखों भारतीयों में आत्म चेतना जगाने तथा उन्हें नैतिक एवं वैधानिक रूप से सजग बनाने का प्रयत्न था।
आजादी के पश्चात भारतीय संविधान में नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए ठोस प्रावधान बनाए गए तथा उन्हें न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व का दर्जा प्रदान किया गया।
भारतीय एवं वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखने पर मानव अधिकार की विभिन्न समस्याएं दृष्टिगोचर होती हैं, जिनमें प्रमुख नस्लीय भेदभाव, धार्मिक अधिकार, भाषाई अधिकार, लिंगभेद, पुलिस अत्याचार आदि जो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के कारण उत्पन्न हुई हैं। वर्तमान के युग में मानव अधिकार उल्लंघन की कई घटनायें घटित हो रही हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में दलितों पर अत्याचार, बड़ी परियोजनाओं के कारण लोगों के विस्थापन, प्राकृतिक आपदा (चक्रवात, सूखा इत्यादि) से प्रभावित लोगों की मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराने सम्बन्धी कमी की समस्या, बच्चों के साथ अमानवीय बर्ताव, बच्चों की वेश्यावृत्ति के लिए बाध्य करना (विशेषकर दिल्ली, कर्नाटक और उड़ीसा में) कई राज्यों में आतंकवादी गतिविधियों, जेल में बलात्कार तथा उत्पीड़न, महिला हिंसा, बंधुआ मजदूरी, अल्पसंख्यकों के प्रति किया जाने वाला अत्याचार एवं धार्मिक सहिष्णुता के प्रश्न जुड़े हुए हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात मानव अधिकारों के प्रति विश्व समुदाय की चिन्ता लाजिमी थी और भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन इस बात का जीवंत उदाहरण है, जिसमें नागरिक अधिकार एवं मानव अधिकारों के लिए ही लड़ाई लड़ी गयी। पं․ जवाहर लाल नेहरू ने स्वतंत्रता आन्दोलन के पहले ही इन मानव सम्बन्धी अधिकारों का प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था। पं․ जवाहर लाल नेहरू की निस्वार्थ भावना और निष्ठा से इस दिशा में प्रगति हुई और उत्तरोत्तर विकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्थापना सन् 1993 में की गई। यह राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिए हमारी चिन्ता का प्रतिफल है। इसका गठन मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1933 के अधीन किया गया, जो 28 सितम्बर 1993 से अस्तित्व में आ गया। जम्मू एवं कश्मीर राज्य इसका अपवाद है। यह अधिनियम इस राज्य के उन्हीं विषयों पर लागू होता है, जिनकी चर्चा सूची 1 से 3 तक तथा अनुसूची टप्प्प् में है। इस अधिनियम में आयोग को वैधानिक दर्जा मिलने के साथ-साथ यह भारत में मानव अधिकार के संरक्षण तथा संवर्द्धन का आधार तैयार करता है। मानव अधिकार अधिनियम 1993 की धारा (30) में मानव अधिकार हनन से जुड़े मामलों की शीघ्र जांच तथा न्याय दिलाने के लिए मानव अधिकार न्यायालयों के गठन का प्रावधान है। इसके साथ ही आयोग निम्न कार्य निष्पादित करेगा -
* घटना से पीड़ित व्यक्ति के द्वारा दायर याचिका पर जांच करेगा साथ ही उसे यह भी जांच करने का अधिकार है कि लोक सेवक द्वारा कहाँ तक ढिलाई की गई है।
* मानव अधिकार को हनन करने वाले आतंकवाद सहित अन्य कारकों की समीक्षा करेगा। इसको समाप्त करने के उपचार भी करेगा।
* समाज के विभिन्न वर्गों में मानव अधिकार के प्रति सजगता फैलाएगा। वह प्रकाशनों, मीडिया तथा सेमिनारों के माध्यम से मानव अधिकार संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाएगा।
* मानव अधिकार के क्षेत्र में कार्यरत गैर सरकारी संगठनों तथा अन्य संस्थाओं को प्रोत्साहित तथा मानव अधिकार सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय घोषणाओं और रूचियों की समीक्षा करेगा तथा उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए उपाय सुझाएगा। मानवाधिकार पर शीघ्र कार्य को प्रोत्साहित करेगा।
* किसी न्यायालय में मानव अधिकार उल्लंघन का मामला दर्ज हो तो उस न्यायालय के अनुमोदन से मामले में हस्तक्षेप करेगा। साथ ही राज्य सरकार को सूचित कर राज्य सरकार द्वारा संचालित किसी उपचार स्थल शिविरों एवं अन्य संस्थानों में जहाँ लोगों को रखा गया है, उनकी स्थिति जाँचने के लिए पहुँच सकता है।
थ् मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए संवैधानिक प्रावधान अथवा किसी कानून की समीक्षा कर सकता है और उसे प्रभावी बनाने के लिए सुझाव दे सकता है।
ऐसी परिस्थितियों में आयोग कार्य करते हुए अपना दृष्टिकोण रखता है और इसके कार्यों का उल्लंघन करने पर उसे निम्न अधिकार प्राप्त हैं -
1908 की सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत आयोग को सिविल न्यायालय की शक्ति प्राप्त है, जिसके तहत आयोग गवाह के खिलाफ सम्मन जारी कर सकता है। साक्ष्य खोजने और संरक्षण का अधिकार के साथ शपथनामा (प्रमाणपत्र प्राप्त करने) सार्वजनिक रिकार्ड प्राप्त करने, किसी न्यायालय से कागजात प्राप्त करने इत्यादि के अधिकार इसके पास हैं। आयोग अथवा आयोग द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति किसी भवन में प्रवेश कर सकता है, उसे साक्ष्य को जब्त करने और उसकी प्रति प्राप्त करने का अधिकार है। साक्ष्य एवं गवाहों की तहकीकात के पश्चात संतुष्ट होने पर वह मामले को दण्डाधिकारी को सुपुर्द करने का अधिकार रखता है। आयोग के समक्ष कोई भी कार्यवाही, न्यायिक कार्यवाही मानी जायेगी।
भारत के राज्यों में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 21 में राज्य में मानवाधिकार आयोग गठन का प्रावधान है और राज्यों में इसके गठन की प्रक्रिया तेजी से बढ़ रही है। इन आयोगों के वित्तीय भार का वहन राज्य सरकारों द्वारा किया जाता है। सम्बन्धित राज्य का राज्यपाल, अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है। आयोग का मुख्यालय राज्य में कहीं भी हो सकता है।
सन् 1993 की धारा 21 (5) के तहत राज्य मानव अधिकार के हनन से सम्बन्धित उन सभी मामलों की जांच कर सकता है, जिनका उल्लेख भारतीय संविधान की सूची में किया गया, वहीं धारा 36 (9) के अनुसार आयोग ऐसे किसी भी विषय की जांच नहीं करेगा, जो किसी राज्य आयोग अथवा अन्य आयोग के समक्ष विचाराधीन है।
राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह बात स्वीकार की गई है कि मानवाधिकार के बिना धारणीय विकास सम्भव नहीं है, किन्तु यहाँ लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि विकास के बिना मानव अधिकार में संवर्द्धन भी नहीं हो सकता है, इसके लिए विवेक सम्मत विधान और सशक्त समाज की आवश्यकता है, किन्तु देखा जाए तो ये अपने आपमें पूर्ण नहीं है। मानव अधिकार को अवधारणा एवं निर्माण की दृष्टि से देखा जाये तो इसे सरकार एवं संगठित लोगों ने बनाया है वे स्वतः नहीं मिलते क्योंकि सार्वजनिक सेवा का लाभ समाज के गरीब वर्गों को तभी मिलता है, जब सरकार उसे प्रदान करने में सक्षम होती है और ऐसा तभी होता है, जब वहाँ का शासन भ्रष्टाचार से मुक्त होता है। बालश्रम को तभी समाप्त किया जा सकता है, जब समाज की आर्थिक परिस्थिति ऐसी हो, जिसमें बच्चे माता-पिता की आय पर आश्रित हों तथा सक्षम न्याय प्रणाली द्वारा कानूनी प्रावधानों का पालन होता हो। वियना में आयोजित मानवअधिकार सम्मेलन में प्रत्येक मानव को समान महत्व दिया गया। संयुक्त राष्ट्र चार्टर में सर्वप्रथम बहुउद्देशीय मानव अधिकार संधि की चर्चा की गई। संयुक्त राष्ट्र, चार्टर में मानव अधिकार की घोषणा प्रस्तावना-अनुच्छेद 1, 13 अनुच्छेद 55, अनुच्छेद 68, अनुच्छेद 76 में है। इसके प्रस्तावना में कहा गया ‘‘हम संयुक्त राष्ट्र संघ के लोग भावी पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने के लिए कृत संकल्प हैं। हमने अपने जीवन काल में मानव समुदाय को दो बार इन विभीषिकाओं से उत्पीड़ित होते देखा है। हम मौलिक अधिकार गरिमा और मानव मूल्य में विश्वास व्यक्त करते हुए स्त्री-पुरूष के समान अधिकारों तथा छोटे-बड़े राष्ट्रों को एक दृष्टि से देखने का प्रयास करेंगे। इस घोषणा के अनुच्छेद 30 में नागरिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार प्रदान करने की बात कही गई है। इस प्रकार 1948 का घोषणा पत्र स्वतंत्रता के क्षेत्र में सभी राष्ट्रों को समान मानदंड उपलब्ध कराता है। इस घोषणा के अनुच्छेद (1) में कहा गया है कि सभी मनुष्य जन्म से समान हैं तथा वे अधिकार एवं गरिमा में बराबर हैं।'' मानव को सभी के साथ तर्कयुक्त एवं विवेकपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। उन्हें दूसरों के साथ विनम्र एवं मातृत्वपूर्ण आचरण करना चाहिए। मानव अधिकार सम्बन्धी वैधानिक रूप से बाध्य करने वाले दो अन्तर्राष्ट्रीय मसौदे तथा नागरिक एवं राजनैतिक अधिकार से सम्बन्धित समझौते को 23 मार्च, 1976 को कार्यान्वित किया गया। इन दोनों घोषणाओं के आधार पर भारत ने अपना मानव अधिकार सम्बन्धी घोषणा पत्र तैयार किया।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की जब हम बात करते हैं तो आज मानव अधिकार की अवधारणा महत्वपूर्ण हो गयी है। मानव अधिकार आन्दोलन की उपादेयता तभी है, तब समाज के सभी नागरिकों को मानव अधिकार उपलब्ध हों। मानव अधिकार का मूल मकसद (अवधारणा) यह होना चाहिए कि समाज से सभी प्रकार के भेदभाव का अन्त हो। वर्तमान राजनैतिक तंत्र राष्ट्रीय लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। भारत के संदर्भ में जिन मूल्यों के आधार पर स्वतंत्रता आन्दोलन चलाया गया, उसकी अत्यन्त आवश्यकता है। वे मूल्य विश्लेषण और विकास के लिए उचित ढ़ांचा प्रदान करते हैं। वर्तमान में पाश्चात्य विचारों के समागम ने मानव चेतना को झकझोर दिया है। भारत ने सभी उत्तम विचारों को विवेकपूर्ण दृष्टि से स्वीकार करते हुए एक राजनैतिक तंत्र विकसित किया है और संविधान निर्माता यह महसूस करते थे कि बुनियादी मानवाधिकार के बिना प्राप्त की गई स्वतंत्रता बेमानी है। इसलिये भारतीय संविधान में मानवाधिकारों को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
नागरिक स्वतंत्रता के लिए भारत के कर्णधारों ने प्रारम्भ से ही ध्यान देना शुरू कर दिया था और इसी के तहत भारत में मानव अधिकारों को शुरू से ही महत्व दिया जाता रहा है। किन्तु हाल के वर्षों में भारतीय परिप्रेक्ष्य में मुम्बई दंगे, गुजरात के दंगे, तमिलनाडु एवं उड़ीसा में झींगा की खेती, गोधरा काण्ड, संसद पर हमला, उड़ीसा में पुलिस हिरासत में सुमन बेहरा को बंधक बनाकर रखने की घटना एवं सार्वजनिक रूप से महिलाओं की हत्या, हिंसा जैसी घटनाएं मानवाधिकार के हनन के साक्ष्य हैं। इससे मानवाधिकार के फलक में विस्तार हो रहा है। हमारे भारतीय समाज की लगभग आधी आबादी गरीबी में जीवन व्यतीत कर रही है। आधे निरक्षरता के अंधकार में डूबे हुए हैं। शोषण के कारण समाज का एक बड़ा समूह उत्पीड़ित है अर्थात् मानव गरिमापूर्ण जीवन नहीं व्यतीत कर रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता अक्सर उत्पीड़न, बर्बरता, अमानवीय व्यवहार और क्रूरता का प्रश्न उठाते हैं किन्तु वे भूल जाते हैं कि घोर दरिद्रता के कारण लोग किस प्रकार दयनीय जीवन-यापन व्यतीत कर रहे हैं। लोगों को मानव अधिकार के प्रति सचेत तथा इससे सम्बन्धित समस्याओं के समाधान के लिए क्या कुछ उपाय होने चाहिए यह शोध का केन्द्र बिन्दु है।
देश में आबादी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश न सिर्फ मानवाधिकारों के हनन के मामलों में सबसे आगे हैं, बल्कि पूरे देश में इन मामलों की दर्ज शिकायतों में से आधे से अधिक इस राज्य से हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की 15 अप्रैल 2008 को जारी रिपोर्ट के अनुसार, मानवाधिकार के हनन के मामले में उ․ प्र․ के बाद देश की राजधानी दिल्ली का नम्बर आता है। ‘‘मानवाधिकार हनन के राष्ट्रीय आयोग में दर्ज 60 फीसदी मामले उ․ प्र․ के हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की हाल की (2005-2006) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 74444 मामलों में से अकेले 44560 मामले उ․ प्र․ के हैं यह शर्मनाक स्थिति है। दिल्ली के 5027, बिहार के 4545, हरियाणा के 3000, राजस्थान के 2500, उत्तराखण्ड के 1789 मामले दर्ज हैं। लक्ष्यद्वीप से एक भी शिकायत नहीं आयी है।''
रिपोर्ट में कहा गया है कि नागालैण्ड ऐसा राज्य है जहाँ इस सम्बन्ध में सबसे कम केवल दो मामले दर्ज किए गये। सिक्किम और दादरा नगर हवेली में मानव अधिकारों के हनन से सम्बन्धित पाँच-पाँच मामले दर्ज किये गये।
हाल के वर्षों में मानवाधिकार के हनन के सबसे अधिक मामले महिलाओं से सम्बन्धित हैं, क्योंकि वर्तमान में भारतीय महिलाएं समाज एवं राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता कर रही हैं। परन्तु इससे उनके प्रति घरेलू हिंसा के अलावा कार्यस्थल पर सड़कों एवं सामाजिक यातायात के माध्यमों में एवं समाज के अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में भी वृद्धि हुई है। इसमें शारीरिक, मानसिक एवं यौन सभी प्रकार की हिंसा सम्मिलित है।
सन् 1997-98 की रिपोर्ट देखने पर स्पष्ट होता है कि देश भर के 26 राज्यों में मानवाधिकार उल्लंघन की कुल 35779 शिकायतें प्राप्त हुई, जिससे 17453 सिर्फ उत्तर प्रदेश के थे। राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार उ․ प्र․ में महिला उत्पीड़न के कुल 18929 मामले दर्ज हुए (2001) जो देश में महिलाओं से जुड़े अपराधों का 13․4 प्रतिशत हैं। इसमें 31․8 प्रतिशत दहेज हत्याएं हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार उत्तर प्रदेश में 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के प्रति हिंसा के सन् 2003 में पंजीकृत मामले हैं - प्रताड़ना (30․4 प्रतिशत), छेड़छाड़ (25 प्रतिशत), अपहरण (12 प्रतिशत), बलात्कार (12․8 प्रतिशत), भ्रूण हत्या (6․7 प्रतिशत), यौन उत्पीड़न (4․90 प्रतिशत), दहेज मृत्यु (4․6 प्रतिशत), दहेज निषेध (2․3 प्रतिशत) व अन्य (6 प्रतिशत)। वैसे तो यह अपराध पूरे राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं, पर इनमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में आधे से कुछ अधिक अपराधों में आधे से कुछ अधिक अपराध (56․70 प्रतिशत)। केवल पाँच राज्यों में होते हैं।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव को न करने के सिद्धान्त की पुष्टि की थी और घोषित किया था कि सभी मानव स्वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान है तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शामिल है, सभी अधिकारों एवं स्वतंत्रता के हकदार हैं। फिर भी महिलाओं के विरूद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा है, थोड़ा पीछे चलें तो सर्वप्रथम 1946 में महिलाओं की प्रास्थिति पर आयोग की स्थापना की गई थी। महासभा ने 7 नवम्बर, 1967 को महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय अंगीकार किया गया। सन् 1981 एवं 1999 में यौन-शोषण एवं अन्य दुख से पीडित महिलाओं को सक्षम बनाने की व्यवस्था की गई।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक (1976-1985) के दौरान महिलाओं के तीन सम्मेलन हुए। चौथा सम्मेलन वर्ष 1995 में बीजिंग में हुआ, जिसके द्वारा महिलाओं के सम्बन्ध में बहुत अधिक जानकारी हुई है और जो राष्ट्रीय महिला आन्दोलनों एवं अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच अमूल्य घड़ी का आधार बना। मानवाधिकार संरक्षण कानूनों एवं राष्ट्रीय महिला आयोग के गठन से नारी की समाज में स्थिति कुछ सुदृढ़ हुई है। अब महिला उत्पीड़न की घटनाओं में अपेक्षाकृत कमी आयी है। लेकिन यह बुन्देलखण्ड क्षेत्र में क्या है ? शोध का प्रश्न है ?
स्टेट ऑफ राजस्थान, ए․ आई․ आर․ 1997 एम․ सी․ 3011 मामला कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीड़न से सम्बन्धित है। इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रोकथाम के लिए प्रमुख दिशा निर्देश जारी किए जिसमें यौन शोषण प्रमुख है। इसके अलावा भारतीय दंड संहिता 1860 में भी महिलाओं के विरूद्ध किए गए अपराधों के लिए कठोर दंड की व्यवस्थाएं की गई हैं। धारा 354 में स्त्री की लज्जा, धारा 66 में अपहरण, धारा 376 में बलात्कार, धारा 398-क में निर्दयतापूर्ण व्यवहार तथा धारा 509 व 410 में स्त्री का अपमान करने को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया। दहेज की मांग की विभीषिका से नारी की रक्षा करने हेतु दहेज निषेध अधिनियम 1991 पारित किया गया है। सती निवारण अधिनियम 1957 में सती प्रथा के निवारण हेतु कठोर दंड की व्यवस्था की गई है। ओंकार सिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान 1955 के मामले में इस अधिनियम को संवैधानिक घोषित किया गया है। भारतीय हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम सन् 1956 की धारा 18 स्त्रियों की सम्पत्ति में मालिकाना हक प्रदान करता है। श्रम कानून महिलाओं के लिए संकटापन्न स्थिति तथा रात्रि में कार्य का निषेध करते हैं। मातृत्व लाभ अधिनियम कामकाजी महिलाओं को प्रसूति लाभ की सुविधाएं प्रदान करता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 में उपेक्षित महिलाओं के भरण-पोषण का प्रावधान किया गया है। देवेन्द्र सिंह बनाम जसपाल कौर ए․ आई․ आर․ - 1999 पंजाब एण्ड हरियाणा 229 बाद में उच्चतम न्यायालय ने अभी निर्धारित किया कि विवाह शून्य एवं उत्कृष्ट घोषित हो जाने पर भी पत्नी हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 25 के अन्तर्गत भरण-पोषण पाने की हकदार होती है। देश के संविधान में 12वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21 क(ङ) के अन्तर्गत जारी सम्मान के विरूद्ध प्रथाओं को समाप्त करने का आदेश अंगीकृत किया गया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नारी विषयक मानवाधिकारों की विभिन्न एवं न्यायिक निर्णयों में पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया गया है। वर्तमान समय में यह कहाँ तक परिलक्षित होता है ? शोध का प्रश्न है।
इतना सब कुछ होने के बाद आज महिलाओं के प्रति विश्वव्यापी हिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं, जिससे कोई भी समुदाय, समाज एवं देश मुक्त नहीं है। महिलाओं के प्रति भेदभाव इसलिए विद्यमान हैं क्योंकि इसकी जड़ें सामाजिक प्रतिमानों एवं मूल्यों में जमीं हुई हैं और वे अन्तर्राष्ट्रीय करारों के परिणामस्वरूप परिवर्तित नहीं होते हैं, वैसे तो महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के कारणों को समाप्त किए बिना उसका पूर्ण निदान संभव नहीं पर यदि पाश्चात्य एवं विकसित देशों पर दृष्टिपात करें तो ऐसा लगता है कि इसका कारण मानवीय संरचना ही है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में विशेषकर उ0 प्र0 में मानवाधिकारों के प्रति आम जनता में जागरूकता का अभाव सा परिलक्षित होता है। यह विशेष रूप से बुन्देलखण्ड के क्षेत्र में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यहाँ शोषण, अन्याय, उत्पीड़न, अत्याचार लोगों के अधिकारों का हनन आदि सामान्य रूप से प्रचलित हैं। शहरी संस्कृति की विकृतियों के कारण आज भी भारत के किसी भी कोने में किसी भी महिला के साथ जो बिना अंगरक्षकों के चलती है, उनके साथ किसी भी समय कुछ भी घटित हो सकता है और इसके लिए जरूरी नहीं कि अपराधी पकड़ा ही जाए।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि मानव अधिकारों को प्रोत्साहित करने के लिए तथा भविष्य में मानव अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीय विधि प्रणाली को और भी अधिक प्रभावी बनाया जाए नहीं तो केवल आदेश और निर्देश जारी कर देने भर से कुछ बनने वाला नहीं, जब तक मानवाधिकार के मुख्य नियम एवं लोगों में जागरूकता सम्बन्धी निर्देशों के पालन की दिशा में हम सचेष्ट नहीं होंगे तब तक जुल्म का यह सिलसिला चलता रहेगा और यूँ ही सूली पर लटका रहेगा मानवाधिकार।
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके पांच सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्याओं को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, डी0 वी0(पी0 जी0) कालेज उरई, जालौन उ0 प्र0 285001 , भारत
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 12:14 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!
विषय: आलेख
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