June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
(युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फ़ेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)
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पर्यावरण की वर्तमान समस्या को देखते हुए आज सम्पूर्ण विश्व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्पष्ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्टि, बिजली और अक्सर सूखे की स्थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्योंकि ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्च शक्ति के हथियार इस्तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्व के अन्य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्हीं समस्याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद् काफी समय से संघर्षरत थे।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्तित्व के प्रति चिन्तित होने का आगाह किया है। सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्हें फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्तेमाल ज्यादा है और प्राप्ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।
सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित हो गया है। इस स्थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्तित्व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्तविकता यह है कि हमारी पृथ्वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।
सहस्त्राब्दी के इस पर्यावरण अध्ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन् 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्ड) जीव जन्तुओं और जलीय वनस्पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।
वनों के विनाश पर प्रस्तुत सहस्त्राब्दी अध्ययन रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त की गयी है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ‘सन् 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्योंकि इससे वनों से होने वाले उत्पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्यौता देकर स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्त में इंग्लैण्ड और वेल्स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन् 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्पाद 100 अरब डालर ज्यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने माना है कि सन् 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य की सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्व सभी से ज्यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्भीरता से समझना होगा।
निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्य और विभिन्न परिकल्पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्तियों के आधार पर सहस्त्राब्दी आकलन रिपोर्ट में निम्न चार स्थितियों पर विस्तार दिखाई देता है - हस्तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार
- एक वैश्विक समाज बनेगा जो विश्व व्यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्यादा होगा। उम्मीद है कि इस स्थिति में 2050 तक जनसंख्या सबसे कम होगी।
- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्थानीय संस्थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्या का सवाल है सन् 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।
- इस परिदृश्य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्या मध्यम स्थिति में रहे।
- इस परिदृश्य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्य में आर्थिक विकास और घटेगा।
भावी वैश्विक परिदृश्य की ये परिकल्पनाएं महज अटकल या भविष्यवाणी नहीं हैं बल्कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्तियों के विकास के धुंधले दृश्य हैं। इन्हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्य का नक्शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्मीद है कि पहले परिदृश्य में व्यापार बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, सब्सिडी खत्म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्म करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्यता और ज्ञान का प्रवाह संस्थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्पादन बढ़ेगा, विकल्प बढ़ेंगे और हानिकारक व्यापार में कमी आएगी।
वैश्विक तापमान को कम करने का वैश्विक प्रयास ः क्योटो प्रोटोकॉल
वैश्विक गरमाहट की समस्या पृथ्वी के समक्ष एक आसन्न संकट है जिससे समग्र जैव समष्टि का भविष्य जुड़ा हुआ है क्योंकि हमारी पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्पूर्ण विश्व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्लोरो फ्लोरो, नाइट्रस आक्साइड तथा सल्फर-डाई-आक्साइड हैं। वायुमण्डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे।
हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन् 1930 में इसकी सान्द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्य तक ब्व्2 की सान्द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्न हो जाएंगे। रेगिस्तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्टि के लिए घातक होगी।
जलवायु परिवर्तन की समस्या जो कि एक वैश्विक चुनौती है, का हल भी वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्त रूप से विभिन्न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्योटो प्रोटोकॉल। क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्तित्व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आया बल्कि कई सम्मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्यक है -
क्योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलन एवं तिथियाँ -
- विश्व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्ता 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें सन् 2000 तक कार्बन-डाई-आक्साइड को 1990 के स्तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्तु यह सम्मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये।
- UNFCCC द्वारा प्रस्तावित समझौते को कानूनी बाध्यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।
- 1997 में 165 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल (क्योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया)।
- सन् 2000 में हेग में क्योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्मेलन बुलाया गया परन्तु किसी अन्तिम निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।
- नवम्बर 2001 में 160 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्वीकार किया।
- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।
- अभी हाल ही में 11 सितम्बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्ड में सम्मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्सर्जन के बारे में क्या किया जायेगा। ।ैम्ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।
विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये। परन्तु यह समझौता भविष्य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।
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सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!
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June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
(युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फ़ेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)
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पर्यावरण की वर्तमान समस्या को देखते हुए आज सम्पूर्ण विश्व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्पष्ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्टि, बिजली और अक्सर सूखे की स्थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्योंकि ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्च शक्ति के हथियार इस्तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्व के अन्य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्हीं समस्याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद् काफी समय से संघर्षरत थे।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्तित्व के प्रति चिन्तित होने का आगाह किया है। सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्हें फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्तेमाल ज्यादा है और प्राप्ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।
सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित हो गया है। इस स्थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्तित्व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्तविकता यह है कि हमारी पृथ्वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।
सहस्त्राब्दी के इस पर्यावरण अध्ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन् 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्ड) जीव जन्तुओं और जलीय वनस्पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।
वनों के विनाश पर प्रस्तुत सहस्त्राब्दी अध्ययन रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त की गयी है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ‘सन् 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्योंकि इससे वनों से होने वाले उत्पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्यौता देकर स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्त में इंग्लैण्ड और वेल्स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन् 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्पाद 100 अरब डालर ज्यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने माना है कि सन् 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य की सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्व सभी से ज्यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्भीरता से समझना होगा।
निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्य और विभिन्न परिकल्पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्तियों के आधार पर सहस्त्राब्दी आकलन रिपोर्ट में निम्न चार स्थितियों पर विस्तार दिखाई देता है - हस्तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार
- एक वैश्विक समाज बनेगा जो विश्व व्यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्यादा होगा। उम्मीद है कि इस स्थिति में 2050 तक जनसंख्या सबसे कम होगी।
- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्थानीय संस्थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्या का सवाल है सन् 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।
- इस परिदृश्य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्या मध्यम स्थिति में रहे।
- इस परिदृश्य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्य में आर्थिक विकास और घटेगा।
भावी वैश्विक परिदृश्य की ये परिकल्पनाएं महज अटकल या भविष्यवाणी नहीं हैं बल्कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्तियों के विकास के धुंधले दृश्य हैं। इन्हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्य का नक्शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्मीद है कि पहले परिदृश्य में व्यापार बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, सब्सिडी खत्म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्म करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्यता और ज्ञान का प्रवाह संस्थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्पादन बढ़ेगा, विकल्प बढ़ेंगे और हानिकारक व्यापार में कमी आएगी।
वैश्विक तापमान को कम करने का वैश्विक प्रयास ः क्योटो प्रोटोकॉल
वैश्विक गरमाहट की समस्या पृथ्वी के समक्ष एक आसन्न संकट है जिससे समग्र जैव समष्टि का भविष्य जुड़ा हुआ है क्योंकि हमारी पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्पूर्ण विश्व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्लोरो फ्लोरो, नाइट्रस आक्साइड तथा सल्फर-डाई-आक्साइड हैं। वायुमण्डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे।
हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन् 1930 में इसकी सान्द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्य तक ब्व्2 की सान्द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्न हो जाएंगे। रेगिस्तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्टि के लिए घातक होगी।
जलवायु परिवर्तन की समस्या जो कि एक वैश्विक चुनौती है, का हल भी वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्त रूप से विभिन्न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्योटो प्रोटोकॉल। क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्तित्व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आया बल्कि कई सम्मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्यक है -
क्योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलन एवं तिथियाँ -
- विश्व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्ता 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें सन् 2000 तक कार्बन-डाई-आक्साइड को 1990 के स्तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्तु यह सम्मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये।
- UNFCCC द्वारा प्रस्तावित समझौते को कानूनी बाध्यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।
- 1997 में 165 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल (क्योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया)।
- सन् 2000 में हेग में क्योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्मेलन बुलाया गया परन्तु किसी अन्तिम निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।
- नवम्बर 2001 में 160 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्वीकार किया।
- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।
- अभी हाल ही में 11 सितम्बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्ड में सम्मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्सर्जन के बारे में क्या किया जायेगा। ।ैम्ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।
विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये। परन्तु यह समझौता भविष्य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।
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सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!
विषय: आलेख
June 16, 2009
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
सहस्त्राब्दी का पर्यावरण आकलन
(संयुक्तराष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी विशेष रिपोर्ट)
-डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
(युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फ़ेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।)
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पर्यावरण की वर्तमान समस्या को देखते हुए आज सम्पूर्ण विश्व के लोग चिंतित हैं इस चिंता के लक्ष्य एवं कारण भी आज चारों तरफ स्पष्ट दिखने लगे हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में पिछले कुछ वर्षों से बेमौसम बरसात, आँधी, चक्रवात, ओलावृष्टि, बिजली और अक्सर सूखे की स्थिति ने अचानक लोगों को परेशान कर दिया है। मौसम का यह बदलता मिजाज मध्य एशियाई क्षेत्र में वातावरण अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण माना जाता है। क्योंकि ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और आस-पास के इलाकों में आतंकी गतिविधियाँ चल रही हैं और उसके कारण स्थिति युद्ध जैसी है। इस अफगान युद्ध ने वातावरण में बारूद के बारीक कण बिखेर दिए हैं। इनकी वजह से वातावरण अत्यधिक गर्म हो उठा है इसके साथ ही अफगान-पाक सीमा पर कम दबाव का क्षेत्र बन गया है। इस वर्ष से इस इलाके में बमबारी हो रही है और उच्च शक्ति के हथियार इस्तेमाल होने के कारण इन सबसे पैदा हुई गर्मी का असर दिख रहा है। ईरान, इराक और अफ़गानिस्तान के बिगड़े मौसम का असर भी विश्व के अन्य देशों में पड़ा है। अपने निजी फायदे की वजह से पश्चिमी देश वातावरण में जहर घोल रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित एशियाई देश हो रहे हैं जिसने यहाँ की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की गाड़ी को उल्टी तरफ मोड़ दिया है। पर्यावरण के इस त्रासद खतरे को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम ने पिछले दिनों जिस रिपोर्ट को प्रकाशित किया है, उसमें इन्हीं समस्याओं को रखा गया है जिसके लिए पर्यावरणविद् काफी समय से संघर्षरत थे।
संयुक्त राष्ट्र की पहल पर बनी इस पहली सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन, 2005 रिपोर्ट जारी की गयी। पच्चानवे देशों के 1360 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गयी इस रिपोर्ट में ढाई हजार पेजी दस्तावेज मौजूद हैं। इस रिपोर्ट को तैयार होने में लगभग चार वर्ष लगे हैं। रिपोर्ट में भविष्य के लिए नयी पीढ़ी को सतर्क होने एवं अपने अस्तित्व के प्रति चिन्तित होने का आगाह किया है। सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि विकास की अंधाधुंध दौड़ में हमने धरती का कोना-कोना तहस-नहस कर डाला है। नदी, नाले, जंगल, पहाड़, महासागर यहाँ तक कि वीरान ध्रुव प्रदेश भी बेहाल है। धरती पर जीवन को संचालित करने वाले लगभग दो तिहाई कुदरती घटक छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। दरअसल, कुदरत का जर्रा-जर्रा हवा, पानी और जीवन के लिए जरूरी पोषक तत्वों को लगातार चलायमान बनाये रखता है। इन्हें फिर से इस्तेमाल करने लायक बनाकर जीवन को संचालित करता है, लेकिन अब दिक्कत यह है कि मानव की दखलंदाजी के कारण ये प्रजातियाँ बर्बादी की कगार पर आ खड़ी हुई हैं। धरती की कुल 24 पारिस्थितिकी प्रजातियों में से 15 पूरी तरह क्षतिग्रस्त पायी गईं। इनमें शायद सबसे बुरा हाल जमीन का है। खेती के लिए पिछले साठ वर्षों में जितना जमीन पर कब्जा किया गया उतना अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मिलाकर भी नहीं किया गया था। नतीजा आज धरती की 24 फीसदी से ज्यादा जमीन पर खेती हो रही है। यानी फ़सलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए पहले से कहीं ज्यादा रासायनिक खादों और पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इसलिए पिछले 40 वर्षों में नदियों और झीलों से पानी निकालने की मात्रा दुगुनी हो गयी है। आज धरती पर मौजूद मीठे पानी की 40 से 50 फीसदी मात्रा मानव द्वारा इस्तेमाल की जा रही है। पानी की लगातार बढ़ती माँग के कारण धरती में छिपा भूजल का अनमोल खजाना भी बड़ी तेजी से खाली होता जा रहा है। पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल ने कुदरती जल चक्र का संतुलन बिगाड़ दिया है। जल का इस्तेमाल ज्यादा है और प्राप्ति कम। कुल मिलाकर रपट कहती है कि जल्दी ही धरती पर पानी के लिए हाहाकार मचने वाला है।
सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में बताया गया है कि पारिस्थितिकी तंत्र का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रदूषित हो गया है। इस स्थिति में अगले पचास वर्षों में मानव अस्तित्व पर संकट, आ सकता है। ‘दुनिया की प्रमुख नदियों में पानी की मात्रा लगातार घटती जा रही है। चीन की यलोरिवर अफ्रीका की नाइल नदी और उत्तरी अमेरिका की कोलो राडो नदी साल के तीन महीनों के दौरान सागर में मिलने से पहले ही सूख जाती है। नदियों को पानी से लबालब भरने वाले ग्लेशियर बढ़ते तापमान के कारण लगातार पिघलते जा रहे हैं। इसलिए भविष्य में यदि कभी सदानीरा नदियाँ सूखी पगडंडी की तरह दिखाई देने लगें तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। एक अनुमान के अनुसार यदि धरती का औसत तापमान केवल दो तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है तो दुनिया की लगभग आधी आबादी पानी की कमी से त्रस्त हो जाएगी जब कि दस करोड़ लोग समुद्री बाढ़ में जूझ रहे होंगे। आबोहवा की उथल-पुथल धरती को फिर से वीरान बनाने की कोशिश करेगी।'' वास्तविकता यह है कि हमारी पृथ्वी की जलवायु में महानगरों की अहम भूमिका होती है और सबसे अधिक संकट आज महासागरों पर है। इसमें निवास करने वाले जीवों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। इस अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो, 12 फीसदी पक्षी, 25 फीसदी स्तनपायी प्राणी और 30 फीसदी से ज्यादा मेंढक जैसे प्राणी धरती से कूच करने की तैयारी में हैं।
सहस्त्राब्दी के इस पर्यावरण अध्ययन में अब तक पहली बार पर्यावरण विनाश को आर्थिक नजरिये यानि नफा-नुकसान की कसौटी पर आंकने की कोशिश की गयी है। इसके पहले सन् 1997 ई. में जीव वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों ने कुदरत की अनमोल सेवाओं की कीमत तय करने की कोशिश की थी। उस समय अनुमान लगाया गया था कि जंगली पेड़-पौधों द्वारा हवा को ठंडी करने, कीड़ों-मकोड़ों द्वारा फसलों का परागण करने, सागरों द्वारा पोषण पदार्थों का पुर्नचक्रण करने की कीमत लगभग 33 खरब डालर सालाना बैठती है जो दुनिया के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से लगभग दुगुनी है। रपट में जल, जंगल और जमीन का मूल्य उसकी कुदरती सेवा और महत्ता के आधार पर आंका गया है। मसलन पानी भरी भूमि (तकनीकी भाषा में वेटलैण्ड) जीव जन्तुओं और जलीय वनस्पतियों को आवास मुहैया कराती है, पानी को प्राकृतिक ढंग से प्रदूषित करती है और जल भंडारण की सुविधा भी उपलब्ध कराती है। इस आधार पर कनाडा की एक हेक्टेयर जल भूमि की कीमत छह हजार डालर आंकी गयी है। इसी तरह थाईलैण्ड के तटों पर मैंग्रूव वनों की कीमत एक हजार डालर प्रति हेक्टेयर आंकी गयी है, लेकिन आज इनका सफाया करके झींगा पालन शुरू कर दिया जाये तो इसकी पर्यावरणीय कीमत घटकर केवल 200 डॉलर रह जाती है। कुल मिलाकर यह अध्ययन यह कहना चाहता है कि प्राकृतिक संसाधनों का लोगों ने इतना ज्यादा शोषण दोहन किया है जिससे पारिस्थितिकी का ताना-बाना बिगड़ गया है। और इसका एक विस्तृत उदाहरण हाल में सुनामी लहरों से हुए महाविनाश से भी हमारे समक्ष है।
वनों के विनाश पर प्रस्तुत सहस्त्राब्दी अध्ययन रिपोर्ट में चिन्ता व्यक्त की गयी है, इसमें स्पष्ट कहा गया है कि ‘सन् 90 के दशक में इंडोनेशिया में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों का सफाया कर दिया गया। आर्थिक नजरिये से इस नुकसान की कीमत नौ अरब डालर आंकी गयी है, क्योंकि इससे वनों से होने वाले उत्पादन से हाथ धोना पड़ा, पर्यटन उद्योग को घाटा हुआ और सबसे बड़ी बात यह है कि वनों के विनाश ने बीमारियों को न्यौता देकर स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च बढ़ा दिया। 90 के दशक के अन्त में इंग्लैण्ड और वेल्स में रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मीठा पानी बर्बाद हुआ, जिसकी सालाना कीमत अदा करनी पड़ी 16 करोड़ डालर। सन् 1990 से 1999 के बीच आई बाढ़ों में एक लाख से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हैं। इससे हुए नुकसान की कुल कीमत 243 अरब डालर आंकी गयी है। अध्ययन रिपोर्ट की मानें तो पर्यावरण विनाश और दुनिया में बढ़ती भूख और गरीबी के बीच सीधा रिश्ता है। बिगड़ता पर्यावरण न केवल रोजी-रोटी के साधन छीन रहा है, बल्कि बीमारियों के रूप में लोगों की सेहत भी चौपट कर रहा है। जहाँ एक ओर पुराने रोग जड़ पकड़ रहे है, वही नये-नये मर्ज भी उभर रहे हैं। वनों के विनाश के कारण मलेरिया और हैजे का प्रकोप बढ़ता है तथा नये रोगों के पनपने का खतरा भी बढ़ जाता है। अफ्रीका में रोगों के प्रकोप के रूप में मलेरिया की हिस्सेदारी 11 फीसदी है। अगर अफ्रीका में 35 साल पहले मलेरिया पर काबू पा लिया गया होता तो महाद्वीप का सकल घरेलू उत्पाद 100 अरब डालर ज्यादा होता। गरीबी और पर्यावरण के इस चोली दामन वाले साथ को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने माना है कि सन् 2015 तक दुनिया में गरीबी और भूख को आधा करने का लक्ष्य शायद अब भी पूरा हो पाये। यहाँ तक कि 2050 में भी कुपोषण दुनिया की एक प्रमुख समस्या होगी और इसके मूल में होगी गरीबी। वर्तमान की बात करें तो आज भी दुनिया के एक अरब से ज्यादा लोग केवल एक डालर हर रोज की आमदनी पर गुजर-बसर कर रहे हैं - जबकि एक से दो अरब लोग पानी के अभाव से जूझ रहे हैं। यह समस्या विकासशील देशों की ही नहीं होगी इससे विकसित देश भी प्रभावित होंगे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य की सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट का अपना अलग महत्व है। भारतीय परिवेश में निवास करने वाली साठ से पैंसठ प्रतिशत जनता प्रकृति के सहारे अपना जीवन यापन कर रही है। इतने बड़े समूह का ढांचा जमीन, जल और वायु ही है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार ये ही तत्व सभी से ज्यादा प्रभावित हुए है।'' साथ में भारतीय जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए आने वाले समय में अनेक तरह की कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं। आज हम उपभोक्तावादी समाज में पनप रहे हैं और इस संस्कृति को पनपाने में दुनिया भर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कार्पोरेट हाउस के साथ-साथ विभिन्न देशों की सरकारों का भी योगदान रहा है। पहले यह था कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और सरकारों के बीच हितों के टकराने की वजह से मतभेद रहा करते थे। इस कारण सरकारों का रूख आम लोगों के हितों की तरह होता था लेकिन आर्थिक उदारीकरण ने इसे बदलकर रख दिया है। भारतीय संदर्भ में यह साफ-साफ दिख रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पैरोकार बन गयी हैं। एक खास बात भारत को इस रिपोर्ट से हो सकती है वह यह कि ‘इसके सहारे पर्यावरण संरक्षण को लेकर एक वैश्विक नीति बनाने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है लेकिन इसके लिए निश्चित तौर पर दुनिया के प्रमुख देशों की सरकारों को पहल करनी होगी। वरना इस रिपोर्ट के प्रकाशन मात्र से कोई बदलाव नहीं हो सकता। सरकारों को इस बात पर ध्यान देना होगा कि पर्यावरण पर राजनीति न होने पाये, बल्कि राजनीति में पर्यावरण को अहमियत दी जाये। इसके साथ ही आमजनों को भी इस पर शिद्दत के साथ विचार करना होगा और इसके लिए पहली जरूरत यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। इसके लिए दुनिया भर की सरकारों को अपने यहाँ की पर्यावरणीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ठोस नीतियों को बनाना होगा। सरकार की इन नीतियों में कई विश्व के गैर सरकारी संगठन इस दिशा में उचित सहयोग कर सकते हैं। दुनिया के देशों को यह भी समझना होगा कि वर्तमान की भूमंडलीय आर्थिक नीतियों और बढ़ती हुई उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण समूचा तंत्र प्रभावित हो रहा है, इसलिए इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी की सोच और व्यवहार में बदलाव के साथ सरकारों को भी इसे गम्भीरता से समझना होगा।
निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्र की इस पर्यावरणीय ‘सहस्त्राब्दी पारिस्थितिकीय आकलन रिपोर्ट में पर्यावरण में बदलावों के भविष्य और विभिन्न परिकल्पनाओं में बेहतर मानवीय जीवन की निर्धारक शक्तियों के आधार पर सहस्त्राब्दी आकलन रिपोर्ट में निम्न चार स्थितियों पर विस्तार दिखाई देता है - हस्तक्षेप सहारा समय 23 अप्रैल, 2005 के अनुसार
- एक वैश्विक समाज बनेगा जो विश्व व्यापार और आर्थिक उदारीकरण के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी समस्याओं को सुलझाने में अपनी सक्रियता दिखाएगा। वैश्विक समाज में गरीबी और असमानता को कम करने के लिए कड़े कदम उठाए जाएंगे। इसके लिए जनहित में आधारभूत ढांचे और शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। इस हालात में बाकी की चारों स्थितियों की तुलना में आर्थिक विकास कहीं ज्यादा होगा। उम्मीद है कि इस स्थिति में 2050 तक जनसंख्या सबसे कम होगी।
- इस हालात में राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र क्षेत्रीय जल वितरण होगा तथा स्थानीय संस्थाएं मजबूत होंगी। पर्यावरण प्रबंधन को लेकर समाज ज्यादा सजग होगा। आर्थिक विकास दर शुरू में धीमी रहेगी लेकिन आगे चलकर बढ़ती जाएगी। जहां तक जनसंख्या का सवाल है सन् 2050 तक यह थमने का नाम नहीं लेगी।
- इस परिदृश्य में पर्यावरण तकनीकी के मामले में दुनिया मजबूती से एक हो जाएगी जिसमें पर्यावरण संबंधी सुविधाएं बेहतर प्रबंधन के साथ मिल सकेंगी और इस प्रक्रिया में समस्याएं पैदा न हों, इस लिहाज से पर्यावरण प्रबंधन का विकास होगा। आर्थिक विकास तुलनात्मक रूप से ज्यादा होगा अगर 2050 तक जनसंख्या मध्यम स्थिति में रहे।
- इस परिदृश्य में क्षेत्रीयता हावी होगी जिससे एक खंडित दुनिया की तस्वीर बनती है। सुरक्षा पर विशेष ध्यान होगा खासकर क्षेत्रीय बाजारों को लेकर। पर्यावरण संबंधी समस्याओं को लेकर सक्रिय रूख होगा लेकिन आर्थिक विकास खासकर विकासशील देशों में अपेक्षाकृत कम होगा। जनसंख्या के विकास के साथ-साथ इस परिदृश्य में आर्थिक विकास और घटेगा।
भावी वैश्विक परिदृश्य की ये परिकल्पनाएं महज अटकल या भविष्यवाणी नहीं हैं बल्कि ये परिवर्तनकारी पारिस्थितिकीय शक्तियों के विकास के धुंधले दृश्य हैं। इन्हें हम आज के हालात और रुझान के आधार पर भविष्य का नक्शा कह सकते हैं। पहले तीनों परिदृश्यों का आधार वे नीतियां हैं जो विकास की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। उम्मीद है कि पहले परिदृश्य में व्यापार बाधाएं समाप्त हो जाएंगी, सब्सिडी खत्म होगी तथा गरीबी और भुखमरी को खत्म करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। दूसरे परिदृश्य में 2010 तक लगभग सभी देश सकल घरेलू उत्पाद का 13 फीसदी शिक्षा पर खर्च करने लगेंगे और एक जगह से दूसरी जगह योग्यता और ज्ञान का प्रवाह संस्थागत रूप से बढ़ेगा जबकि तीसरे परिदृश्य में पर्यावरण की देखभाल के कारण सेवाओं का उत्पादन बढ़ेगा, विकल्प बढ़ेंगे और हानिकारक व्यापार में कमी आएगी।
वैश्विक तापमान को कम करने का वैश्विक प्रयास ः क्योटो प्रोटोकॉल
वैश्विक गरमाहट की समस्या पृथ्वी के समक्ष एक आसन्न संकट है जिससे समग्र जैव समष्टि का भविष्य जुड़ा हुआ है क्योंकि हमारी पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ता जा रहा है और यह बढ़ता तापमान सम्पूर्ण विश्व के लिये एक ऐसी चुनौती बन गया है जिसका सामना यदि सभी देश मिलकर नहीं करेंगे तो यह तापमान सभी को एक दिन विनाश की कगार पर ला देगा। पृथ्वी के इस बढ़ते तापमान का कारण ‘ग्रीन हाउस प्रभाव' है। ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करने वाली गैसें - कार्बन-डाई-आक्साइड, मीथेन, ओज़ोन, कार्बन, क्लोरो फ्लोरो, नाइट्रस आक्साइड तथा सल्फर-डाई-आक्साइड हैं। वायुमण्डल में इन गैसों का अनुपात अधिक हो जाने के कारण तापमान में अधिक वृद्धि हो रही है। जिससे जल वाष्प का संघनन न हो पाने के कारण वर्षा का स्तर गिरता जा रहा है तथा तापमान वृद्धि के कारण पर्वतीय हिमनदों तथा ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघलने की सम्भावना बढ़ रही है, फलतः सागर तल ऊपर उठेगा जिससे तटवर्ती क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे।
हरित गृह गैसों की मात्रा वायुमंडल में जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है वायुमंडलीय परत और मोटी होती जा रही है वायुमंडल में इन हरित गैसों की मात्रा बढ़ने से धरती का तापमान बढ़ना स्वाभाविक है। मानव की जीवन शैली और मानवीय क्रियाकलापों से ये गैसें निरंतर बढ़ती जा रही हैं। धरती का ताप बढ़ाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका कार्बन-डाई-आक्साइड की हो गयी है। एक आकलन के अनुसार -‘‘सन् 1930 में इसकी सान्द्रता 315 पी. पी. एम. थी जो विगत सदी के अन्त 360 पी. पी. एम. तक पहुँच चुकी है। आई पी. सी. सी. संयुक्त राष्ट्र संघ के वैज्ञानिकों का आंकलन है कि वर्तमान सदी के मध्य तक ब्व्2 की सान्द्रता बढ़कर 450 पी. पी. एम. तक पहुँच जाएगी और तब धरती के ताप में 1-30 से की वृद्धि अवश्य भावी है। ऐसे में समुद्री जल स्तर का प्रसार होगा और मालद्वीप, मारीशस, बंग्लादेश सरीखे टापूनुमा देश जलमग्न हो जाएंगे। रेगिस्तानी क्षेत्र और गर्म हो जाएंगे जिससे वहाँ की जैव जातियाँ नष्ट होने लगेगी। जंगलों पर पायी जाने वाली प्रजातियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। सागरीय जीवन में भी उथल-पुथल मच जाएगी क्योंकि सागरीय जल की क्षारीयता बढ़ जाएगी जो सागरों में रहने वाली जैव समष्टि के लिए घातक होगी।
जलवायु परिवर्तन की समस्या जो कि एक वैश्विक चुनौती है, का हल भी वैश्विक स्तर पर आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का प्रभाव सभी देशों में समान है ये गैसें जितना लंदन को प्रभावित करती हैं उतना वाशिंगटन, बीजिंग तथा भारत को भी प्रभावित करती हैं। अतः किसी एक देश द्वारा इन गैसों के उत्सर्जन को कम करने का प्रयास तब तक निरर्थक साबित होगा जब तक सभी देश मिलकर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इसी पहल के तहत संयुक्त रूप से विभिन्न देशों द्वारा हरित गृह प्रभाव वाली गैसों के उत्सर्जन में ह्रास लाने के वचनबद्ध प्रयास का नाम है - क्योटो प्रोटोकॉल। क्योटो प्रोटोकॉल 1997 में अस्तित्व में आया तथा इस समझौते में 2008-2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया। यह समझौता वैश्विक स्तर पर ‘ग्लोबल वार्मिंग' की समस्या को हल करने का एक सराहनीय प्रयास है। यह समझौता एक या दो वर्षों के प्रयास से अस्तित्व में नहीं आया बल्कि कई सम्मेलनों एवं समझौतों की असफलता के फलस्वरूप उदय हुआ। अतः इस समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलनों एवं तिथियों को जानना आवश्यक है -
क्योटो प्रोटोकॉल समझौते से सम्बन्धित महत्वपूर्ण सम्मेलन एवं तिथियाँ -
- विश्व की इस परिवर्तित होती जलवायु पर सर्वप्रथम चिन्ता 1992 में पृथ्वी सम्मेलन में UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) नामक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें सन् 2000 तक कार्बन-डाई-आक्साइड को 1990 के स्तर तक कम करने के लिये कहा गया जो कि 1990 के स्तर से 13 प्रतिशत अधिक थी। परन्तु यह सम्मेलन असफल रहा। किसी भी देश ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये।
- UNFCCC द्वारा प्रस्तावित समझौते को कानूनी बाध्यता के रूप में परिवर्तित करने के लिये 1995 में बर्लिन मेंडेट सम्मेलन आयोजित किया गया। UNFCCC ने इस सिंध पर समझौता करने के लिये 1997, अन्तिम समय सीमा निर्धारित कर दी गयी।
- 1997 में 165 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल (क्योटो प्रोटोकॉल एक समझौते की रूपरेखा है जिसमें तापमान कम करने के लक्ष्य तथा समय निर्धारित है।) पर सहमति बनाई। इस समझौते में 2008 से 2012 तक की अवधि में हरित गृह प्रभाव वाली गैसों को 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत कम करने का निर्णय लिया गया (अमेरिका ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया)।
- सन् 2000 में हेग में क्योटो प्रोटोकॉल के सभी नियमों को लागू करने के लिये सम्मेलन बुलाया गया परन्तु किसी अन्तिम निष्कर्ष पर न पहुँच पाने के कारण यह सम्मेलन असफल रहा।
- 16-28 जुलाई 2001 में जर्मनी में फिर से एक सम्मेलन बुलाया गया और फिर से कोई आम सहमति न बन पाने के कारण असफल हो गया।
- नवम्बर 2001 में 160 देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के समझौते के अनुसार निर्धारित किये गये लक्ष्य को पूरा करने के लिये बताये गये नियमों, निर्देशों तथा तकनीक को स्वीकार किया।
- 16 फरवरी 2005 में यह समझौता अन्तिम रूप से लागू हो गया। जिसके तहत 129 देशों ने इसकी तरफदारी की है। रूसी अनुसमर्थन से अमेरिका और अन्य विकसित देशों पर दवाब निर्मित हुआ है फलता इसके सार्थक परिणाम आने की आशा है।
- अभी हाल ही में 11 सितम्बर, 2006 में यूरोप तथा एशियाई देशों ने फिनलैण्ड में सम्मेलन आयोजित किया। ASEM (Asia-Europe Summit) में इस बात पर चिंता व्यक्त की गयी कि क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि समाप्त होने के बाद हरित गृह प्रभाव की गैसों के उत्सर्जन के बारे में क्या किया जायेगा। ।ैम्ड जिसमें 25 यूरोपीय देश तथा 13 एशियाई देश शामिल थे, में जलवायु परिवर्तन में होने वाले परिवर्तन को नियंत्रित करने के अधिकतम सम्भावित सहयोग के लिये कहा गया तथा 2012 की अवधि के बाद भी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित रखने पर सहमति बनायी गयी।
विकसित देशों को इस समझौते द्वारा अपने देश की औद्योगीकरण प्रक्रिया में ह्रास होने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी कारण अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये। परन्तु यह समझौता भविष्य में होने वाले बहुत ही बड़े पतन से बचाने का प्रयास है जिसे अमेरिका जैसा देश नजर अन्दाज़ कर रहा है।
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सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
इसे प्रकाशित किया Raviratlami ने, समय: 18:34 Share This! / इस रचना को ईमेल के जरिए दोस्तों को भेजें!
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